Mahabharat 30 April Episode 67-68 : संजय को इस तरह मिली दिव्य दृष्टि

अनिरुद्ध जोशी
गुरुवार, 30 अप्रैल 2020 (16:11 IST)
बीआर चौपड़ा की महाभारत के 30 अप्रैल 2020 के सुबह और शाम के 67 और 68वें में कर्ण की मुलाकात कुंती से होती है और दूसरी ओर संजय को दिव्य दृष्टि मिलने का वर्णन किया जाता है।
 
 
दोपहर के एपिसोड की शुरुआत विदुर और धृतराष्ट्र के संवाद से होती है। दोनों एक-दूसरे के समक्ष अपना दु:ख व्यक्त करते हैं। इसके बाद विदुर का कुंती से वार्तालाप होता है। बाद में कुंती को रात में शयनकक्ष में उन्हें याद आती है अपने पुत्र कर्ण की। वह यह सोचकर परेशान हो जाती है कि यदि युद्ध हो रहा है तो मेरे दोनों पुत्र कर्ण और अर्जुन आमने सामने होंगे और कहीं दोनों ही युद्ध में ना मारे जाएं? वह कर्ण के बारे में सोचकर दु:खी हो जाती है।

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तब वह उस स्थान पर जाती है जहां कर्ण सूर्य की पूजा कर रहे होते हैं। वह कर्ण को दूर से ही देखती है। कर्ण उन्हें देख लेता है तो वह जाने लगती है। तब कर्ण उनके पास आकर उन्हें प्राणाम करता है। कर्ण कहता है कि यह अधिरथ पुत्र राधेय आपकी क्या सेवा कर सकता है? तब वह कहती है कि मैं तुमसे कुछ मांगने आई हूं। तब कर्ण कहता है कि मांगने से पहले क्या आप अपना परिचय देंगी?
 
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फिर कुंती कहती हैं कि मैं वो अभागी हूं जिसे अपना पहला पुत्र त्यागना पड़ा था। यह सुनकर कर्ण भावुक हो जाता है लेकिन क्रोधित भी होता है। तब कर्ण कहते हैं कि आप निश्चित ही किसी स्वार्थवश मेरे पास मांगने आई हैं, क्योंकि आपने ऐसे समय और ऐसे स्थान का चयन किया जहां मैं दान देता हूं। तब कुंती कहती है कि तू दानवीर कर्ण है पुत्र। कर्ण कहता है कि पुत्र कहकर ना मांगें। राजामाता बनकर मांगें। आप निश्चित ही मुझसे अर्जुन का जीवदान मांगने आईं हैं। कुंती यह सुनकर बहुत रोने लगती है।
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कुंती कहती है कि यह जान लेने के बाद कि तुम अपने अनुजों के ज्येष्ठ पुत्र तो तुम्हारे लिए अपने अनुजों से युद्ध करना उचित नहीं है पुत्र। मैं तुम्हें लेने आई हूं तुम्हारे अनुज तुम्हें सर आंखों पर बिठाएंगे। ये तुम्हारा अधिकार है।
 
कर्ण कहता है यह करना मेरे वश में नहीं है। वह कहता है‍ कि इंद्र मेरे कवच-कुंडल ले गए और इसके बाद वासुदेव और आप दोनों ने मुझे निहत्था कर दिया। राधा और दुर्योधन का मुझ पर कर्ज है। मैं उन्हें नहीं छोड़ सकता। तब कर्ण कहते हैं कि आपने जो मांगा है वह तो मैं दे नहीं सकता लेकिन मैं वचन देता हूं कि आपके पांचों के पांचों पुत्र जीवित रहेंगे। यदि अर्जुन वीरगति को प्राप्त हुआ तो मैं बचूंगा और मैं प्राप्त हुआ तो वह बचेगा।
 
इधर, श्रीकृष्‍ण हस्तिनापुर से उपलव्य पहुंचकर पांडवों को हस्तिनापुर के बारे में बताते हैं। अंत में बताते हैं कि किस तरह अब युद्ध होना तय हो गया है। इसके बाद दुर्योधन माता कुंती के पास आशीर्वाद लेने जाता है। वह उसे आयुष्मान भव कहती है।
 
शाम के एपिसोड का प्रारंभ श्रीकृष्ण, द्रौपदी और पांडवों के बीच संवाद से होता है। कृष्ण कहते हैं पांडवों से, अब निर्णय लेना है। द्रौपदी कहती है कि ये क्या निर्णय लेंगे। इन्हें तो मेरे खुले केश दिखाई नहीं देते। निर्णय तो मैं लूंगी। ऐसा कहकर द्रौपदी युद्ध का शंख बजाती है।
 
उधर, गांधारी और धृतराष्ट्र के बीच संवाद होता है। गांधारी कहती है कि इस युद्ध को ना होने दे आर्य पुत्र। धृतराष्ट्र कहते हैं कि मेरा पुत्र दुर्योधन नहीं मानेगा। मैं विवश हूं।
 
दूसरी ओर भीष्म और महर्षि वेदव्यास के बीच युद्ध और विवशता को लेकर संवाद होता है। फिर वेदव्यासजी संजय और धृतराष्ट्र से संवाद करते हैं। महर्षि वेदव्यास कहते हैं कि मैं तुम्हें सलाह देने आया हूं कि द्वार पर खड़े इस महायुद्ध को भीतर आने की आज्ञा न दें।
 
धृतराष्ट्र कहते हैं कि मैं तो स्वयं यह नहीं चाहता ऋषिवर। मैं क्या करूं मेरे पुत्र मेरे वश में नहीं है। तब ऋषि कहते हैं कि तो ठीक है मैं तुम्हें दिव्य दृष्टि देता हूं जिससे तुम स्वयं सर्वनाश देख सको। धृतराष्ट्र ऐसा करने से उन्हें रोक देते हैं और कहते हैं कि संजय को यह दिव्य दृष्टि प्रदान कीजिए। ताकि मैं इनसे सुन सकूं कि कौन वीरगति को प्राप्त हुआ है। तब ऋषि वेदव्यास संजय को दिव्य दृष्टि प्रदान कर देते हैं।
 
फिर धृतराष्ट्र कहते हैं कि हे ऋषिवर यदि आप इस युद्ध का परिणाम बताने की कृपा करेंगे तो कृपा होगी। तब वेदव्यासजी कहते हैं कि जो वृक्ष छाया नहीं देते हैं उनका कट जाना ही उचित है। तब धृतराष्ट्र पूछते हैं कि कटेगा कौन? यह सुनकर वेद व्यासजी कहते हैं कि इस प्रश्न का उत्तर तुन्हें संजय देंगे। ऐसा कहकर वेदव्यासजी चले जाते हैं।
 
बाद में दुर्योधन, शकुनि, दु:शासन, कर्ण और गांधार नरेश उलूक के बीच युद्ध को लेकर चर्चा होती है। बाद में शकुनि की सलाह पर पांडवों के पास उलूक को दूत बनाकर भेजा जाता है। दूत अभयदान मांगने के बाद दुर्योधन का संदेश सुनाता है जिसमें पांडवों को चोट पहुंचाने वाली बातें होती हैं। उसमें यह भी संदेश होता है कि अज्ञातवास भंग होने पर तुम पुन: वनवास चले जाओ और तुम जिस मायावी कृष्ण की शक्ति पर युद्ध के लिए आतुर हो रहे हो तो यह दिमाग से निकाल दो, क्योंकि युद्ध में मायावी नहीं बाहुबल काम आता है। वह कहता है कि तुम लोग नपुंसक हो नपुंसक।
 
तब श्रीकृष्ण इस दूत के माध्यम से कौरवों को संदेश भिजवाते हैं कि तुम दुर्योधन से जाकर कहना कि तुम क्षत्रिय के भांति जी तो नहीं सके किंतु क्षत्रिय के भांति वीरगति को प्राप्त होकर तो दिखाओ क्योंकि क्षत्रिय के भांति वीरगति को प्राप्त होना बड़ा कठिन है। अंत में संजय, धृराष्ट्र, दुर्योधन और गांधारी का संवाद बताते हैं। दुर्योधन अपनी माता से आशीर्वाद मांगने जाता है।
 
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