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दिन भर बैठा मैं पछताया
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
सुबहा को लहजा सख़्त हुआ था बातों में, दिन भर बैठा मैं पछताया रात हुई - अज़ीज़ अंसारी
ये भी तो हो सकता है
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
दीप जलाके भटके हुए को राह दिखाने वाला खुद, राह किसी की देख रहा हो ये भी तो हो सकता है।
शर्म से मर जाऊँगा
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
झूठ का लेकर सहारा जो उबर जाऊँगा, मौत आने से नहीं शर्म से मर जाऊँगा - अज़ीज़ अंसारी
मैं उनको शक की निगाहों से
सोमवार, 6 दिसंबर 2010
मैं उनको शक की निगाहों से देखता क्यूँ हूँ, वो लोग जिनके लिबासों पे कोई दाग़ नहीं - - आलम खुर्शीद
तन्हाई का ज़हर तो
सोमवार, 6 दिसंबर 2010
तन्हाई का ज़हर तो वो भी पीते हैं, हर पल जिनके साथ ज़माना होता है - आलम खुर्शीद
हमको अज़ीज़ अपनों ने मारा
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
हमको बहुत नाज़ था
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
हमको बहुत नाज़ था अपनी हँसी पर, खून के आंसू रुलाया ज़िन्दगी ने।
कोई हमदर्द भी होगा
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
कोई हमदर्द भी होगा, इनमें अज़ीज़, आश्ना* तो यहाँ लोग ही लोग हैं।
कोई अब तक न ये समझा
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
कोई अब तक न ये समझा कि इंसाँ, कहाँ जाता है, आता है कहाँ से - मोमिन
उसके बदन पर आंचल उड़ते देखा है
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
सर्द हवा में उसके बदन पर आंचल उड़ते देखा है, पानी वाला बादल जैसे सैर करे कोहसारों पर - अज़ीज़ अंसार
अब कोई अच्छा भी लगे तो ...
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
थक सा गया है मेरी चाहतों का वजूद, अब कोई अच्छा भी लगे तो हम इज़हार नहीं करते - अज्ञात
मुद्दतों बाद मुस्कुराया है
सोमवार, 1 नवंबर 2010
ऐन मुमकिन है रो पड़े फिर वो, मुद्दतों बाद मुस्कुराया है - दीक्षित दनकौरी
मुसाफिर हैं नए सारे सफ़र में
सोमवार, 1 नवंबर 2010
मुसाफिर हैं नए सारे सफ़र में ज़िंदगानी के, यहाँ कोई नहीं ऐसा जो ये रस्ता समझता है - अंकित
मैं पंछी हूँ मुहब्बत का
सोमवार, 1 नवंबर 2010
मैं पंछी हूँ मुहब्बत का, फ़क़त रिश्तों का प्यासा हूँ, ना सागर ही मुझे समझे ना ही सहरा समझता है - अ
साथ बस वो ही न था
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
बस किसी के वास्ते गिरते संभलते चल दिए, और जब मंज़िल पे पहुँचे, साथ बस वो ही न था - अज्ञात
खुशबू तेरे बदन की
खुशबू तेरे बदन की मेरे साथ साथ है, कह दो जरा हवा से तन्हा नहीं हूँ मैं - मनोरमा सुमन
मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ
हर शख़्स मेरा साथ निभा नहीं सकता
उसको रुखसत तो किया था, मुझे मालूम न था, सारा घर ले गया, घर छोड़ के जानेवाला - निदा फ़ाज़ली
मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली
कहीं पे बैठ के हँसना कहीं पे रो देना, मैं ज़िन्दगी भी बड़ी दोग़ली गुज़ारता हूँ - मुनव्वर राना
याद आने लगा एक दोस्त...
याद आने लगा एक दोस्त का बरताव मुझे, टूट कर गिर पड़ा जब शाख़ से पत्ता कोई।
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