भारत में क्यों नहीं बनीं मानवाधिकार अदालतें

Webdunia
बुधवार, 10 जुलाई 2019 (11:48 IST)
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और सभी राज्य सरकारों से मानवाधिकार अदालतों का गठन ना किए जाने को लेकर जवाब तलब किया है। ऐसी अदालतों से क्या इंसाफ जल्द मिल पाएगा, पढ़िए शिवप्रसाद जोशी का ब्लॉग।
 
मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम, 1993 के मुताबिक सभी राज्यों के प्रत्येक जिले में फास्ट ट्रेक मानवाधिकार अदालत का गठन उन राज्यों के हाई कोर्टों की देखरेख और दिशानिर्देश के आधार पर किया जाना था लेकिन कई वर्ष बीत जाने के बाद भी ये काम लंबित पड़ा है। इन खास अदालतों में सरकारी वकीलों की नियुक्तियां भी लंबित है।
 
भारत में मानवाधिकारों के हनन के बढ़ते मामलों और हाल में आई विभिन्न रिपोर्टों के बीच, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई वाली बेंच कानून की एक छात्र भाविका फोरे की याचिका पर ये सुनवाई कर रही है। याचिका के मुताबिक देश के 29 राज्यों और सात संघ-शासित प्रदेशों के सभी 725 जिलों में मानवाधिकार हनन के मामलों की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रेक विशेष अदालतों के गठन किया जाना चाहिए था जो अब तक नहीं हुआ है।
 
मीडिया में प्रकाशित याचिका के अंशों के मुताबिक एक व्यक्ति के बुनियादी अधिकारों के संरक्षण और हिफाजत का अपरिहार्य दायित्व राज्य का है और इसके लिए उसे अदालतों के जरिए कम खर्च वाला, प्रभावशाली और जल्द से जल्द इंसाफ दिलाने वाला मुकदमा लड़ने में हर तरह की सहायता मुहैया करानी चाहिए। पिछले दिनों अमेरिकी विदेश मंत्रालय के मानवाधिकार से जुड़े ब्यूरो की ओर से जारी इंडिया ह्यूमन राइट्स रिपोर्ट 2018 का हवाला भी याचिका में दिया गया है।
 
रिपोर्ट में मानवाधिकारों की स्थिति को चिंताजनक बताया गया था। इसमें पुलिस क्रूरता, टॉर्चर, हिरासत में मौत, फर्जी मुठभेड़, जेलों की दुर्दशा, मनमानी गिरफ्तारियां, अवैध हिरासत, झूठे आरोप, मुकदमा लड़ने में रुकावटें आदि जैसे आरोप भी लगाए गए हैं। हालांकि भारत ने इस रिपोर्ट को खारिज करते हुए अमेरिका को नसीहत भी दी है।
 
लेकिन बात सिर्फ अमेरिकी रिपोर्ट की नहीं है। दुनिया भर के अन्य स्वतंत्र मानवाधिकार संगठनों और एजेंसियों ने भी भारत के मानवाधिकारों के रिकॉर्ड को सकारात्मक तो नहीं बताया है, चाहे वो एमनेस्टी इंटरनेशनल हो या ह्यूमन राइट्स वॉच हो। दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और आदिवासियों पर हिंसा के मामले हों या अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाने की कोशिशें- इन संस्थाओं ने ऐसे मामलों को अनदेखा तो नहीं होने दिया है।
 
देश में कुछ समूह इन संगठनों पर देश की छवि खराब करने का आरोप भी लगाते हैं और कई बार तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर देशद्रोह जैसी अवांछित टिप्पणियां भी देखने सुनने को मिल जाती हैं। लेकिन तमाम लांछनों के बावजूद क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि मानवाधिकारों को लेकर एक निर्मम उदासीनता तो यहां पसरी हुई है। देश के भीतर मानवाधिकार कार्यकर्ता और संगठन समय समय पर अपनी आवाज उठाते ही रहे हैं और इधर पिछले दो ढाई दशकों से ये लड़ाइयां जटिल और कठिन हुई हैं।
 
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना मानवाधिकार सुरक्षा अधिनियम के तहत ही की गई थी। 1993 में गठित इस आयोग ने अब तक कई मामलों में अपना स्टैंड साहस और विवेक के साथ रखा लेकिन पीड़ितों को इंसाफ दिला पाने में आयोग की कोशिशें नाकाफी ही कही जाएंगी।
 
आयोग की अपनी वैधानिक शक्ति के बावजूद देखा गया है मानवाधिकार हनन का मामला चाहे समाज के उग्र समूहों, लंपटों और दबंगों की ओर से हो या सरकारी मशीनरी की ओर से- आयोग का कोई भय ऐसी शक्तियों को रह नहीं गया है। आयोग की फटकार और कार्रवाइयों के ऊपर राजनीतिक दबदबा अपना प्रभाव दिखाने लगता है। जबकि अध्यादेश के जरिए जो शक्तियां केंद्रीय मानवाधिकार आयोग और राज्य के आयोगों को हासिल हुई हैं वे नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की पूरी हिफाजत करती हैं।
 
याचिका में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के एक पुराने आंकड़े के हवाले से हालात की गंभीरता की ओर अदालत का ध्यान दिलाने की कोशिश की गई है। उसके मुताबिक आयोग ने 2001 से 2010 के बीच पाया था कि पुलिस और न्यायिक हिरासत में 14231 लोगों की मौत हुई थी। 1504 मौतें पुलिस हिरासत में और 12,727 मौतें न्यायिक हिरासत में हुईं। और ये भी पाया गया कि ज्यादातर मौतें टॉर्चर की वजह से हुई थी। हिरासत में मारपीट और बलात्कार के आंकड़ें अलग हैं।
 
वर्ष 2006 से 2010 तक बलात्कार के 39 मामले कस्टडी के दौरान सामने आए थे। लेकिन हिंसा और जघन्यता का ये आंकड़ा आगे भी अपनी भयानकता में बना रहा है। और पुलिस या जांच एजेंसियों तक ही सीमित नहीं है। ऑनलाइन पत्रिका 'द क्विंट' के मुताबिक सितंबर 2015 से अब तक देश के 95 नागरिक मॉब लिंचिंग का शिकार हुए हैं।
 
अब सवाल है कि क्या मानवाधिकारों वाली अदालतें बन जाएंगी तो इंसाफ मिल पाएगा। इसका कोई सीधा जवाब नहीं है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि ऐसी अदालतों की जरूरत ही न हो। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी चिंता जाहिर करते हुए ही जवाब तलब किया है।
 
न्यायिक व्यवस्था की कमजोरियां, जजों की कमी, लंबित मामलों का पहाड़, अदालती पेचीदगियां, आर्थिक संसाधनों की कमी जैसे कई अवरोध सामने हैं लेकिन संवैधानिक गरिमा तो यही कहती है कि अवरोधों को दूर कर इंसाफ दिलाने की मुहिम थमनी नहीं चाहिए। मानवाधिकारों के हनन पर मुस्तैदी से काबू पाना ज्यादा जरूरी है। फिर चाहे वो हिरासत में हिंसा हो या समाज में दबंगों की हिंसा। राजनीतिक मंशा सही रहे तो मानवाधिकारों का हनन इतना आसान नहीं।
 
रिपोर्ट शिवप्रसाद जोशी

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