भारतीयता को खोखला कर रही जातिवादी अराजकता

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- श्याम नारायण रंगा 'अभिमन्यु'
 
भारत मेरा देश है, समस्त भारतीय मेरे भाई-बहन हैं, मैं अपने देश से प्रेम करता हूं, मुझे इसकी विपुल एवं विविध थातियों पर गर्व है...। कुछ ऐसी ही प्रतिज्ञा मैं उस समय लेता था जब मैं स्कूल में था और राजस्थान पाठ्य पुस्तक मण्डल की प्रत्येक किताब के पीछे ऐसी प्रतिज्ञा होती थी। बड़े गर्व से इस प्रतिज्ञा को हम अस्सी व नब्बे के दशक में पढ़ा करते थे, परंतु आज देश में जो जातिवादी अराजकता का माहौल है उसमें ऐसी प्रतिज्ञा दम तोड़ती नजर आती है। राजनीति के चक्कर में व कुर्सी पाने की चाहत में तथा समाज में जातिवादी व्यवस्था की जड़ों को सींचने का काम करके अपना उल्लू सीधा करने वाले लोगों ने भारतीयता की जड़ों को खोखला कर दिया है।


देश को बांटने वाले तत्व आज भी सक्रिय हैं, कभी फूट डालो व राज करो की नीति अपनाकर अंग्रजों ने देश पर राज किया था, आज उसी नीति का फायदा लेकर देश में राजनीति हावी है। ‘कानून का राज’ नाम का मुहावरा सिर्फ नाममात्र का रह गया है। हम कानून के नहीं, बल्कि जातियों के राज में विश्‍वास करते हैं, हमें ऐसा कानून चाहिए जो जातियों की श्रेष्ठता को निर्धारित करे और जो जातिवाद को संरक्षण दे। भारत एक विशाल राष्ट्र है जिसमें दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी रहती है। इस आबादी में विभिन्न जाति, धर्म, समुदाय के लोग रहते हैं जो देश के साधनों से अपना जीवनयापन करते हैं।

लोकतंत्र की स्थापना के साथ ही यह तय किया गया कि सभी नागरिकों को समान अवसर प्राप्त हों और सभी को विधि के समक्ष समानता और विधियों का संरक्षण प्राप्त हो। संविधान के अनुच्छेद 14 में समानता का अधिकार इसीलिए दिया गया कि देश का नागरिक एक प्लेटफार्म पर आकर समान रूप से अपना जीवनयापन करे। इसी सोच ने आरक्षण की नींव रखी और हजारों सालों से दबे-कुचले समाज को आगे लाने के लिए आरक्षण दिया गया, ताकि वे लोग भी मूलधारा का हिस्सा बन सकें, परंतु उच्च सामाजिक सोच के साथ लागू की गई यह व्यवस्था कालांतर में राजनीति का शिकार हुई और इस व्यवस्था ने वोटर के एक ऐसे वर्ग को खड़ा किया जो वोट बैंक में तब्दील हो गया और देश के सभी राजनीतिक दलों ने इस वोट बैंक को कायम रखने का काम किया और आरक्षण का यह देवता कब जिन्न और भूत में बदल गया पता ही नहीं चला।

आज भी याद है मण्डल आयोग की सिफरिशों को लागू करने का वह समय जब देश में हजारों प्रदर्शन हुए और मण्डल आयोग की सिफारिशों का विरोध हुआ। इस समय पचासों सवर्ण युवाओं ने अपने प्राण त्यागे और व्यवस्था का विरोध हुआ लेकिन राज की नैतिकता उस समय भी मौन थी और यह आरक्षण का देवता भूत-प्रेत का विशाल रूप धरकर इस देश की जड़ों को खोखला करता गया। मण्डल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद देश में आरक्षण के लाभ पर विस्तृत चर्चा होने लगी और यह तथ्य सामने आया कि दबे-कुचले वर्ग को आगे लाने की पवित्र सोच राजनीति के गंदले दलदल में फंसकर देश की जातिवादी व्यवस्था में दीमक का काम करने लग गई है। सवर्ण युवाओं के मन में यह प्रश्‍न उठना शुरू हो गया कि आखिर हजारों साल पहले अगर हमारे पूर्वजों ने कोई गलती की है तो उसका परिणाम हम क्यों भोगें।

और यह सोच उस समय और प्रबल होती चली गई जब नौकरियों की कमी आ गई और आरक्षण के कारण सवर्ण अपने आपको ठगा सा महसूस करने लगे। गुस्सा उस समय और ज्याद उग्र हुआ जब एक सवर्ण नब्बे प्रतिशत अंक लाकर भी नौकरी से वंचित रहा और दलित 50 प्रतिशत अंकों के साथ नौकरी पर लगा। स्टूडेंट लाइफ में जो साथी कमजोर गिना जाता था जब वह ऑफिस में अपने होनहार साथी का बॉस बनकर सामने आया तो इस स्थिति ने वर्ग संघर्ष की भावना में खाद-पानी देने का काम किया। द्वेष की राजनीति की ओछी सोच देश में पल रही इस संघर्ष की स्थिति को समझ नहीं पा रही है कि इससे जातिवादी संघर्ष पैदा होगा और एक समय देश में गृहयुद्ध जैसे हालात पैदा होंगे।

कुर्सी पाने की अंधी दौड़ व सत्ता प्राप्ति की इच्छा के सामने राष्ट्र की सोच ओछी पड़ती नजर आ रही है। आज जो दलित वर्ग सुप्रीम कोर्ट की एक व्यवस्‍था के खिलाफ सड़कों पर उतरा है उसमें इस वर्ग का दोष नहीं है बल्कि इसके पीछे वो हजारों सालों की भावना है जिसके कारण ये वर्ग मूलधारा से वंचित रहा। आज दलित वर्ग को यह डर आजादी के 70 साल बाद भी सता रहा है कि कहीं उच्च पदस्थ न्यायाधीश और सवर्ण वर्ग के लोग आज भी हमसे छल न कर लें और धीरे-धीरे ऐसे सुधार न कर लें कि हम वापस उसी पुरानी व्यवस्था में धकेल दिए जाएं जहां हमारे पूर्वज मैला ढोते थे और सवर्णों के जूते सर पर रखकर अपने आप को धन्य मानते थे। दूसरी तरफ इनका विरोध करने के लिए सड़कों पर उतरा सवर्ण भी गलत नहीं है, क्योंकि उसके सामने वर्तमान व्यवस्था ने प्रतिभा को दबाने का जो सिस्टम खड़ा किया है उससे सवर्णों को ये डर सता रहा है कि अगर ये ही हालात रहे तो जल्द ही सवर्ण वर्ग उस अवस्था में आ जाएगा जहां कभी दलित हुआ करते थे। सवर्ण वर्ग को ये डर सता रहा है कि आज उनकी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है।

ऐसे में धीरे-धीरे ये उच्च वर्ग दबा दिया जाएगा और आने वाली पीढ़ियां दबी-कुचली अवस्था में पहुंच जाएगी। ऐसी सोच व राजनीति की गलत परंपरा ने देश में वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी है। आज दोनों वर्ग हथियार लेकर देश में आमने-सामने हैं और अपने अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसे में वह प्रतिज्ञा याद आती है कि हम भारतीय पहले हैं या हिंदू-मुसलमान दलित और सवर्ण। क्या हमारा जो कर्तव्य जाति के प्रति है धर्म के प्रति है वैसा ही उससे ज्यादा कर्तव्य इस राष्ट्र के प्रति नहीं है। क्या हम उस जुल्म व हिंसा के दौर की मानसिकता से आगे आकर देश के विकास में अपना योगदान देंगे या फिर वो ही हजारों सालों की जाति व्यवस्था की लड़ाई ही लड़ते रहेंगे।

क्या हम सब देशवासियों का कर्तव्‍य नहीं कि हम देश के सर्वोच्च न्यायालय का सम्मान करें, हम देश के संविधान में विश्‍वास रखें और देश में संवैधानिक मूल्यों की स्थापना में एक नागरिक होने के नाते अपना पूर्ण योगदान दें। क्या सारे काम सरकार खुद ही कर लेगी। क्या सरकार और तंत्र ही लोकतंत्र में अपना योगदान देगा। लोकतंत्र में एक समृद्ध और सशक्त राष्ट्र बनाने की जिम्मेदारी लोक की भी है। देश में पहले हिन्दू-मुसलमान को लेकर बातें हुई और अब दलित व सवर्ण को लेकर माहौल बनाया जा रहा है। एक तरफ हिन्दू सड़कों पर था ही और उसके साथ मुसलमान भी सड़क पर उतर आया, दक्षिण भारत में ईसाई भी अपने वजूद के लिए प्रदर्शन कर रहा है और दूसरी तरफ हिन्दुओं के वर्ण आपस में लड़ रहे हैं। कल तक जो मुसलमान व ईसाइयों के सामने भगवा झंडे के नीचे हिंदू एकता की लड़ाई लड़ रहे थे वे भगवा झण्डे वाले आज आपस में ही लड़ रहे हैं कि कौन किसको दबा रहा है।

एक समय था जब उच्च जातियों ने निम्न जातियों के साथ अन्याय किया और दबाया-कुचला पर आजादी के 70 साल बाद आज उच्च जातियां यह कहकर आरक्षण का विरोध कर रही हैं कि आरक्षण के नाम पर उच्च जातियों के साथ अन्याय हो रहा है। कानून जहां निम्न वर्ग की जातियों को संरक्षण दे रहा है वहीं उसी कानून की आड़ में संरक्षण पाने के नाम पर उच्च जातियों के साथ अन्याय भी हो जाता है। बरसों लागू रही इस व्यवस्था में सुधार की पहल जब सुप्रीम कोर्ट ने की तो दोनों ही जातियां आमने-सामने आ गईं। वास्तव में इस देश में जाति व्यवस्था हजारों सालों से चली आ रही है।

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य, शुद्र की ये लड़ाई कोई नई नहीं है बल्कि इस लड़ाई में नयापन कानून ने ला दिया है जिसने संरक्षण के नाम पर आजादी के बाद एक भेद किया और इस भेद का परिणाम यह हुआ कि आजाद भारत का समाज बंट गया और इस कदर बंटा कि आज सड़कों पर देश में ये जातियां आमने-सामने हैं और कानून के राज की धज्जियां उड़ रही हैं। देश में न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह समाज में कानून की व्याख्या के साथ कानून के राज की स्थापना में अपना योगदान दें और कार्यपालिका का कर्तव्य है कि वह विधायिका व न्यायपालिका के कानून को लागू करने में अपनी भूमिका का निर्वहन करें, परंतु वर्तमान स्थिति को देखें तो देश में जनता सुप्रीम कोर्ट के कानून को मानने को तैयार नहीं है और कार्यपालिका वोट की राजनीति की शिकार होकर परिस्थितियों पर हाथ पर हाथ धरे मौन खड़ी है।

ऐसी स्थिति में देश की कोई नहीं सोच रहा है। ऐसा लगता है कि इस देश में कोई हिंदू है, कोई मुसलमान है, कोई दलित है कोई सवर्ण है। भारत में भारतीयों को ढूंढना मुश्किल हो गया है। ऐसे में जाति व्यवस्था में फंसा आदमी देश की सोच ही नहीं रहा क्योंकि उसके जीने के अवसर में देश ने जाति की व्यवस्था को आरक्षण के नाम पर लागू कर दिया है। आज भारत और भारतीय की बात करता कोई नजर नहीं आता, चारों तरफ धर्म व जाति का शोर है। कोई मस्जिद गिरा रहा है, कोई मंदिर बनाने की बातें कर रहा है, कोई बाबा साहेब अंबेडकर के नारे लगा है तो कोई मनु की किताबें जला रहा है। क्या इन सबसे देश का विकास हो जाएगा, क्या ऐसा करके राष्ट्रीय सोच को बढ़ावा दिया जा सकेगा। जो व्यवस्था सबको समानता के नाम पर बनाई गई थी अगर वो व्यवस्था देश में असमानता की स्थिति पैदा करे तो ऐसी व्यवस्था में सुधार होना चाहिए।

क्या बाबा साहेब अंबेडकर ऐसे देश की कल्पना करते थे। क्या दलित उत्थान का जो सपना बाबा साहेब ने देखा था उसका ये रूप था। क्या गांधी का आजाद भारत ऐसा था जो एक देश में कईं वर्गों में बंटकर राष्ट्र का नुकसान करें। नहीं हमने एक लोकतांत्रिक गणतंत्र का सपना देखा था, जहां एक व्यक्ति अपनी गरिमा के साथ जीवन-यापन कर सके, ऐसा देश जो सम्प्रभुता के साथ पंथनिरपेक्ष राज्य बने और जिसका नागरिक अपने आप के होने पर गर्व करें और जिसको जीवन जीने के समान अवसर मिले और ऐसा समाज बने, जिसमें आय के साधनों पर सभी का हक हो और कोई अमीर-गरीब का भेद न रहे। निःसंदेह पिछले 70 सालों में ऐसी व्यवस्था की ओर हमने कदम बढ़ाए हैं लेकिन हमने पूर्ण लक्ष्य को अभी तक प्राप्त नहीं किया है।

ऐसे में जितना बढ़ सके उस पर गर्व करके हम सब राष्ट्र निर्माण में सहभागी बने। हम प्रदर्शन के नाम राष्ट्रीय सम्पत्तियों को नुकसान न पहुंचाए, क्योंकि ये देश की सम्पत्ति हमारी ही है। हम जोर-जबरदस्ती के राज की ओर नहीं कानून के राज की ओर कदम बढ़ाएं। ऐसे समाज की स्थापना में अपना पूरा जीवन समर्पित करें जिसमें कोई हिंदू न हो कोई मुसलमान न हो कोई दलित या सवर्ण न हो बल्कि सब भारतीय हों और गर्व से कहें कि भारत मेरा देश है और समस्त भारतीय मेरे भाई-बहन हैं, हम ऐसे कर्म करें कि हमारी देश की थातियों पर हमें गर्व हो और मिलजूलकर सदैव इसके योग्य होने के लिए प्रयत्न करते रहें। 

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