- नितिन बाघमारे
कोरोना एक बार फिर से भारत को धीरे-धीरे फिर मौत के मुंह में धकेल रहा है। ओमिक्रोन और डेल्टा वैरिएंट के मिश्रण से भारत तीसरी लहर की चपेट में आ चुका है।
बड़े शहरों के साथ अब छोटे शहरों में भी कोरोना संक्रमण ने तेज रफ्तार पकड़ ली है। इटली से भारत तक एवं विश्व के अन्य देशों में कोरोना के बढ़ते मामलों ने सभी के चेहरों पर चिंता की लकीरें खींच दीं हैं, क्योंकि कोरोना की पहली और दूसरी लहर में जन-तबाही देखी है।
पिछले सप्ताह से भारत में कोरोना संकट तेजी से बढ़ने लगा है। संक्रमण इतनी तेजी से पैर पसार रहा है कि दिल्ली सरकार ने शनिवार और रविवार को वीकेंड कर्फ्यू लगाने का ऐलान किया है एवं देश के अधिकतर राज्यों ने नाईट कर्फ्यू लगा दिया है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी कोरोना वायरस से संक्रमित हो गए हैं
भारत में कोरोना संक्रमण की तीसरी लहर को देखते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश शेखर यादव ने केंद्र सरकार से अपील की थी कि वह इन चुनावों को कुछ समय के लिए आगे बढ़ाने के बारे में विचार करें। परंतु न्यायालय की इस अपील को राजनैतिक रंग दिया गया, इसे जबर्दस्ती राजनीतिक विषयों में न्यायालय का हस्तक्षेप भी कहा जा जा रहा है, लेकिन आम जनता के जीवन की रक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़ा मामला होने के कारण से न्यायालय का दखल अनुचित भी नहीं कहा जा सकता।
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। अब लोकतंत्र है, तो चुनाव होना स्वभाविक है। भारत में तो हर साल किसी न किसी राज्य में चुनाव होते हैं।
बीते वर्ष बिहार-बंगाल में ही हुए थे, वहां भी खूब रैलियां हुईं, लेकिन मजाल कि कोरोना फैला हो। अब बिहार में नहीं फैला, तो इन पांच चुनावी राज्यों में क्यों फैलेगा। ऐसा लगता है कि भारत में आकर कोरोना भी लोकतंत्र का पक्षधर बन जाता हो। तभी तो चुनावी रैलियों से दूरी बनाकर रखता है।
कोरोना भी चुनाव आयोग की तरह ही किसी राजनीतिक दल का समर्थन नहीं करता है। वो किसी भी राजनीतिक पार्टी की रैली में नहीं जाता है। हां, किसान आंदोलन हो, होली हो, कुंभ हो, तो बात अलग है। वहां कोई रोक-टोक नहीं है, तो कोरोना आसानी से जा सकता है।
यह निश्चित है कि राज्यों में चुनाव कराने का निर्णय सिर्फ निर्वाचन आयोग के अधिकार क्षेत्र में ही आता है और आयोग ही तय करता है कि किसी भी विधानसभा का कार्यकाल पूर्ण होने से पूर्व चुनाव किस समय कराये जाने चाहिए, जिससे नई विधानसभा का गठन तय समय से हो सके।
परंतु चुनाव आयोग को आम जनता के हित को ध्यान में रखते हुए निर्वाचन कराने का निर्णय लेना चाहिए, क्योंकि चुनावी रैलियों में हजारों की भीड़ से कोरोना की तीसरी लहर को फैलने में जो गति प्राप्त होगी वह बेहद चिंताजनक परिणाम दिखा सकती है।
कोरोना संक्रमण का डर इन रैलियों और रोड शो में हजारों-लाखों की संख्या में आने वाले लोगों के न दिल में आ रहा है और न समझ में। यह बात कोरोना को भी अंदर ही अंदर खाए जा रही है। मतलब, बेचारे कोरोना ने एक साल में जितना भौकाल बनाया, ई ससुरे मिलके सब मिट्टी पलीद किए दे रहे हैं। कौनो डर ही नहीं रह गया है।
वैसे, इतनी भारी भीड़ देखकर कोरोना भी दहशत में आ ही जाता होगा। रैली में पहुंचने के बाद भीड़ में से किसी ने कोरोना को देख लिया, तो लोगों में भगदड़ मच सकती है। भगदड़ के बाद कितने पैरों के नीचे कुचला जाएगा, इसका हिसाब कौन रखता है।
उत्तर प्रदेश में इस वक्त सपा की परिवर्तन यात्रा और भाजपा की जनविश्वास यात्राओं के अलावा भारी भीड़ वाली रैलियां लगातार हो रहीं हैं। इन रैलियों में खूब भीड़ हो रहीं है। कांग्रेस ने भी रैलियों और में जन समर्थन जुटाने की गर्ज से मैराथन दौड़ का आयोजन किया। लेकिन जैसे ही ओमिक्रोन संक्रमण तेज हुआ, एक जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाते हुए और पिछले साल पश्चिम बंगाल चुनावों से सबक लेते हुए कांग्रेस ने अपनी चुनावी रैलियों को रद्द कर दिया है। अब बारी सत्ताधारी भाजपा और सपा की हैं।
कोरोना संक्रमण को रोकने के लिए एक ओर सरकार आम जनता से अपील करती है कि जब तक दवाई नहीं, तब तक ढिलाई नहीं, वहीं दूसरी ओर सत्तारुढ़ पार्टियां रैलियों के लिए भीड़ एकत्रित कर रहीं हैं। अब जनता को स्वयं निर्णय लेना होगा कि उनके हित में क्या है? हालांकि अब ऐसा लग रहा है कि जनता भी सरकार की इस अपील पर कोई खास ध्यान नहीं दे रही है। क्योंकि समाज का हर व्यक्ति भीड़ से परहेज नहीं, बल्कि उसका हिस्सा बनने की अग्रसर हो रहा है।
भौतिक दूरी और चेहरे पर मास्क लगाने की भी जरूरत नहीं समझी जा रही। हम नियमों की अवहेलना ही करने की ओर प्रवृत्त होते जा रहे हैं। यही सब कारण हैं कि हम समाधान के बजाय खुद ही समस्या बनते जा रहे हैं। इसीलिए सबके हित में यही है कि स्वयं की सुरक्षा करें और तीसरी लहर पर विजय प्राप्त करें।
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)