बेंगलुरु में एक व्यक्ति द्वारा आत्महत्या के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों के गलत इस्तेमाल पर बहस हो रही है। कितनी सच्चाई है इन दावों में कि इन कानूनों का बड़े पैमाने पर गलत इस्तेमाल हो रहा है?
मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक अतुल सुभाष ने अपनी पत्नी और ससुराल वालों पर उनसे जबरन वसूली करने का आरोप लगाते हुए आत्महत्या कर ली। उन्होंने अपने सुसाइड नोट में बताया कि पहले तो उनके खिलाफ दहेज संबंधी उत्पीड़न का झूठा मामला दायर किया गया और फिर उस मामले को वापस लेने के लिए उनसे पैसे मांगे गए।
सुभाष ने एक जज का भी नाम लिया और कहा कि वो इस साजिश में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि उनकी पत्नी और उनके ससुराल वालों ने उन्हें और उनके परिवार को बहुत परेशान कर दिया है और इस परेशानी को खत्म करने के लिए उनके पास अब अपनी जान लेने के अलावा कोई चारा नहीं बचा है।
सुभाष का मामला अभी जांच का विषय है इसलिए इस पर अभी कोई राय बनाना ठीक नहीं होगा। लेकिन इस मामले को आधार बना कर भारत में महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों के गलत इस्तेमाल को लेकर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है।
बहस के केंद्र में है एक विशेष कानून - भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 498ए, जिसका इस्तेमाल किसी महिला के खिलाफ उसके पति या पति के किसी रिश्तेदार द्वारा की गई क्रूरता के आरोपों के मामलों में किया जाता है।
क्या है धारा 498ए
इस धारा के तहत "क्रूरता" का मतलब है कोई भी ऐसा व्यवहार जिसे महिला को गंभीर मानसिक या शारीरिक चोट लगी हो या उसके जीवन को खतरा हो या उसने आत्महत्या कर ली हो।
महिला को या उसके किसी रिश्तेदार को किसी तरह की संपत्ति या मूल्यवान चीजों की गैर कानूनी मांग को पूरा करने के लिए या पूरा करने में असफलता के लिए उत्पीड़न करने को भी क्रूरता के दायरे में लाया गया है।
राष्ट्रीय आपराधिक रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक इसके तहत साल 2022 में 1,40,019 मामले दर्ज किए गए, जो महिलाओं के खिलाफ दर्ज किए गए कुल अपराधों में से 30 प्रतिशत से भी ज्यादा हैं।
और महिला अधिकार समूहों का लंबे समय से मानना रहा है कि यह वो मामले हैं जिनमें महिलाएं हिम्मत कर आगे आ पाईं और पुलिस में शिकायत कर पाईं। ऐसी महिलाओं की भी काफी बड़ी संख्या होने का अनुमान है जो कई कारणों से पुलिस के पास नहीं जा पातीं। यानी यह कानून अभी पूरी तरह से अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाया है।
इस बीच इसके बेजा इस्तेमाल की घटनाएं सामने आ रही हैं, जिससे कानून के असर को लेकर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। यह एक बड़ी चुनौती बन सकती है। 11 दिसंबर को एक अन्य मामले पर सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि पति से पत्नी की गैर वाजिब मांगें जबरन मनवाने के लिए 498ए का गलत इस्तेमाल किया जा रहा है।
आखिर कितना गलत इस्तेमाल हो रहा है
यह पहली बार नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा कहा है। 11 सितंबर को भी एक अन्य मामले पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था कि धारा 498ए और घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम सबसे ज्यादा 'अब्यूज्ड' कानूनों में से हैं।
कई जानकार भी इस राय से सहमत हैं, लेकिन मामला थोड़ा पेचीदा है। दरअसल 498ए के गलत इस्तेमाल के कितने मामले हर साल सामने आते हैं इसे लेकर कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है।
अधिवक्ता और महिला सुरक्षा कानूनों की जानकार एन विद्या कहती हैं कि 498ए का इतना गलत इस्तेमाल हो रहा है कि वो अपनी प्रासंगिकता खो रहा है।
लेकिन उनका यह भी कहना है, "इसका ज्यादातर गलत इस्तेमाल शहरों में पढ़ी लिखी महिलाएं कर रही हैं जबकि ग्रामीण इलाकों में या शहरी इलाकों में भी कम पढ़ी लिखी महिलाओं के साथ अभी भी क्रूरता हो रही है और वो शिकायत नहीं कर पा रही हैं।"
गलत इस्तेमाल पर बेंगलुरु स्थित विधि सेंटर फॉर लीगल पालिसी के सह-संस्थापक आलोक प्रसन्ना कहते हैं कि भारत में लगभग सभी आपराधिक कानूनों का गलत इस्तेमाल होता है और इसका मुख्य कारण है नागरिकों को पुलिस से बचाने की जगह पुलिस को नागरिकों से बचाने वाला हमारा तंत्र।
उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "498ए दूसरे कानूनों के मुकाबले अपनी तरफ ध्यान ज्यादा खींचता है क्योंकि इसके पीड़ित मध्यम वर्ग के होते हैं और इतने विशिष्ट वर्ग के होते हैं कि वो सोशल मीडिया पर शिकायत कर सकें।"
'अर्नेश कुमार बनाम बिहार' मामला
आलोक का इशारा पुलिस द्वारा तय प्रक्रिया का पालन ना करते हुए लोगों को गिरफ्तार करने की तरफ है। ऐसा कई मामलों में देखा जाता है और 498ए के मामले भी इस चलन से अलग नहीं हैं।
विद्या ध्यान दिलाती हैं कि सुप्रीम कोर्ट के 'अर्नेश कुमार बनाम बिहार' फैसले से पहले पुलिस 498ए के तहत सिर्फ शिकायत के आधार पर और बिना एफआईआर दर्ज किए हुए लोगों को गिरफ्तार कर लेती थी।
विद्या कहती हैं कि अब ऐसा नहीं होता और अब पुलिस एफआईआर दर्ज हो जाने के बाद भी तब तक मुल्जिम को गिरफ्तार नहीं करती जब तक अदालत से गिरफ्तारी का आदेश ना आ जाए।
'अर्नेश कुमार' फैसला 2014 में आया था जब सुप्रीम कोर्ट ने बेवजह गिरफ्तारियों को रोकने के लिए कई आदेश दिए थे। इनमें मुख्य आदेश था कि गिरफ्तारी से पहले पुलिस मुल्जिम को दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 41ए के तहत पुलिस के सामने पेश होने का नोटिस देगी।
हालांकि अब आईपीसी और सीआरपीसी की जगह नई संहिताओं ने ले ली है। आईपीसी की जगह भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) लागू हो गई है और इसमें धारा 498ए जैसे प्रावधान धारा 85 के तहत लाए गए हैं।