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कीटनाशकों के दुष्चक्र से कैसे मिलेगी निजात?

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, सोमवार, 2 मार्च 2020 (10:44 IST)
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी
 
लोकसभा में अगले कुछ दिनों में पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल 2020 पेश किया जा सकता है। कीटनाशकों से फसल की बरबादी पर भारी-भरकम मुआवजे के अलावा देश के अन्नदाताओं के लिए इस बिल में ऐसा क्या है जिसे अभूतपूर्व कहा जा सके?
पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने पेस्टिसाइड मैनेजमेंट बिल 2020 को मंजूरी दी थी। यह 1968 के इन्सेक्टिसाइड एक्ट की जगह लेगा। बिल का एक प्रमुख प्रावधान है 50 हजार करोड़ रुपए के कॉरपस फंड की स्थापना, जो उन स्थितियों में किसानों के लिए राहत राशि या मुआवजे के तौर पर काम करेगी, जब उनकी फसल कीटनाशकों की वजह से बर्बाद होती है।
 
डायरेक्ट डेबिट ट्रांसफर (डीडीटी) के जरिए किसानों को सीधा उनके खाते में ये मुआवजा मिलेगा। बताया गया है कि इस कॉरपस फंड के लिए पंजीकृत पेस्टिसाइड निर्माता कंपनियों, केंद्र और राज्य सरकारें 60:20:20 के अनुपात में धनराशि जमा करेंगे। प्रतिबंधित पेस्टिसाइड के इस्तेमाल पर 50 लाख रुपए तक का जुर्माना और 3 से 5 साल की जेल का प्रावधान भी किया गया है। अभी यह जुर्माना 2,000 रुपए और 3 साल की जेल का है।
 
बिल में एक केंद्रीय बोर्ड का गठन भी प्रस्तावित है जिसमें केंद्र और राज्यों के विशेषज्ञों के अलावा किसानों के प्रतिनिधि शामिल होंगें। पेस्टिसाइड के इस्तेमाल को रेगुलेट करने की प्रक्रिया में भी आमूलचूल बदलाव किए गए हैं।
 
पंजीकरण और प्रतिबंध की व्यवस्था होगी और सेल्स, पैकेजिंग, लैबलिंग, मूल्य तय करने, भंडारण, वितरण और विज्ञापनों में तथ्यपूर्ण जानकारी जैसे मुद्दों का विशेष ख्याल रखा जाएगा। केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय एक वेबपोर्टल भी बनाएगा जिसमें पेस्टिसाइडों के उपयोग, क्षमता, कमजोरियों, जोखिम और उनके विकल्पों आदि के बारे में सभी भाषाओं में जानकारी मुहैया कराई जाएगी।
मुआवजे आदि से जुड़ीं शिकायतों के निवारण के लिए भी पोर्टल का उपयोग किया जाएगा। प्रतिबंधित पेस्टिसाइड की लिस्ट को अपडेट करने का काम भी कृषि मंत्रालय की मदद के साथ किया जाएगा। खबरों के मुताबिक इस समय बाजार में 40 से 75 प्रतिबंधित उत्पाद बिक रहे हो सकते हैं। बिल में न सिर्फ इनकी रोकथाम बल्कि कई पेस्टिसाइड रसायनों के आयात को भी बैन करने की व्यवस्था की गई है।
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अपनी रूपरेखा और तैयारी में बिल के प्रावधान महत्वपूर्ण लगते हैं और सदाशयता भी नजर आती है लेकिन एक व्यापक कार्ययोजना और क्रियान्वयन मशीनरी के अभाव में बिल कितना सार्थक होगा, इस पर सवाल हैं।
 
भारत में कृषि बड़े पैमाने पर रसायनों पर निर्भर है और इसमें कीटनाशक भी हैं जिनका इस्तेमाल मनुष्य हो या जानवर, सबके स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव छोड़ता है। इसके अतिरिक्त जैव विविधता और पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी किसी से छिपा नहीं है। जानकार इसे एक धीमे जहर की तरह मानते हैं।
 
भारत में कीटनाशकों के अलावा फन्जिसाइड (फफूंदनाशक) और हर्बिसाइड (तृणनाशक) जैसे रसायन भी इस्तेमाल किए जाते हैं। इनका इस्तेमाल कीटनाशकों की तुलना में कम है। अमेरिका, जापान और चीन के बाद पूरी दुनिया में कीटनाशकों का चौथा सबसे बड़ा निर्माता देश भारत को ही बताया जाता है और कीटनाशकों के निर्यात में उसका नंबर 13वां है। भारत में कृषि-रसायन का एक बहुत बड़ा उद्योग है।
 
रिसर्च एंड मार्केट्स नामक एक डाटाबेस की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में भारत का कीटनाशक बाजार करीब 20 करोड़ रुपए का था। 2024 तक इसके 30 करोड़ से अधिक हो जाने का अनुमान है। अक्टूबर 2019 तक भारत में कुल 292 कीटनाशक पंजीकृत थे। सबसे ज्यादा कीटनाशक महाराष्ट्र में इस्तेमाल होता है। इसके बाद यूपी, पंजाब और हरियाणा का नंबर आता है।
 
प्रति हैक्टेयर इस्तेमाल के हिसाब से देखें तो सबसे आगे पंजाब है, फिर हरियाणा और महाराष्ट्र। जानकारों के मुताबिक कीटनाशकों के इस्तेमाल में इधर काफी तेजी आई है। यह ट्रेंड 2009-10 के बाद से ज्यादा देखा गया है।
 
भूमि पर अधिकार
 
देश में कृषि भूमि के मालिकाना हक को लेकर विवाद सबसे बड़ा है। असमान भूमि वितरण के खिलाफ किसान कई बार आवाज उठाते रहे हैं। जमीनों का एक बड़ा हिस्सा बड़े किसानों, महाजनों और साहूकारों के पास है जिस पर छोटे किसान काम करते हैं। ऐसे में अगर फसल अच्छी नहीं होती तो छोटे किसान कर्ज में डूब जाते हैं।
 
नए बिल में किसानों और उनके पशुओं के स्वास्थ्य की देखरेख और मेडिकल परामर्श आदि का प्रावधान भी होना चाहिए। जैवविविधता पर पड़ने वाले असर को दूर करने के प्रावधान भी जरूरी हैं। सबसे अहम तो यह है कि कीटनाशकों के कम से कम इस्तेमाल को प्रेरित किया जाए। बिल को रासायनिक कीटनाशकों के अलावा गैर सिंथेटिक कीटनाशकों के इस्तेमाल के बारे में भी सोचना चाहिए। टिकाऊ खेती के लिए टिकाऊ संसाधनों और अभ्यासों की जरूरत है।
 
आज जैविक खेती को बढ़ावा बेशक दिया जा रहा है, बाकायदा अभियान के स्तर पर यह काम हो रहा है और ऑर्गेनिक उत्पादों का एक विशाल समांतर बाजार भी खड़ा हो गया है, जो अपेक्षाकृत महंगा, सीमित और आम उपभोक्ताओं की खरीदारी रेंज से आमतौर पर बाहर है।
 
जरूरत इस बात की है कि जैविक खाद्य सामग्रियों को आमफहम बनाया जाए और किसानों के लिए ऐसे बीज और उपज का ऐसा पर्यावरण मुहैया कराया जाए, जहां उन्हें ज्यादा से ज्यादा उत्पादन और ज्यादा से ज्यादा मुनाफे के झांसे में आने को विवश न होना पड़े। बीजों की गुणवत्ता से समझौता न करने की मानसिकता भी बनानी होगी।
 
पर्यावरणवादी और कृषि मामलों के जानकार नए कानून में राज्यों को और अधिक प्रतिनिधित्व दिए जाने की भी जरूरत बताते हैं क्योंकि खेती से जुड़ी भौगोलिक और भूगर्भीय और पर्यावरणीय जरूरतों और मिट्टी की संरचनाओं को राज्य और उनकी मशीनरी ही बेहतर समझ सकती है।
 
खाद्य सुरक्षा कानून के साथ भी इस प्रस्तावित कानून का सही समन्वय बनाया जाना जरूरी है। किसानों को और अधिक जागरूक बनाने के लिए लेबलिंग को बेहतर करना तो एक उपाय है ही, इसके अलावा तकनीकी मदद के लिए ग्रामीण इलाकों में घुमंतू कैंप या स्थायी सेवा केंद्र भी लगाए जा सकते हैं।
 
हर चीज की जानकारी पोर्टल पर डालकर यह मान लेना कि सूचना का विस्तार हो गया, सही नहीं होगा क्योंकि अभी भी भारत की एक बड़ी ग्रामीण आबादी डिजिटल तौर पर साक्षर नहीं कही जा सकती है। एक बड़ा डिजिटल विभाजन अभी भी कायम है। इन सब जरूरतों के बीच बुनियादी चिंता यही है कि कीटनाशकों के इस्तेमाल से जुड़े दुष्चक्र को निर्णायक रूप से कैसे तोड़ा जाए। (फ़ाइल चित्र)

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