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किसान आन्दोलनः न तुम जीतो न हम हारें

ऋतुपर्ण दवे
क्या किसान मजबूर हैं और खेती मजबूरी? यह प्रश्न बहुत ही अहम हो गया है। अब लग रहा है कि किसानों की स्थिति ‘उगलत लीलत पीर घनेरी’ जैसे हो गई है।

बदले हुए परिवेश (सामाजिक व राजनीतिक दोनों) में वाकई किसानों की हैसियत और रुतबा घटा है। किसान अन्नदाता जरूर है लेकिन उसकी पीड़ा बहुत गहरी है। जब अन्नदाता ही भूख हड़ताल को मजबूर हो जाए तो सब कुछ बड़ा और भावुक सा लगने लगता है।

एक ओर खेती का घटता रकबा बड़ा सवाल है तो दूसरी ओर बढ़ती लागत। घटते दाम से पहले ही किसान बदहाल, हैरान और परेशान हैं। स्थिति कुछ यूं दिखने लगती है कि खतरे में देख अपनी जान, खुद ही आत्महत्या कर किसान पहुंच रहा है मुक्ति धाम!

3-4 डिग्री सेल्सियस की कड़कड़ाती ठण्ड ऊपर से हिमालय की तरफ से आती बर्फीली हवाओं ने दिल्ली सहित देश के काफी बड़े भू-भाग को जबरदस्त ठिठुरन में जकड़ लिया है। ऐसे में धीरे-धीरे महीने भर होने को आ रहे किसान आन्दोलन और शरीर को तोड़ देने वाली ठिठुरन के बावजूद किसानों का न टूटना बता रहा है कि आन्दोलन राजनीति से कम किसानों के भविष्य की चिन्ताओं से ज्यादा प्रभावित है। सच भी है जब बात किसी की अस्मिता या अस्तित्व पर आ जाती है तो मामला न केवल पेचीदा बल्कि आर-पार का हो जाता है। लगता है किसान आन्दोलन भी समय के साथ-साथ कुछ इसी दिशा में चला गया है।

किसान आन्दोलन को लेकर बीच का कोई रास्ता दिख नहीं रहा है क्योंकि न तो सरकार झुकने को तैयार है और न ही किसान। यह सही है कि 135 करोड़ की आबादी वाले भारत में लगभग 60 प्रतिशत आबादी के भरण-पोषण का जरिया खेती है। ऐसे में किसान अपनी उपज की खातिर एमएसपी, खेत छिन जाने का डर और बिजली जैसी समस्याओं से डरे हुए हैं। उनका डर गैर वाजिब नहीं लगता। लेकिन सरकार का भी अपने बनाए कानून को वापस लेना साख का सवाल बन गया है। बात बस यहीं फंसी है।

इस बीच देश की सर्वोच्च अदालत की सलाह भी बेहद अहम है। कुल मिलाकर आन्दोलन के पेंच को सुलझाने के लिए बीच का मध्य मार्ग बेहद जरूरी है। जिन तीनों कानूनों को लेकर आन्दोलन चल रहा है उसे होल्ड कर देने में भी सरकार की साख पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। वहीं किसानों को भी लगेगा कि उनके लिए एक रास्ता बन रहा है। इसी बीच दोनों को समय मिल जाएगा और नए सिरे से बातचीत की संभावनाओं से भी नया कुछ निकल सकता है। इससे न तुम जीते न हम हारे वाली स्थिति होगी और रास्ता भी निकल सकता है। अब सवाल बस यही है कि कैसे इस रास्ते पर दोनों चलें?

हमें नहीं भूलना चाहिए कि जिस देश में “उत्तम खेती मध्यम बान, निषिद चाकरी भीख निदान” का मुहावरा घर-घर बोला जाता था और किसानों की बानगी ही कुछ अलग थी। वहीं के किसान आसमान के नीचे धरती की गोद में सड़क पर लगभग महीने भर से बैठे हैं। सच है कि इन किसानों ने समय के साथ काफी कुछ बदलते देखा है।
जहां नई पीढ़ी खेती के बजाए शहरों को पलायन कर मजदूरी को ही अच्छा मानती है वहीं जमीन के मोह में गांव में पड़ा असहाय किसान कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि का दंश झेलता है और कभी बावजूद भरपूर फसल के बाद भी उचित दाम न मिलने और पुराने कर्ज को न चुका पाने से घबराकर मौत का रास्ता चुनता है। ज्यादा फसल तो भी बेचैन, कम फसल तो भी बेचैन और सूखा-बाढ़ तो भी मार किसान पर ही पड़ती है। बस भारतीय किसानों की यही बड़ी विडंबना है।

सरकार चिन्तित तो दिखती है। लेकिन किसानों को भरोसा नहीं है। किसानों के लिए बने तीनों कानूनों में कहीं न कहीं किसानों की समृध्दि का दावा तो सरकार कर रही है, लेकिन इसमें किसान संगठनों को बड़ा ताना-बाना दिखता है जिसमें उनको अपने ही खेत-खलिहान की सुरक्षा और मालिकाना हक से वंचित कर दिए जाने का भय सता रहा है।

कुल मिलाकर स्थिति जबरदस्त भ्रम जैसी बनी हुई है। किसानों के नाम पर हो रही सियासत से जख्मों पर मरहम के बजाए नमक लगने से आहत असल किसान बेहद असहाय दिख रहा है।

नौकरशाहों और कर्मचारियों को मंहगाई भत्ता देकर सरकारें, चेहरे पर शिकन तक नहीं आने देती। लेकिन किसान कर्ज और ब्याज माफी के लिए सड़क पर परसा भोजन खाने, स्वयं के मल-मूत्र भक्षण की धमकी, कभी तपते आसमान के नीचे खुले बदन तो कभी पानी में गले तक डूबकर जल सत्याग्रह और अभी बर्फीली हवाओं और शूल सी चुभती ठण्ड में खुले आसामान के नीचे दिल्ली की सरहदों को आशियाना बना करीब महीने भर से बैठे रहने का कठिन फैसला देश की किसानों की मौजूदा हालत और भविष्य की चिन्ता दोनों को समझने के लिए काफी है।
क्या किसान झुनझुना बन गया है? राजनीति का अस्त्र बन गया है? या फिर केवल वो औजार रह गया है जो खेत में हल भी चलाए, भरपूर फसल उगाए और उसे बेचने, सहेजने और सही दाम पाने के लिए सीने पर गोली भी खाए और सर्द हवाओं में सड़क को ही घर बनाने पर मजबूर हो जाए? किसान देश का पेट भी भरे और खुद भूखा रह जाए?

किसानों को लेकर सभी को सहमति और संवेदनाओं को जगाना होगा। तमाम व्यावसायिक और गैर सरकारी संगठनों का भी दायित्व है कि वो किसानों से जुड़ें, मिलकर एक कड़ी बनाएं तथा उन्हें भी व्यापार-व्यवसाय तथा समाज का हिस्सा समझें तभी परस्पर दुख-तकलीफें साझा होंगी, दूर होंगी और बिखरते-टूटते किसानों को नया मंच और संबल मिलेगा।

सरकारी स्तर पर भी बड़ी मदद की जरूरत है। हर समय सरकारी इमदाद को मोहताज किसान, विभिन्न संगठनों का साथ मिलने से मानसिक रूप से मजबूत होगा तथा न केवल अवसाद से बाहर निकलेगा बल्कि स्थानीय स्तर पर सुगठित व्यावसायिक मंच का हिस्सा बनने से, कृषि को व्यवसाय के नजरिया से भी देखेगा। इसका फायदा जहां किसानों को भ्रम से बचाने और जीवन को संवारने में तो मिलेगा ही वहीं व्यापारिक-वाणिज्यिक संस्था से जुड़े होने से कृषि उत्पादों के विक्रय और विपणन के लिए मित्रवत उचित माहौल हर समय तैयार रहेगा। ऐसा हुआ तो एक बार फिर खेती, धंधा बनकर लहलहा उठेगी। व्यापार भी फलीभूत होगा और छोटे, मझोले, बड़े हर वर्ग के किसानों के लिए यह निदान, वरदान साबित होगा। शायद किसान भी यही चाहता है और सरकार भी। ऐसे में बीच का भ्रम क्यों बढ़ रहा है यह दोनों को ही समझना होगा और इसके लिए सर्वोच्च अदालत के सुझाव से बेहतर कुछ हो नहीं सकता। यकीनन न तुम हारे न हम जीते का ही मंत्र कारगर हो सकता है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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