जी-7 शिखर सम्मेलन के बाद जर्मन प्रेस में भारत

राम यादव
आल्प्स पर्वतों की गोद में बसे जर्मनी के सबसे सुरम्य राज्य बवेरिया के एक छोटे-से शहर इल्माऊ में हुआ जी-7 देशों का शिखर सम्मेलन मंगलवार को समाप्त हो गया। वैसे तो यह पश्चिम के सबसे धनी लोकतांत्रिक पूंजीवादी देशों के शीर्ष नेताओं का वार्षिक सम्मेलन था। पर इस बार एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के पांच ऐसे देशों के शीर्ष नेता भी प्रेक्षकों के तौर पर आमंत्रित थे, जो लोकतांत्रिक हैं और समय के साथ जी-7 देशों के प्रतिस्पर्धी भी बन सकते हैं। ये पांच देश हैं भारत, इंडोनेशिया, अर्जेन्टीना, दक्षिण अफ्रीका और सेनेगाल। 
 
जनसंख्या, क्षेत्रफल और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की दृष्टि से भारत इन पांच देशों में सबसे बड़ा और सबसे लंबे लोकतांत्रिक इतिहास वाला देश है। कुछ समय पहले तक भारत को एक पिछड़ा हुआ, भ्रष्टाचार-ग्रसित और किसी हद अराजक देश मानने वाले जी-7 के अमेरिका, कैनडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, इटली और जापान को अब समझ में आने लगा है कि एक अरब 40 करोड़ लोगों के इस देश की उपेक्षा करना भविष्य में बहुत मंहगा पड़ सकता है।
 
इन देशों का मीडिया नरेंद्र मोदी को 'लोकलुभावन' बातें करने वाला 'हिंदू राष्ट्रवादी' और यहां तक कि 'फ़ासीवादी' बताकर उनकी खूब निंदा-आलोचना भले ही करे, उनके उदय के बाद से भारत का विकोसोन्मुख चेहरा जिस तेज़ी से बदल रहा है, जी-7 के नेता उसे अनदेखा नहीं कर पा रहे हैं। इसीलिए पिछले कुछेक वर्षों से जी-7 के शिखर सम्मेलनों में मोदी को भी आमंत्रित किया जाने लगा है।
 
भारत और प्रधानमंत्री मोदी का भाव इस बार इसलिए भी काफ़ी बढ़ गया था कि पश्चिमी देश चाहते हैं कि यूक्रेन पर आक्रमण करने के कारण रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को जिस तरह वे रात-दिन कोसते हैं, उसी तरह भारत की मोदी सरकार भी उन्हें कोसे। पश्चिमी देश यह नहीं याद करना चाहते कि कश्मीर समस्या, चीन के साथ सीमा विवाद, गोवा के भारत में विलय या बांग्लादेश के जन्म जैसे अनेक मौकों पर वे नहीं, रूस हमेशा भारत के साथ खड़ा था। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में 100 से अधिक बार उन्होंने नहीं, रूस ने अपने वीटो द्वारा भारत को बचाया। पश्चिमी देश नहीं समझ पाते कि अपनी विदेश नीति में हम भारतीय मतलब की यारी नहीं करते। पर उन्हें यह ज़रूर समझ में आने लगा है कि जीडीपी वाले पैमाने पर कैनडा और इटली को कहीं पीछे छोड़ चुके भारत को भी जल्द ही साथ लेना और जी-7 को जी-8 बनाना पड़ेगा।   
 
शिखर सम्मेलन की समाप्ति के तुरंत बाद की समीक्षाओं में जर्मनी के कुछेक समाचार-पत्रों और रेडियो-टेलीविज़न चैनलों पर यही बात देखने में आई। 
 
उदाहरण के लिए, जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन के सबसे अधिक बिक्री वाले दैनिक 'क्यौएल्नर श्टाट-अनत्साइगर' ने लिखाः 'जर्मन चांसलर का यह निर्णय बुद्धिमत्तापूर्ण था कि उन्होंने पांच ऐसे लोकतांत्रिक देशों के शीर्ष नेताओं को भी आमंत्रित किया, जो मुख्य रूप से आर्थिक कारणों से रूस से बिगाड़ नहीं करना चाहते। उन्हें पुतिन की ओर से किसी सैन्य ख़तरे के बदले अपने यहां भुखमरी होने, ग़रीबी बढ़ने और सामाजिक असंतोष की चिंता होना स्वाभाविक है।... यूरोप वैसे भी एक ऐसे आर्थिक क्षेत्र के तौर पर जाना जाता है, जिसे सबसे पहले अपने ही लाभ की चिंता रहती है।... चांसलर शोल्त्स एक नई विश्व व्यवस्था चाहते हैं, तो वे अन्य लोकतांत्रिक देशों को रूस और चीन के विरुद्ध एकजुट भी करेंगे।'    
 
जर्मनी में राष्ट्रीय महत्व वाले सबसे बडे दैनिकों में से एक, म्यूनिक के 'ज़्युइडडॉएचे त्साटुंग' ने लिखाः 'मोदी सकार को अक्सर लोकलुभावनी, हिंदू-राष्ट्रवादी नीतियों वाली सरकार बता कर उसकी निंदा की जाती है। लेकिन चीन के मुकाबले या रूस की तुलना में वह फिर भी लोकतांत्रिक ही है। (भारत) ढेर सारे लोगों वाला एक बहुत बड़ा बाज़ार भी है। दिल्ली की सरकार रूस के साथ यदि अब भी अच्छे संबंध बनाए हुए है, और तथाकथित पश्चिम के दबाव में आकर उसे छोड़ना नहीं चाहती, तो शायद इस कारण भी, कि वह नहीं चाहती कि मॉस्को और पेकिंग एक-दूसरे के और अधिक निकट सरकें। ये दोनों यदि अपनी शक्तियां
एकजुट करते हैं, तो यह भारत के लिए सबसे बुरा होगा। जी-7 वाले देशों के लिए भी यह बुरा ही होगा, क्योंकि इन दोनों (देशों) के बाज़ार काफ़ी समय तक एक-दूसरे की ज़रूरतें पूरी करते रहेंगे।' 
 
विदेशों के लिए जर्मनी की आवाज 'डोएचे वैले' का कहना थाः 'जी-7 कहलाने वाले प्रमुख औद्योगिक देश... नए साथी और सहयोगी ढूंढ रहे हैं। यह बात यूक्रेन पर रूस के हमले के बाद ही स्पष्ट नहीं हुई है कि दुनिया एक बार फिर रोब-दाब और प्रभावक्षेत्रों में बंट रही है। एक बार फिर देखा जा रहा है कि कौन किस के पक्ष में खड़ा है। कौन मित्र है, कौन शत्रु है। इन्डोनेशिया और भारत के रूप में जी-20 के तत्कालीन और भावी अध्यक्ष को इल्माऊ आमंत्रित किया गया था। सेनेगाल इस समय अफ्रीकी संघ का और अर्जेन्टीना लैटिन अमेरिकी और कैरीबियाई देशों के संघ का अध्यक्ष है।'
 
जर्मनी और फ्रांस के साझे सांस्कृतिक टेलीविज़न चैनल 'आर्टे' के अनुसारः 'सात प्रमुख औद्योगिक देशों के शिखर सम्मेलन के लिए मेज़बान देश जर्मनी ने भारत, इन्डोनेशिया, अर्जेन्टीना, दक्षिण अफ्रीका और सेनेगाल को विशेष तौर पर आमंत्रित किया था। जर्मन सरकार ने कहा कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाले होने के नाते ये देश 'स्वतंत्रता और क़ानून के राज' के कायल हैं। जर्मन सरकार का कहना है कि नियमों पर आधारित कोई अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था दुनिया के लोकतांत्रिक देशों के बीच एकजुटता और सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकती।'  
 
ये सब स्वगत योग्य नए स्वर हैं। अब तक तो हम यही देखते-सुनते रहे हैं कि केवल जी-7 जैसे धनी औद्योगिक देश ही सच्चे लोकतंत्र और लोकतंत्र का वैश्विक मानदंड हो सकते हैं। भारत को वे लंबे समय तक भूखों-नंगों और 'निरक्षरों का लोकतंत्र' कहते रहे हैं। उन्हें अपने शब्द और स्वर अब बदलने पड़ रहे हैं तो इसलिए भी, कि अब उसी 'निरक्षरों वाले लोकतंत्र' के लाखों आईटी एवं अन्य व्यावसायिक साक्षर इन देशों के उद्योग-धंधों के कर्णधार बन गए हैं। भारत स्वयं भी जिस तेज़ी प्रगति कर रहा है, उससे वह एक दशक बाद विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन सकता है। तब उसकी उपेक्षा करना और भी दुष्कर हो जाएगा। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। वेबदुनिया इसकी जिम्मेदारी नहीं लेती है) 

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