एक औरत की कहानी, आखिर कब तक रहेगी बेगानी

प्रज्ञा पाठक
उसकी आंखों में आंसू झिलमिला आए थे, सिर्फ इतनी सी बात पर कि 58 के पतिदेव थोड़ा दुबला गए हैं। आज से 27 साल पहले शादी के समय भी वे दुबले ही थे, लेकिन शादी के बाद में हेल्थ अच्छी हो गई थी, जिसे वो अपनी सफलता मानती है। अब उमर भी हो गई है, कुछ स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी हैं, इसलिए दुबला हो जाना स्वाभाविक है और इसमें चिंता जैसी कोई बात नहीं। लेकिन उसका कोमल स्त्री मन नहीं मानता। आप लोग कहेंगे, उपर्युक्त घटना में अनोखा क्या है? 
 
सभी पत्नियां अपने पतियों की चिंता करती हैं। तो मेरा कहना है कि अनोखा तो कुछ नहीं, लेकिन नोटिस करने लायक अवश्य है। पत्नी का वो भाव, जिसके वशीभूत होकर वह छोटी से छोटी बात पर भी पति की या घर के अन्य सदस्यों की चिंता करती है, उनकी देखभाल करती है, उनका हर तरह से ख्याल रखती है।
 
विचारणीय मुद्दा यह है कि क्या आप भी उसके लिए इतना सजग रहते हैं? वो किचन में 10 दिन से खांसते हुए काम कर रही है या 4 दिन से बुखार की गोली लेकर अपने दायित्वों को पूर्ण कर रही है अथवा रोज रात को पेनकिलर लेकर सो रही है या फिर ठंडे मौसम में मालिश के बिना उसके घुटने उठने से इंकार कर रहे हैं।
 
मेरे विचार से गिनती के पति होंगे, जो पत्नी की इन समस्याओं पर गौर करते होंगे। अधिकांश का रवैया या तो उपेक्षा वाला रहता है या टालने वाला अथवा अनदेखी का। 
 
यह महिला मात्र का स्वभाव होता है कि वह इस संपूर्ण धरती पर जिसकी सबसे कम परवाह करती है, वो वह स्वयं है- शरीर के स्तर पर, मन के स्तर पर, भावनाओं के स्तर पर। वो हर कदम पर समझौता करती चलती है और संतोष उसका सर्वोपरि पाथेय बन जाता है। एक सीमा के बाद तो वो अपेक्षा रखना भी छोड़ देती है। लेकिन मन के किसी कोने में ये दर्द आंसता तो है, जिसे वो मन की ही सात तहों में छिपा लेती है और सबको सुख, स्नेह और संपन्नता देते-देते खुद भीतर से रीती ही रह जाती है।
 
हो सकता है कि ये हर घर की कहानी न हो, लेकिन अधिकांश घरों की जरूर है। ऐसा क्यों? 
 
'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवताः' को अपनी आद्य परंपरा में जीने वाले देश में नारियों के साथ ऐसा निम्न कोटि का व्यवहार क्यों? क्यों हम उसे भी 'इंसान' की दृष्टि से नहीं देख पाते? क्यों उसे ही सारी मर्यादाएं सिखाने पर आमादा रहते हैं? क्यों बात-बात पर उसे उसके कर्तव्यों की याद दिलाने को आतुर रहते हैं? क्यों उसके अधिकार की बात आते ही हम सबके जोशीले स्वर बर्फ़ की मानिंद ठंडे हो जाते हैं? 
 
जरा सोचिए तो, जो अपना संपूर्ण जीवन परिवार के लिए होम देती है, बिना शिकायत, बिना अपेक्षा, वो बिना जिक्र, बिना फ़िक्र और बिना फ़ख़्र के मर जाए, ये कितनी बड़ी असंवेदनशीलता है।
 
इससे भी बढ़कर शर्मनाक ये कि इस असंवेदनशीलता को जीने में हमारे पुरुषों को तनिक भी शर्म महसूस नहीं होती। उल्टे वे इसे बहुत सहजता के साथ परंपरा के निर्वाह का हिस्सा मानते हैं। परंपरा अर्थात् यूं कि महिलाएं आदिकाल से घर परिवार संभालती आई हैं और यही उनका परम कर्तव्य माना जाकर उस पर किसी प्रकार की प्रशंसा अथवा आभार उन्हें नहीं दिया जाता रहा है। 
 
‌अरे, जागिए, ये परंपरा नहीं, षड्यंत्र है उन स्वार्थी लोगों का, जो स्त्रियों को अपनी बराबरी में नहीं देख सकते क्योंकि जानते हैं कि ईश्वर ने उतनी ही क्षमता और योग्यता से उन्हें भी नवाज़ा है, जितनी स्वयं उनके पास है बल्कि किसी क्षेत्र विशेष में तो वे उनसे अधिक सशक्त हैं। ये वो लोग हैं, जो इस बात से भयभीत रहते हैं कि महिलाओं की प्रशंसा कहीं उनका मनोबल बढ़ाकर उन्हें अन्य अनेक महत्वपूर्ण क्षेत्रों में उनसे आगे न कर दें।
जबकि सच तो यह है कि यदि आप अपनी पत्नी को अपने समकक्ष मानकर उसके योगदान को सराहेंगे, तो छोटे नहीं हो जाएंगे बल्कि समाज में एक अनुकरणीय व्यक्तित्व के रूप में आपकी प्रतिष्ठा होगी। साथ ही आपकी जीवन संगिनी भी आपके प्रति स्थायी सम्मान से भर उठेगी। चूंकि नारी तो होती ही आशुतोष है, शीघ्र प्रसन्न हो जाने वाली और कम में ही आभार भाव से भर उठने वाली। जब आपकी प्रतिकूलताओं में भी वो आपके प्रति समर्पित रहती है, तो अनुकूलता में उसके ह्रदय के मुदित भाव की कल्पना कीजिए, वो स्वयं को आसमान के शीर्ष पर महसूस करेगी और अपनी चिरकालीन विनम्रता से भरी हुई आपके प्रति बार-बार कृतज्ञता व्यक्त करेगी। 
 
‌यूं तो उसके होने मात्र से घर में उजाला है, खुशी है, जीवन का संगीत है, लेकिन यदि इस तथ्य को आप पूरे मनभाव से उसके समक्ष स्वीकार करेंगे, तो तय जानिए कि ये उजाला, खुशी और संगीत उसके सूने अंतर्मन को भी आनंद से भर देंगे। तब उसके लिए भी जीवन अभिशाप नहीं, वरदान होगा और तभी ईश्वर भी प्रसन्न होगा क्योंकि उसने पुरुष और नारी को परस्पर पूरक बनाया था, न कि शासक और शासित।
 

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