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फनी बाल कविता : जूतों की व्यथा

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प्रभुदयाल श्रीवास्तव

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जूते बैठे दरवाजे पर,
झांक रहे बैठक खाने में।
कहते हैं क्यों- हमें मनाही ?
हरदम ही भीतर आने में।
 
कई बार धोखे धंधे से ,
हम भीतर घुस ही जाते हैं।
लेकिन देख-देख दादी के,
तेवर हम तो डर जाते हैं।
लगता है गुस्से के मारे,
हमें भिजा देगी वह थाने।
 
उधर चप्पलों का आलम है ,
बिना डरे बेधड़क घूमतीं।
बैठक खाने के, रसोई के,
शयन कक्ष के फर्श चूमतीं।
घर के लोग मजे लेते हैं,
भीतर चप्पल चटकाने में।

 
हम जूतों के कारण ही तो,
पांव सुरक्षित इंसानों के।
ठोकर, कांटे हम सहते हैं,
दांव लगा अपने प्राणों के।
फिर क्यों? हमें पटक देते हैं। ,
गंदे से जूते खाने में।   
 
(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)


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