9/11 हमले ने दुनिया नहीं बदली, यह पहले ही दशकों तक चलने वाले संघर्ष के रास्ते पर थी

Webdunia
शनिवार, 11 सितम्बर 2021 (17:45 IST)
ब्रैडफोर्ड (ब्रिटेन)। न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन में 11 सितंबर 2001 (9/11) को हुए हमलों ने आतंक पैदा कर दिया था। हमले के जरिए 3 घंटों से कम समय में विश्व व्यापार केंद्र की गगनचुंबी जुड़वां इमारतों को धातु और मलबे के ढेर में तब्दील कर दिया गया जिसमें 2,700 से अधिक लोगों की मौत हो गई जबकि पेंटागन में और सैकड़ों लोग मारे गए। इन सभी जगहों पर यात्री विमानों से हमला किया गया।

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अमेरिका पर हमले हुए थे। यह जॉर्ज डब्ल्यू. बुश के अत्यधिक प्रभावशाली नवरूढ़िवादी लोगों के साथ नए प्रशासन के गठन के ज्यादा देर बाद नहीं हुआ। उस समय टिप्पणीकारों ने हमले की तुलना पर्ल हार्बर से की थी, लेकिन 9/11 का असर कहीं ज्यादा था। पर्ल हार्बर पर हमला एक ऐसे देश ने किया जिसके अमेरिका के साथ तनावपूर्ण संबंध चल रहे थे। अगर जापान के साथ युद्ध पर्ल हार्बर हमले का नतीजा था तो भी 9/11 के बाद युद्ध होता ही, भले ही इस हमले के पीछे के दोषियों के बारे में अमेरिकी जनता को कम जानकारी थी।

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हमले के एक महीने के भीतर अल-कायदा और तालिबान के खिलाफ 'आतंक पर युद्ध' शुरू हुआ, जो बमुश्किल 2 महीने तक चला और कामयाब दिखाई दिया। इसके बाद बुश ने जनवरी 2002 में युद्ध को बढ़ाने की घोषणा की। ईरान और उत्तर कोरिया के साथ ही इराक प्राथमिकता था। इराक युद्ध मार्च 2003 में शुरू हुआ और 1 मई तक खत्म हो गया, जब बुश ने यूएसएस अब्राहम लिंकन जहाज से 'अभियान के पूरा होने' की घोषणा की। 'आतंक पर अमेरिका की अगुवाई वाले युद्ध' का यह चरम बिंदु था। अफगानिस्तान पहली तबाही थी जब तालिबान 2 से 3 वर्षों में ग्रामीण इलाकों में वापस चला गया और पिछले महीने काबुल पर कब्जा जमाने से पहले तक 20 साल तक अमेरिका और उसके सहयोगियों से लड़ता रहा।

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इराक में आतंकवादियों के 2009 तक पराजित होते दिखने और अमेरिका के 2 साल बाद अपनी सेना को वापस बुलाने के बावजूद आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट का जन्म हुआ। इससे इराक और सीरिया में तीसरा संघर्ष शुरू हुआ। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और अन्य देशों द्वारा लड़े इस युद्ध में इस्लामिक स्टेट के हजारों समर्थक मारे गए और कई हजार नागरिक भी मारे गए। इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट को खदेड़ने के बाद उसने फिर से पैर पसारे और उसका आतंक साहेल, मोजाम्बिक, कांगो गणराज्य, बांग्लादेश, दक्षिण थाईलैंड, फिलीपीन, फिर से इराक और सीरिया तथा यहां तक कि अफगानिस्तान में फैल गया। इन कटु नाकामियों के मद्देनजर हमारे 2 सवाल हैं- क्या 9/11 एक नई वैश्विक अव्यवस्था के दशकों की शुरुआत था? और अब यहां से हमें कहां जाना है?

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9/11 के संदर्भ में : 9/11 को सैन्य तैनाती में बदलाव की अकेली घटना के तौर पर देखना स्वाभाविक है लेकिन यह भ्रामक है। पहले से ही बदलाव शुरू हो गए थे। हमलों से 8 साल पहले फरवरी 1993 में हुई 2 अलग-अलग घटनाओं ने इसकी भूमिका तैयार कर दी थी। सबसे पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने सीआईए के नए निदेशक के तौर पर जेम्स वूलसे की नियुक्ति की थी। सीनेट में नाम पर पुष्टि के लिए होने वाली सुनवाई में यह पूछे जाने पर कि वह कैसे शीतयुद्ध के अंत का वर्णन करेंगे तो इस पर उन्होंने जवाब दिया था कि अमेरिका ने ड्रैगन (सोवियत संघ) को मार डाला लेकिन अब उसके सामने जहरीले सांपों से भरा एक जंगल है।
 
दूसरी अहम बात अमेरिकी सेना और दुनियाभर में ज्यादातर विश्लेषक एक नए माहौल की महत्ता को पहचान नहीं पाए जिसमें कमजोर लोगों के मजबूत लोगों के खिलाफ हथियार उठाने की क्षमता तेजी से सुधर रही थी। वूलसे के बयान के कुछ वक्त बाद 26 फरवरी 1993 को एक इस्लामिक अर्द्धसैन्य समूह ने ट्रक में रखे बम से विश्व व्यापार केंद्र को खत्म करने की कोशिश की। हमला नाकाम रहा लेकिन 6 लोग मारे गए और इस हमले के असर को कमतर आंका गया। दिसंबर 1994 को एक अल्जीरियाई अर्द्धसैन्य समूह ने पेरिस पर एक एयरबस यात्री विमान को गिराने की कोशिश की, लेकिन फ्रांस के विशेष बलों ने इस हमले को नाकाम कर दिया। 1 महीने बाद श्रीलंका के कोलंबो में लिट्टे द्वारा की गई बमबारी ने कोलंबो के केंद्रीय औद्योगिक जिले को तबाह कर दिया जिसमें 80 से अधिक लोग मारे गए और 1,400 से अधिक घायल हो गए।
 
विश्व व्यापार केंद्र पर पहले हमले से 1 दशक पहले बेरुत में एक बमबारी में 241 मरीन मारे गए और 1993 से 2001 के बीच सऊदी अरब में खोबर टॉवर बमबारी समेत पश्चिम एशिया और पूर्वी अफ्रीका में हमले हुए। 9/11 हमलों ने दुनिया को नहीं बदला। वे 2 दशकों के संघर्ष और 4 नाकाम युद्ध की ओर ले जाने वाले कदम थे।
 
अब क्या? : हमें यह मानना होगा कि 9/11 की बरसी के आसपास के सभी विश्लेषणों में ऐसा माना गया है कि मुख्य सुरक्षा चिंता इस्लाम के अत्यधिक कट्टर रूप को लेकर होनी चाहिए। 9/11 हमलों से कई साल पहले 1990 में अपनी किताब 'लूजिंग कंट्रोल' लिखते हुए मैंने कहा कि क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि नए सामाजिक आंदोलन शुरू होंगे जो अनिवार्य रूप से संभ्रांत वर्ग विरोधी हो। अलग संदर्भों और परिस्थितियों में उनकी जड़ें राजनीतिक विचारधाराओं, धार्मिक विश्वास, जातीयता, राष्ट्रवादी या सांस्कृतिक पहचान या इनमें से कई के जटिल संयोजन में हो सकती है। 2 दशक से भी अधिक समय बाद सामाजिक-आर्थिक विभाजन खराब हुआ है, धन का संकेंद्रण ऐसे स्तर तक पहुंच गया है जिसे अश्लील बताया गया है और यहां तक कि कोविड-19 महामारी के दौरान नाटकीय रूप से बढ़ा है जिससे खाद्य पदार्थ की कमी और गरीबी बढ़ गई है। इस बीच जलवायु परिवर्तन भी एक बड़ी चुनौती बन गया है तथा इसका सबसे बड़ा असर हाशिए पर पड़े समाज पर है। साथ ही हमें तुरंत इस पर पुनर्विचार की आवश्यकता है कि सुरक्षा से हमारा क्या मतलब है और ऐसा करने के लिए समय कम पड़ रहा है।(भाषा)

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