सामाजिक कुप्रथाओं का अंत सिर्फ कानून बनाकर संभव नहीं है, इसका जीता जागता उदाहरण दहेज प्रथा है। बिहार में दहेज प्रथा को खत्म करने की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक और पहल की है।
1961 में दहेज विरोधी कानून बनने के 56 वर्षों बाद अगर आज भी दहेज प्रथा को बंद करने की 'शुरुआत' करने का आह्वान किया जा रहा है तो अपने आप में सबसे बड़ी विडंबना यही है। ये शुरुआत उस बिहार में हुई है जो यूं तो संसद में कानून बनने से पहले 1950 में ही दहेज विरोधी कानून देने वाला देश का पहला राज्य बन गया था। इससे ये साफ हो जाता है कि कानून बना देने भर से किसी समस्या का हल नहीं हो जाता है। इसलिये बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जब गांधी जयंती के दिन दहेज विरोधी आंदोलन शुरु करने की बात की तो एक तरह से ये दिनों-दिन विकट होती जाती दहेज प्रथा की गंभीरता की ओर इशारा था जो लड़कियों और महिलाओं की दुर्दशा का एक बड़ा कारण है। कोशिश स्वागत योग्य है लेकिन इसकी सार्थकता अपने प्रभाव और नतीजों से ही संभव है।
केंद्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी के लोकसभा में दिये बयान के अनुसार 2012 से 2014 के बीच दहेज से जुड़ी 24,770 हत्याएं हुई हैं जिसमें सबसे ज्यादा उत्तर प्रदेश और बिहार में हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के ताजा आंकड़ों के अनुसार दहेज उत्पीड़न के करीब साढ़े तीन लाख मामले दर्ज किये गये जिनमें सबसे ज़्यादा मामले बंगाल से थे। दहेज एक देशव्यापी समस्या है लेकिन स्त्री अधिकारों के लिये संघर्ष कर रही संस्थाओं का मानना है कि इससे बहुत बड़ी संख्या उन मामलों की है जो अदालत तक पहुंच ही नहीं पाते हैं। ये पहली बार नहीं है जब बिहार में दहेज विरोधी आंदोलन से युवाओं को जोड़ने की कोशिश की जा रही है।
जयप्रकाश नारायण की समग्र क्रांति की परिकल्पना में दहेज का खात्मा भी शामिल था। महात्मा गांधी अपनी जनसभाओं में कहते ही थे कि विवाह बगैर दहेज के होना चाहिये। ये चिंताजनक है कि देश में कुल दहेज मौतों में से 15 फीसदी बिहार में होती हैं। वहां अकेले 2016 में दहेज के करीब पांच हजार मामलों में से करीब हजार मामले दहेज से होने वाली मौतों के हैं। इस तरह पूरे देश में बिहार का दहेज मामलों में दूसरा नंबर है।
बिहार में दहेज प्रथा को लेकर सामाजिक स्तर पर जागरूकता अभियान को सरकारी आयोजन के बड़े पर्दे से निकालकर घर घर तक पहुंचाना चाहिए। क्योंकि अमीर हो या कुछ कम अमीर या उच्च, मध्य और निम्न मध्यवर्गीय परिवार- उच्चता ग्रंथि, विलासिताओं की भूख और सामाजिक प्रतिष्ठा के खोखले अरमानों ने उन्हें इतना लोभी बना दिया है कि अपनी चाहतों और इच्छाओं की पूर्ति के लिए उनके पास संसाधन हों या न हों या कम पड़ते हों, तो भी वे विवाह जैसी रस्मों के जरिए अपने पुत्रों के जरिए उगाही जैसी मनोवृत्ति में लिप्त हो जाते हैं। ये कोई छिपी बात नहीं है कि कई परिवारों में तो लड़कों की बोली जैसी लगती है- नौकरी, प्रतिष्ठा, पढ़ाईलिखाई, फैमिली बैकग्राउंड आदि जैसे इस बोली के कुछ स्केल बन जाते हैं। और इन स्केलो पर डिमांड होती है कभी नकदी, कभी प्लॉट, कभी गहने, कभी कार, महंगा सामान आदि तो कभी सब कुछ। सोचिए इतना भयानक है ये 'रस्मी कारोबार।'
और ये अकेले बिहार की बात नहीं है, देश का कोई शहरी, अर्धशहरी या ग्रामीण हिस्सा ऐसा नहीं है जहां ये कुप्रथा जड़ें न जमा चुकी हो। समाज-कल्याण और देश को आगे बढ़ाने की दिन-रात दुहाई देने वाले अधिकांश लोगों का निजी व्यवहार में जब आचरण की शुद्धता और नैतिकता के बोध से सामना होता है तो उनके आगे किंकर्तव्यविमूढ़ता और संभावित लालसाओं का भड़कीला पर्दा आ जाता है। आप भी अपने आसपास ऐसे कई परिचितों और लोगों को जानते होंगे जो दहेज लेने या देने में शरमाते न हों। हैरानी तो तब होती है जब पढ़ीलिखी और नौकरीपेशा लड़कियां भी अपने परिवारों की इस रूढ़ि को सहजता से स्वीकार कर लेती हैं। हमारे समाज में अब दहेज लेना देना एक अपरिहार्य और स्वाभाविक वैवाहिक रस्म सी बना दी गई है। बस इतना ही है कि इस 'रस्म' का उल्लेख शादी के कार्ड पर नहीं होता!
बिहार का दहेज विरोधी अभियान सैद्धांतिक तौर पर सही और सकारात्मक है लेकिन इसमें व्यावहारिक पारदर्शिता भी चाहिए। उपभोक्तावादी समाज की आकांक्षाएं और लालसाएं क्या हैं, क्यों पढ़े-लिखे युवा दहेज से परहेज करने में हिचकते नहीं हैं, क्यों ये कुप्रथा धीरे धीरे शहरों से होते हुए देहातों और गांवों तक को अपनी चपेट में ले रही है, क्यों दहेज एक रस्म बना दी गई है- इन पर नये अध्ययनों और नयी जागरूकता की जरूरत है।
दहेज विरोधी कानून और अभियानों की आड़ में ब्लैकमेलिंग और गलत इस्तेमाल के मामले भी चिंताजनक है। सुप्रीम कोर्ट भी इस बारे में टिप्पणियां कर चुका है। ये भी देखा जाना चाहिए कि कोई सिरफिरा या बदले की भावना से संचालित कोई व्यक्ति किसी बेगुनाह को कानून की आड़ में फंसा न दे। जहां तक अभियान का सवाल है तो बिहार जैसे जातीय समीकरणों और जातीय गांठों में उलझे हुए राज्य में उन गांठों और समीकरणों को सुलझाने के राजनीतिक उपाय भी करने होंगे। विभिन्न समुदायों को अपने संगठनों में भी ऐसा विवेकसंगत नेतृत्व विकसित करना होगा जो दहेज कुप्रथा से मुक्ति दिलाने की राह दिखाए क्योंकि इससे मुक्ति, आखिरकार, औरतों की आजादी के एक बड़े स्वप्न को साकार करने में काम आएगी।