Hanuman Chalisa

पश्चिम बंगाल : एसआईआर से क्यों परेशान हैं बीएलओ!

DW
गुरुवार, 4 दिसंबर 2025 (16:15 IST)
- प्रभाकर मणि तिवारी
पश्चिम बंगाल में एसआईआर की प्रक्रिया में बीएलओ की परेशानियां चर्चा में हैं। इससे एक ओर स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई प्रभावित हो रही है, तो दूसरी ओर उनको समय सीमा के भीतर अपना काम पूरा करने के दबाव से जूझना पड़ रहा है। विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर की प्रक्रिया में पश्चिम बंगाल में 80 हजार से शिक्षकों और सहायक शिक्षकों को बीएलओ की जिम्मेदारी दी गई है। इससे एक ओर जहां स्कूलों में पढ़ाई-लिखाई प्रभावित हो रही है वहीं समुचित ट्रेनिंग की कमी से उनको निर्धारित समय सीमा के भीतर अपना काम पूरा करने के दबाव से जूझना पड़ रहा है।
 
इस मुद्दे पर बढ़ते विवाद और काम के दबाव से बीएलओ की मौतों के बाद चुनाव आयोग ने समय सीमा एक सप्ताह बढ़ा दी है लेकिन बीएलओ के संगठन का आरोप है कि यह समय भी काफी कम है। बीएलओ अधिकार रक्षा समिति के बैनर तले कई बीएलओ बीते सप्ताह से ही धरने पर हैं। यह लोग चुनाव आयोग के दफ्तर के सामने भी कई बार धरना-प्रदर्शन कर चुके हैं।
ALSO READ: आपका SIR फॉर्म जमा हुआ या नहीं, ऑनलाइन इस तरह करें चेक
बीएलओ संगठन का कहना है कि एसआईआर में जुटे तमाम शिक्षक दोहरी मार से जूझ रहे हैं। एक तो उनको इस काम के लिए खास अतिरिक्त भुगतान भी नहीं हो रहा है। उस पर उनको सरकारी कार्रवाई के डर से देर रात तक जागकर फार्म अपलोड करना पड़ रहा है। किसी भी गलती की स्थिति में चुनाव आयोग की ओर से कार्रवाई का डर भी सता रहा है।
 
संगठन के एक प्रवक्ता डीडब्ल्यू से कहते हैं, राज्य के सैकड़ों स्कूल ऐसे हैं जहां काम करने वाले सभी या ज्यादातर शिक्षकों को इस काम में लगा दिया गया है। इससे पढ़ाई-लिखाई का काम ठप हो गया है। सरकारी स्कूलों का सत्र जनवरी से दिसंबर तक चलता है। ऐसे में एसआईआर के बाद इन शिक्षकों के सामने वार्षिक परीक्षाओं की कापी जांच कर समय पर रिजल्ट प्रकाशित करने का भी भारी दबाव है।
 
बीएलओ भी परेशान, वोटर भी
एसआईआर की कवायद के दौरान बूथ लेवल एजेंट (बीएलओ) भी परेशान हैं और आम वोटर भी। बीएलओ काम के दबाव से परेशान हैं तो लाखों लोग इसलिए परेशान हैं कि वो 2002 की सूची में अपना या अपने परिजनों के नाम नहीं तलाश पा रहे हैं।
ALSO READ: मध्यप्रदेश में SIR में क्या कट जाएंगे 50 लाख वोटर्स के नाम?
दक्षिण कोलकाता के टालीगंज इलाके की एक महिला बीएलओ नाम नहीं छापने की शर्त पर बताती हैं, हमारी सबसे बड़ी समस्या यह है कि किसी खास वार्ड के वोटरों के नाम क्रमवार नहीं हैं। उनके इलाके में करीब 18 सौ वोटर हैं लेकिन उनमें से करीब दो सौ वोटरों का कोई सुराग नहीं मिल सका है।
 
ऐसे लोगों की संख्या लाखों में है जो 2002 की सूची में अपने या परिजनों के नाम नहीं तलाश सके हैं। ऐसे ही एक वोटर सुरंजन मुखर्जी ने डीडब्ल्यू को बताया, वर्ष 2002 की सूची में मेरा नाम हुगली जिले में था। अब कोलकाता में रहता हूं। मैं कई दिनों की कोशिश के बावजूद अपना या माता-पिता का नाम नहीं तलाश सका हूं। बीएलओ ने भी हाथ खड़े कर दिए हैं।
 
एसआईआर को लेकर बढ़ रहा है विवाद, यूपी में छोटे कर्मचारियों पर बड़ी कार्रवाई
कोलकाता से बाहर भी बीएलओ और वोटरों की समस्याएं भी जस की तस हैं। एक वोटर तन्मय मंडल डीडब्ल्यू से कहते हैं, अगर एपिक नंबर डालकर सर्च का विकल्प होता तो नाम तलाशना बेहद आसान होता लेकिन चुनाव आयोग ने पता नहीं क्यों आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करने की बजाय पीडीएफ के तौर पर सूची अपलोड की है?
 
एक बीएलओ नाम नहीं छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू को बताते हैं, फार्म को डिजिटल स्वरूप में चुनाव आयोग के वेबसाइट पर अपलोड करना बड़ी चुनौती है। उम्रदराज लोगों को और ज्यादा दिक्कत हो रही है। इसके अलावा सबके पास न तो लैपटॉप है और न ही ब्रॉडबैंड इंटरनेट कनेक्शन।
ALSO READ: विपक्ष ने उठाई संसद में SIR पर चर्चा की मांग, क्या बोली सरकार
ज्यादातर बीएलओ का कहना है कि वर्ष 2002 की सूची ही ज्यादातर समस्याओं की जड़ है। उनमें कई जगह वोटरों या उनके परिजनों के नाम गलत हैं। कुछ जगह कई वोटरों के एपिक नंबर एक ही हैं तो कुछ जगह पुराने वोटरों के मतदान केंद्र वाले इलाके बदल गए हैं। कई ऐसे लोग भी हैं जिनके नाम ही उस सूची से गायब हैं।
 
असम में मतदाता सूची का 'गहन' नहीं 'विशेष पुनरीक्षण' क्यों?
पूर्व मेदिनीपुर जिले के तमलुक विधानसभा क्षेत्र में जगन्नाथ पाल नामक एक वोटर के पूरे परिवार के साथ कई पड़ोसियों के एपिक नंबर भी एक ही हैं। उसी इलाके के एक अन्य वोटर तापस पाल का सवाल है कि चुनाव आयोग की गलतियों का खामियाजा हम क्यों भुगतें? इस गलती को सुधारना आयोग की जिम्मेदारी है।
 
काम के दबाव की स्थिति यह है कि कूचबिहार जिले के एक बीएलओ पौलभ गांगुली अपने पिता की चिता को आग देने के बाद उसी हालत में अगले दिन ही काम पर लौट आए। वो बताते हैं, मेरे पास 1211 वोटरों की जिम्मेदारी है। घर-परिवार से लेकर एसआईआर तक का काम तक कैसे संभाल रहा हूं, यह ऊपरवाला ही जानता है।
 
राजनीतिक विवाद का मुद्दा
बीएलओ पर काम के भारी दबाव का मुद्दा अब राजनीतिक विवाद का विषय बन चुका है। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कई बार यह मुद्दा उठाते हुए चुनाव आयोग को पत्र भी भेजे हैं। उन्होंने बीएलओ से भी धैर्य से काम लेने और आत्महत्या जैसा कदम नहीं उठाने की अपील की है।
ALSO READ: चुनाव आयोग का बड़ा फैसला, 12 राज्यों में SIR की समय सीमा 7 दिन बढ़ी
अब बीजेपी ने काम के दबाव का मुद्दा उठाते हुए चुनाव आयोग को ज्ञापन सौंपा है। सीपीएम और कांग्रेस ने भी आयोग के कम समय में एसआईआर की कवायद के कारण पैदा होने वाले दबाव के लिए उसे कटघरे में खड़ा किया है।

बीएलओ के संगठन के एक प्रवक्ता बताते हैं, इस कवायद से पहले फार्म को डिजिटल तौर पर न तो अपलोड करने की बात कही गई थी और न ही इसके लिए जरूरी ट्रेनिंग दी गई थी। डिजिटलीकरण की इस प्रक्रिया ने बीएलओ की रातों की नींद छीन ली है। चुनाव आयोग ने बीएलओ पर काम के अत्यधिक दबाव के आरोपों पर अब तक कोई टिप्पणी नहीं की है।
 
ट्रांसजेंडर और यौनकर्मी भी परेशान
एसआईआर की कवायद पहले से ही विभिन्न समस्याओं से जूझ रहे ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक नई मुसीबत बन गई है। ऑपरेशन के जरिए लिंग बदलने के बाद इनमें से कइयों के नाम बदल गए हैं। कइयों से घरवालों ने नाता तोड़ लिया है तो ज्यादातर के पास कोई दस्तावेज नहीं है। इन लोगों को यह भी पता नहीं है कि उनके लिए जरूरी फॉर्म किस पते पर आएंगे। आयोग ने जिन 12 दस्तावेजों की बात कही है उनमें ट्रांसजेंडर कार्ड का कोई जिक्र नहीं है। ट्रांसजेंडर संगठनों ने इस पर नाराजगी जताई है।
 
लगभग यही स्थिति कोलकाता स्थित एशिया के सबसे बड़े इलाके सोनागाछी में रहने वाली हजारों यौनकर्मियों की है। उनके पास भी कोई दस्तावेज नहीं है। उनकी मदद के लिए आयोग ने कोलकाता के चार रेड लाइट इलाकों में दो और तीन दिसंबर को विशेष सहायता शिविर आयोजित करने का फैसला किया था।
ALSO READ: SIR सर्वे का कमाल, 40 साल के बाद घर लौटा बिछड़ा बेटा, देखते ही भावुक हुई मां, कहा— मेरो लाल मिल गयो
राजनीतिक विश्लेषकों ने भी बिना किसी ठोस योजना के शुरू हुई इस कवायद पर सवाल उठाते हुए कहा है कि आयोग को शिक्षकों की बजाय इस काम के लिए संविदा पर ऐसे लोगों को रखना चाहिए था जिनको तकनीक का भी ज्ञान हो।

राजनीतिक विश्लेषक शिखा मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, आयोग की गतिविधियां उसकी मंशा पर सवाल खड़े करती हैं। यह सवाल उठ रहा है कि कहीं किसी खास राजनीतिक पार्टी के इशारे पर ही तो ऐसा नहीं किया जा रहा है। पड़ोसी असम में यह प्रक्रिया आसान है। बंगाल में कहीं जानबूझकर तो इसे विवादास्पद नहीं बनाया गया है?
 
वरिष्ठ पत्रकार तापस मुखर्जी डीडब्ल्यू से कहते हैं, विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हड़बड़ी में इस प्रक्रिया की कोई जरूरत नहीं थी। इसे चुनाव के बाद आराम से किया जा सकता था, लेकिन चुनाव आयोग के पास अपने पक्ष में कोई ठोस दलील नहीं है। इसी से इस पर सवाल खड़े हो रहे हैं।

सम्बंधित जानकारी

लाखों भारतीय ट्रंप के H-1B visa बम से सीधे प्रभावित होंगे

बिहार : क्या फिर महिलाओं के भरोसे हैं नीतीश कुमार

भारत को रूस से दूर करने के लिए यूरोपीय संघ की नई रणनीति

इसराइल पर यूरोपीय संघ के प्रतिबंध का जर्मनी समर्थन करेगा?

भारतीय छात्रों को शेंगेन वीजा मिलने में क्या मुश्किलें हैं

LIVE: 7 मंत्रियों समेत भारत आएंगे पुतिन, भारत रूस बिजनेस फोरम में होंगे शामिल

भाजपा सांसद बांसुरी के पिता स्वराज कौशल का निधन

कंगना ने राहुल से क्यों कहा, भाजपा में आ जाइए... आप भी बन सकते हैं अटल जी

अगला लेख