रामल्ला में 3 घंटे रह कर मोदी ने क्या हासिल किया?

Webdunia
मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018 (11:52 IST)
हाल के महीनों में इसराइल फिलिस्तीन से भारत के संबंधों लेकर कई बार सवाल उठे। नेतन्याहू के साथ मोदी की गलबहियां लेकिन संयुक्त राष्ट्र में फिलिस्तीन का समर्थन और अब फिलिस्तीन की यात्रा से भारत क्या हासिल करना चाहता है।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ऐतिहासिक फिलिस्तीन यात्रा के दौरान शांतिपूर्ण माहौल में शीघ्र एक संप्रभु, स्वतंत्र फिलिस्तीन देश बनने की आशा जताई है। उन्होंने फिलिस्तीन हितों की अनवरत और अविचल तौर पर भारतीय समर्थन की प्रतिबद्धता पर भी जोर दिया। यानी कि भारत अपने पुराने स्टैंड पर अब भी कायम है। इसे कई विश्लेषकों ने इसराइल के साथ मजबूत होते संबंधों के मद्देनजर भारत की ओर से संतुलन बनाए रखने की कोशिश बताया है।
 
सवाल ये उठता है कि अगर मोदी संतुलन बनाने का प्रयास कर रहे हैं तो उसमें किस हद तक सफल रहे। अगर ऐसा नहीं है और वो भारत के इसराइल और फिलिस्तीन के साथ संबंधों को डी-हैफिनेट, यानी कि एक दूसरे से स्वतंत्र भाव से स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं, तो ये प्रयास किस हद तक कारगर हैं।
 
भारत और इसराइल के बीच पिछले आठ महीनों के दौरान काफी गर्मजोशी दिखी है। मोदी ने जुलाई में इसराइल का दौरा किया और उस दौरान उनके इसराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू के साथ व्यक्तिगत केमिस्ट्री की बेहद चर्चा रही। ये किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री की इसराइल की प्रथम यात्रा थी और जिस गर्मजोशी के साथ दोनों नेता नजर आए उससे अटकलें लगाई जाने लगीं कि भारत अब फिलिस्तीन का साथ छोड़कर इसराइल की ओर बढ़ रहा है। मगर उसके कुछ महीनों बाद ही ये भ्रम टूट गया जब संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत ने फिलिस्तीनियों के पक्ष में वोट किया।
 
नेतन्याहू ने इस पर दबी जुबां में अफसोस जाहिर किया। जनवरी में इसराइली प्रधानमंत्री भारत पहुंचे और जिस उत्साह के साथ वहां उनका स्वागत हुआ उससे फिर भारत के इसराइल के प्रति बढ़ते झुकाव की चर्चा शुरू हो गई। उसके कुछ सप्ताह बाद ही मोदी के फिलिस्तीन आने के फैसले ने फिर सबको अचंभित कर दिया।
 
भारत इसराइली हथियारों का सबसे बड़ा खरीदार है और दोनों देशो के बीच स्ट्रेटेजिक संबंध हैं। मगर अरब दुनिया में भारत के लिए बहुत कुछ दांव पर है और भारतीय अल्पसंख्यक समुदाय में फिलिस्तीन के प्रति सहानुभूति। ऐसे में एक दक्षिणपंथी माने जाने वाले नेता के लिए संतुलन बनाकर चलना या डी-हैफिनेट करना एक कड़ी चुनौती है।
 
फिलिस्तीन में विशेषज्ञों की राय सुनकर एक नया पहलू सामने आया। ज्यादातर फिलिस्तीनी अधिकारियों और विश्लेषकों ने कहा कि इसराइल के साथ भारत के बेहतर संबंधों से असल में उनके देश को फायदा पहुंच सकता है और फिलिस्तीनी नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा को इसराइल के साथ शांति प्रक्रिया फिर से शुरू करने के एक अवसर के तौर पर देखता है। मोदी का इस क्षेत्र में बढ़े तनाव के बीच रामल्ला आना हुआ। वह फिलिस्तीन की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं।
 
 
अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के यरुशलम को इसराइल की राजधानी के तौर पर मान्यता देने के बाद क्षेत्र में तनाव बढ़ गया है। फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइजेशन एग्जिक्यूटिव कमेटी के सदस्य अहमद मजदलानी ने कहा कि इसराइल और भारत के बीच बेहतर संबंधों से फिलिस्तीन को मदद मिल सकती है। द यरुशलम पोस्ट ने मजदलानी के हवाले से कहा, "उनके बीच बढ़ते संबंध सकारात्मक हो सकते हैं क्योंकि अब भारत का इसराइल पर अधिक दबाव है और वह हमारे पक्ष में दबाव बना सकता है।"
 
रामल्ला में कई अधिकारियों से चर्चा के बाद ऐसा प्रतीत हो रहा है कि फिलिस्तीनी नेतृत्व, भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा को शांति प्रक्रिया के गतिरोध को तोड़ने में मदद करने के एक अवसर के रूप में देख रहा है। हालांकि इसराइल ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह केवल अमेरिका के नेतृत्व वाली शांति प्रक्रिया के तहत ही आगे बढ़ेगा।
 
एक अधिकारी ने कहा, ''आज वैश्विक समुदाय में भारत की व्यापक स्वीकार्यता है। उसके गणतंत्र दिवस समारोह में आसियान देशों के नेताओं की भागीदारी उसके बढ़े हुए दर्जे को स्पष्ट तौर पर दर्शाती है। ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में उसकी सदस्यता और कई प्रमुख अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उसकी मौजूदगी साफ तौर पर यह दिखाती है कि आज वह एक वैश्विक खिलाड़ी है।''
 
इसराइल के साथ भारत के कूटनीतिक संबंधों, मोदी की इसराइल यात्रा को लेकर गर्मजोशी और इसराइली प्रधानमंत्री की भारत यात्रा से ऐसा नहीं लगता कि फिलिस्तीन बेचैन है।
 
यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले एक छात्र एमान ने कहा, "यहां तक कि जॉर्डन और मिस्र के भी इसराइल के साथ पूर्ण कूटनीतिक संबंध हैं तो भारत के क्यों नहीं हो सकते?" इसराइल से भारत के बढ़ते संबंध के बारे में पूछे जाने पर राष्ट्रपति महमूद अब्बास ने खुद कहा कि "किसी भी देश के पास दूसरे देशों से संबंध कायम करने का अधिकार है।"
 
इसराइल में विश्लेषकों और आम लोगों से बात कर यह समझ में आया कि वे भी भारत की मजबूरी से वाकिफ हैं और मोदी की फिलिस्तीन यात्रा का उनपर कोई बड़ा असर नहीं हुआ है।
 
तेल अवीव विश्वविद्यालय के लेक्चरर, गेनादी श्लोम्पेर ने कहा, "अरब जगत में भारत के हितों का ख्याल करें तो ये स्पष्ट है कि भारत के लिए फिलिस्तीन का त्याग कर पाना संभव नहीं है। अरब जगत भी आज फिलिस्तीन के मामले पर बंटी हुई है मगर संयुक्त राष्ट्र संघ या किसी भी अन्य मंच पर उनके साथ खड़ा होना उनकी मजबूरी है। एक अच्छे मित्र के तौर पर हम भारत की दुविधा समझ सकते हैं और सभी को अपनी हितों का ख्याल रखने का अधिकार है।"
 
भूतपूर्व कूटनीतिज्ञ लिओर वेंटराउब ने तो मोदी के इस फिलिस्तीन दौरे को इसराइल के साथ बेहतर होते संबंधों के मद्देनज़र "एक पुरस्कार" घोषित कर दिया। वह नई दिल्ली और वाशिंगटन में इसराइल के प्रवक्ता रह चुके हैं। भारतीय मूल के यहूदी इसराइलियों ने भी मोदी की फिलिस्तीन यात्रा का स्वागत किया।
 
महज 5 साल की उम्र में अपने माता पिता के साथ इसराइल आए नाओर जुड़कर का कहना है, "हम उम्मीद करते हैं कि मोदीजी शांतिपूर्ण तरीके से समाधान निकलने की बात करेंगे। भारत इस क्षेत्र में सकारात्मक भूमिका अदा कर सकता है। अगर ऐसा होता है तो हम लोगों को बेहद खुशी होगी।"
 
मोदी ने फिलिस्तीन की तीन घंटे की व्यस्त यात्रा के दौरान फिलिस्तीनी नेता यासिर अराफात की समाधि पर पुष्पचक्र अर्पित किया। इसराइली मीडिया के कुछ हिस्से में इस पर नाखुशी जताई गई है। कई इसराइली अराफात को इस क्षेत्र में कई निर्दोष नागरिकों की हत्या और हिंसा भड़काने के लिए दोषी मानते हैं। मगर इसके अलावा इसराइल में मोदी की फिलिस्तीन यात्रा पर कोई असंतोष नजर नहीं आया है।
 
दोनों ही पक्षों की प्रतिक्रिया पर गौर करें तो ऐसा लगता है की मोदी चाहे पुराने संतुलन को बनाए रखने का प्रयास कर रहे हों या फिर डी-हैफिनेट, वो बहुत हद तक इसराइल और फिलिस्तीन, दोनों ही पक्ष के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने में फिलहाल कामयाब रहे हैं। जहां तक फिलिस्तीनी राष्ट्रपति महमूद अब्बास की ओर से मध्यस्थता करने के निवेदन का सवाल है तो उस पर मोदी ने सोची समझी चुप्पी साध ली और कोई प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की। स्पष्ट है कि इसराइल-फिलिस्तीन संघर्ष के जटिल मामले से भारत अभी भी दूरी बनाए रखना चाहता है।
-रिपोर्ट हरिंदर मिश्रा

सम्बंधित जानकारी

Show comments
सभी देखें

जरूर पढ़ें

साइबर फ्रॉड से रहें सावधान! कहीं digital arrest के न हों जाएं शिकार

भारत: समय पर जनगणना क्यों जरूरी है

भारत तेजी से बन रहा है हथियार निर्यातक

अफ्रीका को क्यों लुभाना चाहता है चीन

रूस-यूक्रेन युद्ध से भारतीय शहर में क्यों बढ़ी आत्महत्याएं

सभी देखें

समाचार

सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया को बीमा कारोबार के लिए RBI से मिली मंजूरी

Gold Prices : शादी सीजन में सोने ने फिर बढ़ाई टेंशन, 84000 के करीब पहुंचा, चांदी भी चमकी

Canada india Conflict : भारत की फटकार के बाद कैसे बदले कनाडा के सुर, अपनी ही बात से पलटे Trudeau

अगला लेख