क्षमावाणी विशेष : आत्मशुद्धि, मैत्री और क्षमा भाव का पावन पर्व

राजश्री कासलीवाल
इस भागदौड़भरी जिंदगी में किसी को भी क्रोध या गुस्सा आना साधारण बात है, क्योंकि व्यक्ति जीवन में इतना उलझा हुआ रहता है कि फिर बात चाहे बड़ी हो या छोटी उसको गुस्सा आ ही जाता है। क्रोध एक कषाय है और कषाय के आवेग में व्यक्ति विचारशून्य हो जाता है। कषाय व्यक्ति को अपनी स्थिति से विचलित कर देती है। इसलिए व्‍यक्ति को अपने जीवन में क्षमा का भाव रखना चाहिए और यह भावना सभी जीवों के प्रति होनी चाहिए। सभी से मैत्री का भाव रहे, यही दसलक्षण पर्व की सीख है। 
 
जैन धर्म में दशलक्षण पर्व का बहुत महत्व है। इसे 'पयुर्षण पर्व' भी कहा जाता है। इन 10 दिनों के दौरान प्रथम दिन उत्तम क्षमा, दूसरा दिन उत्तम मार्दव, तीसरा दिन उत्तम आर्जव, चौथा दिन उत्तम सत्य, पांचवां दिन उत्तम शौच, छठा दिन उत्तम संयम, सातवां दिन उत्तम तप, आठवां दिन उत्तम त्याग, नौवां दिन उत्तम आकिंचन तथा दसवां दिन ब्रह्मचर्य के रूप में मनाया जाता है। यह आत्मशुद्धि करने का पर्व है, जो 10 दिनों तक मनाया जाता है। इसके साथ ही अंतिम दिन क्षमावाणी पर्व के रूप में मनाया जाता है। 
 
दसलक्षण पर्व एक ऐसा पर्व है जिसमें आत्मा भगवान में लीन हो जाती है। यह एक ऐसी क्रिया, ऐसी भक्ति और ऐसा खोयापन है जिसमें हर किसी को अन्न-जल तक ग्रहण करने की सुध नहीं रहती है। इन 10 दिनों में कई धर्मावलंबी भाई-बहनें 3, 5 या 10 दिनों तक तप करके अपनी आत्मा का कल्याण करने का मार्ग अपनाते हैं। 
 
पयुर्षण के अंतिम पर्व में आता है क्षमावाणी पर्व, जो राग-द्वेष, अहंकार से भरे इस संसार में अपने-अपने हितों और अहंकारों की गठरी को दूर करने का मौका हमें देता है। हम न जाने कितने अहंकार को सिर पर उठाए कहां-कहां फिरते रहते हैं और न जाने किस-किस से टकराते फिरते हैं। इसमें हम कई लोगों के दिलों को जाने-अनजाने में ठेस पहुंचाते हैं। कभी-कभी तो हम खुद की भावनाओं को भी ठेस पहुंचाते हैं। जीवन में आगे निकल जाने की दौड़-होड़ में अमूमन हमसे हिंसा हो ही जाती है। 
 
ऐसे में इन सब बातों को अपने मन से दूर करने और अपने द्वारा दूसरों के दिलों को दुखाए जाने से जो कष्‍ट हमारे द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ है, उन सब बातों को दूर करने का यही एक अवसर होता है पर्युषण का, जब हम अपने तन-मन से अपने द्वारा की गई गलतियों के लिए दूसरों से बेझिझक क्षमा मांग सकते हैं। 
 
वैसे भी सांसारिक मनुष्य को जरा-जरा-सी बातों में मान-सम्मान आड़े आता है अत: हमें चाहिए कि हम कभी भी अपने पद-प्रतिष्ठा का अहंकार न करें, हमेशा धर्म की अंगुली पकड़कर चलते रहें और जीवन के हर पल में भगवान को याद रखें ताकि भगवान हमेशा हमारे साथ रह सकें। अपने इस अहंकार को जीतने के लिए जीवन में तप का भी महत्वपूर्ण स्थान है और तप के 3 काम हैं- अपने द्वारा किए गए गलत कर्मों को जलाना, अपनी आत्मा को निखारना और केवलज्ञान को अर्जित करना। अपने जीवन में ऊर्जा को मन के भीतर की ओर प्रवाहित करने का नाम ही तप है। 
 
अत: जीवन में अहं भाव के चलते हुई गलतियों को सुधारने का एकमात्र उपाय यही बचता है कि हम शुद्ध अंतःकरण से अपनी भूल-चूक को स्वीकार करके अपने और सबके प्रति विनम्रता का भाव मन में जगाएं और मन की शुद्धि करते हुए सभी से माफी मांगें। मन के बैर-भाव के विसर्जन करने के इस अवसर को हम खोने न दें और इसका लाभ उठाते हुए सभी से क्षमा-याचना करें ताकि हमारा मन और आत्मा शुद्ध हो सकें। साथ ही दूसरे के मन को भी हम शांति पहुंचा सकें, यही हमारा प्रयास होना चाहिए। 
 
जैन शास्त्रों में वर्णित ये 4 पंक्तियां मनुष्य के जीवन का रुख मोड़ देती है- कहा गया है कि... 
 
सुखी रहे सब जीव-जगत के कोई कभी न घबरावे,
बैर-पाप-अभिमान छोड़ जग नित्य नए मंगल गावे।
घर-घर चर्चा रहे धर्म की दुष्कृत दुष्कर हो जावे,
ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्म फल सब पावे।।
 
इसी भाव में साथ अंत में बस इतना ही कि क्षमावाणी के इस पावन पर्व पर हमें दिल से एक-दूसरे के प्रति क्षमाभाव रखते हुए माफी मांगनी चाहिए। भागदौड़भरी इस जिंदगी में हम अपने मन में हमेशा यह विचार बनाकर चलें कि इस दुनिया में मेरा कोई भी बैरी नहीं हैं और मेरा भी किसी से बैर-भाव नहीं है। अगर कोई मेरे प्रति बैर-भाव रखता हो तो तब भी मैं उसे क्षमा करता हूं और वह भी मुझे क्षमा करें। 
 
सभी को उत्तम क्षमा, सबको क्षमा, सबसे क्षमा...! 
 
अंत में इतना ही सादर जय जिनेंद्र...।

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