चुनाव का सबक: युवाओं के देश में बूढ़े नेता नहीं चलेंगे

Webdunia
मंगलवार, 19 दिसंबर 2017 (11:49 IST)
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए अपना वर्चस्व बढ़ाने वाले चुनाव थे। नतीजों का राजनीतिक दल जो भी मूल्यांकन करें ये नतीजे राजनीतिक दलों के लिए कुछ दिलचस्प सबक देते हैं।
 
लोकतंत्र में राजनीतिक दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे सिर्फ जनमत बनाने की भूमिका ही नहीं निभाते, बल्कि बहुमत से मिले जनादेश के आधार पर सरकार बनाकर अपनी नीतियों को लागू भी करते हैं। इसलिए पार्टियों का एक दूसरे पर भरोसा और मतदाताओं का पार्टियों पर भरोसा जरूरी है।
 
गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनाव कांग्रेस के लिए जहां अपनी खोती जमीन को बचाने का संघर्ष था तो बीजेपी के लिए कांग्रेस को एक और चुनाव में पछाड़ने का। दोनों ने सारी ताकत इन चुनावों में फूंक दी थी, लेकिन उन्हें स्वीकार करना चाहिए कि एक दूसरे को खत्म कर वे भारतीय लोकतंत्र का भला नहीं करेंगे। मतदाताओं ने गुजरात में बीजेपी को कमजोर कर और कांग्रेस को मजबूत कर ये साफ किया है कि उन्हें उनके हकों के लिए लड़ने वाला मजबूत विपक्ष चाहिए।
 
हिमाचल के नतीजे बीजेपी के लिए सुख दुख दोनों वाले नतीजे हैं। आम तौर पर वह अपने मुख्यमंत्री उम्मीदवार का नाम घोषित नहीं करती, लेकिन हिमाचल में जीतने के लिए उसने ये किया। लेकिन बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल का अपनी सीट हारना दिखाता है कि जनता को उम्मीदवारों में भी बदलाव चाहिए। कांग्रेस को काटने के लिए कांग्रेस जैसी राजनीति को लंबे समय तक समर्थन नहीं मिलेगा।
 
कांग्रेस ने असम के बाद फिर वही भूल की और वयोवृद्ध मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को फिर से उम्मीदवार बनाया। पार्टी को और उसके नेताओं को भी कुर्सी छोड़ने का सही समय समझना होगा। जब भी पार्टी ये फैसला नहीं कर पाएगी, तो फैसला जनता करेगी। और हिमाचल में मुख्यमंत्री को बदलने की हिम्मत न दिखा सकने वाले पार्टी नेतृत्व का फैसला मतदाताओं ने कर दिया। जिस देश की 65 प्रतिशत आबादी की उम्र 35 साल से नीचे हो, वहां अब बूढ़े नेता उनकी आकांक्षाओं को पूरा करने की हालत में नहीं हैं।
 
भारत के राजनीतिक दल शायद जर्मनी के बवेरिया प्रांत से कुछ सीख सकते हैं, जहां इसी वीकएंड 67 वर्षीय वर्तमान मुख्यमंत्री ने 47 वर्षीय युवा नेता मार्कुस जोएडर को कुर्सी सौंपने का फैसला किया है। बवेरिया के चुनाव अगले साल होंगे, नये नेता तब तक अपनी जगह बना सकेंगे और मतदाताओं को प्रभावित कर सकेंगे। सत्ताविरोधी लहर से बचने के लिए बवेरिया की सत्तारूढ़ पार्टी की ये रणनीति है।
 
इन चुनावों का सबसे बड़ा सबक ये है कि पार्टियों को और लोकतांत्रिक बनना होगा। लोकतांत्रिक पार्टियां ही लोकतांत्रिक फैसले ले सकती हैं और लोकतंत्र को मजबूत बना सकती हैं। एक दूसरे पर कीचड़ उछाल कर वे एक दूसरे को कमजोर ही करेंगी।
 
रिपोर्ट महेश झा

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