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थाम लीजिए अपनी हार्दिकता से रिश्तों की नाजुक डोर

प्रज्ञा पाठक
जब किसी कटुता के चलते मन में संबंधित के प्रति गांठ पड़ जाती है और लाख उसके क्षमा मांगने पर भी हम उसके प्रति अपनी शिकायत का भाव दूर नहीं कर पाते, तब हमारी ओर से तो रिश्ता टूट जाता है। लेकिन रिश्ते की एक डोर सामने वाले के मन में भी तो रहती है।
 
हमने तो अपना हिस्सा तोड़ लिया, मगर उस दूसरे सिरे पर रिश्ता टूटी, हांफती सांसें लिए जिंदा रहता है। आस के एक बूंद तेल के सहारे भी वह दूसरे के दिल में टिमटिमाता रहता है। मन में एक दिन सब कुछ ठीक हो जाने की ललक लिए वो पलता रहता है। अपनी पूरी जिजीविषा का जोर लगाकर क्षमादान की प्रतीक्षा करता है। 
 
लेकिन हम अपनी जिद पर अड़े रहते हैं। अहंकार की अमरबेल थामे सिर्फ उस गलती को याद रखते हैं, जो संबंधित ने की थी। उस विपरीत क्षण को स्मृतियों के केंद्र में रखकर बाकी आसपास का जो भी उस रिश्ते में सुखद था, वो सारा विस्मृत कर देते हैं। वो सारा समय भूल जाते हैं, जो हमने परस्पर साझा कर आनंद पाया था। वो समस्त कीमती अनुभूतियां परे रख देते हैं, जो उस रिश्ते की बदौलत हमारे ह्रदय ने पाई थीं। वो सारी आत्मीयता ताक पर रख देते हैं, जो रिश्ते की स्थायी धरोहर थी। 
 
जबकि होना तो यह चाहिए कि जब हमारा मन क्रोध की तात्कालिक लहर से मुक्त हो जाए, तब शांति से संपूर्ण घटनाक्रम पर पुनर्विचार किया जाए। ऐसा करने पर संभवतः हमें वो सूत्र हाथ लग जाएं, जिनके सहारे उस मृतप्राय रिश्ते में स्नेह रूपी जीवन की नवीन कोपलें फूट सकती हैं। स्मरण रखिए, शांत मस्तिष्क में ही उर्वर विचार पैदा होते हैं अशांत मन तो नकारात्मकता की ओर ही उन्मुख होता है। 
 
संन्यासी का दुनियावी रिश्तों से कोई सरोकार नहीं होता। उसके लिए तो ईश्वर ही एकमात्र रिश्तेदार है, लेकिन गृहस्थ का तो सारा संसार ही विविध रिश्तों के नाजुक तानों-बानों में बसा होता है। उसका अपना स्वभाव, सोच, संस्कार, आचरण और तदनुरूप लोकाचार के निर्वाह की समझ व क्रियान्वयन रिश्तों से निकटता अथवा दूरी को तय करते हैं। 
 
यदि वह अपने व्यक्तिगत जीवन को अधिकाधिक समृद्ध और सामाजिक जीवन को अधिकाधिक समर्थ बनाने का इच्छुक होगा तो रिश्तों को पर्याप्त अहमियत देगा। इसलिए रिश्तों में कहीं कोई दरकन होने पर अपने ह्रदय के उदात्त बड़प्पन की सीमेंट से उसे बूर देगा। इसके विपरीत अहंकार का भाव प्रबल होने पर 'पहल कौन करे' का यक्ष प्रश्न रूपी संकट रिश्तों के मध्य आ खड़ा होता है। 
 
कई बार इसी वजह से रिश्ते या तो पूर्णतः टूट जाते हैं अथवा उनकी सहज मिठास में कड़वेपन की एक गांठ ऐसी लग जाती है, जो खोले नहीं खुलती। संवेदनशील ह्रदय टूटते रिश्तों को अपनी हार्दिकता से पुनः सहेज लेता है, किंतु अहंकारी मन उन्हें उधड़ा ही रहने देकर तार-तार हो जाने के लिए छोड़ देता है। 
 
संदेश समझिए या आग्रह, यदि आप इस भौतिक दुनिया के गृहस्थ हैं, तो इसे स्वयं के लिए अधिकाधिक सुखद बनाइए और ये सुखद तभी बनेगा, जब रिश्तों का इंद्रधनुष यहां हर्षसहित आदर पाता हो। जिन्हें विरक्ति का मार्ग प्रिय हो, वे भले ही रिश्तों को उपेक्षा देकर अपने लक्ष्य की ओर प्रस्थित हो। किंतु जो परिवार में अनुरक्त हैं, उन्हें तो रिश्तों में रच-बस जाने की कला आना ही चाहिए। 
 
अधिक नहीं, बस इतने भर प्रयास की आवश्यकता है कि ईश्वरप्रदत और स्वनिर्मित दोनों ही प्रकार के रिश्तों में खट्टा-मीठापन भले ही चलता रहे, लेकिन ह्रदय से जुड़े उनके स्नेहसिक्त रेशों में खिंचाव ना आए, वे टूटें नहीं बल्कि अविच्छिन्न भाव से अपनी जड़ों को मजबूती से थामे रखें। मतवैभिन्न्य हो, लेकिन मनोमालिन्य न हो। मतभेद हो, किंतु मनभेद ना हो। आखिर दिल इन प्यारे-प्यारे रिश्तो से ही तो धड़कता है।

तो फिर जरा सोचिए कि हम अपनी धड़कन से कैसे पृथक रह सकते हैं? उसके बिना कैसे जीवित रह सकते हैं? रिश्ते हैं, तभी हम अपने संपूर्ण वजूद में ज़िंदा हैं और तभी हमारी आत्मा को सुकून की सच्ची अनुभूति उपलब्ध होगी। 

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