जब गांधी ईसाई धर्म प्रचारकों की ओर आकर्षित होने लगे थे...

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महात्मा गांधी नैतिक पुनर्जागरण आंदोलन के उस स्वयंभू नेता के रूप में उभरे, जो सभ धर्मों के बीच आपस में मेलजोल और भाईचारा चाहता था। मेलजोल और भाईचारा भी इस प्रकार का, कि किसी को भी अपनी आस्था का त्याग या उससे समझौता करने की आवश्यकता न पड़े।
 
कहा जाता है कि महात्मा गांधी अपनी इस यात्रा में ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रति भी काफी आकर्षित हुए। इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था कि ये प्रचारक उनकी स्पष्ट गंभीरता से मुग्ध थे और इसी के चलते उन्होंने गांधी जी को ईसाई बनाने के लिए भी प्रयत्न किए। लेकिन इस मामले में गांधी अपने धर्म को लेकर अडिग थे। उनके पास धर्म न बदलने को लेकर भी प्रभावी और समुचित तर्क थे। 
 
जब गांधी जी के सामने धर्म परिवर्तन का ये प्रस्ताव आया, तो उन्होंने तर्कपूर्ण और चतुराई भरा जवाब दिया। उनका जवाब था - चूंकि हिंदू धर्म में ईसाइयत के सारे सिद्धांत पहले से ही मौजूद हैं, लिहाजा उन्हें अपना धर्म छोड़ने की कोई वजह नहीं दिखाई देती। उनके साथ एक बात और सकारात्मक रही, कि उपनिवेशवादी गोरों के खिलाफ उनकी लड़ाई में एक पांचवें नैतिक खंभे के तौर पर श्वेत धर्मावलंबियों का समूह भी शामिल था।
 
गांधी जी ने धर्म के आधार पर बंटे लोगों, विशेषकर हिंदू और मुसलमानों में भी अपने अनुयायी बनाए। इस्तांबुल में सत्ता परिवर्तन के मौके पर मुसलमानों की ओर से उन्हें बधाई पत्र लिखा गया था। असहयोग आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय आंदोलन में मुसलमानों को शामिल किए जाने के वक्त भी उन्हें यह बात याद थी।

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