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क्यों जरूरी है फ्रीडम ऑफ स्पीच?

हमें फॉलो करें क्यों जरूरी है फ्रीडम ऑफ स्पीच?

अनिरुद्ध जोशी

फ्रीडम ऑफ स्पीच अर्थात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग की दुहाई देकर मीडिया या सोशल मीडिया को आजकल बहुत भला-बुरा कहा जाने लगा है। क्या यह उचित है? बहुत से लोग मानने लगे होंगे कि फ्रीडम ऑफ स्पीच की सीमाएं होना चाहिए या यह कि यह नहीं होना चाहिए। कई लोग प्रेस पर लगाम लगाने की बात भी करते हैं और कई लोग मानते हैं कि सोशल मीडिया पर बैन लगाया जाना चाहिए। ऐसा मानने वाले लोग कितने प्रतिशत है यह बताना मुश्‍किल है क्योंकि इस पर सर्वे की आवश्यकता है। परंतु सर्वे किन लोगों के बीच होगा यह भी एक बड़ा सवाल है। खैर, हम इस पर बात नहीं करते हैं। मूल मुद्दा है कि क्यों जरूरी है फ्रीडम ऑफ स्पीच?
 
 
एक दौर था जबकि ईसाई जगत में कट्टरता फैली हुई थी। उस दौर में सबकुछ चर्च ही तय करता था। उस दौर में कोई भी व्यक्ति चर्च या राज्य के खिलाफ सच या झूठ बोलने की हिम्मत नहीं कर सकता था। परंतु इस फ्रीडम ऑफ स्पीच के लिए कई लोगों को बलिदान देना पड़ा और तब जाकर ईसाई जगत को समझ में आया कि व्यक्तिगत स्वतं‍त्रता, मानवाधिकार और मनुष्‍य के विचार की रक्षा कितनी जरूरी है। उन्होंने धर्म से ज्यादा मानवाधिकार और लोकतंत्र को महत्व दिया।

गैलीलियो जैसे पूर्व के कई वैज्ञानिकों के बारे में उदाहरण दिया जा सकता है कि उस दौर में चर्च का किस तरह से कोप झेलना होता था। परंतु यह खुशी की बात है कि ईसाई जगत यह बात समझ गया और उन्होंने दुनिया को आधुनिक और सभ्य बनाने की दिशा में काम करना प्रारंभ किया। हालांकि आज भी ऐसे कई मुल्क है जो धार्मिक कानून को महत्व देते हैं और ईशनिंदा के सच्चे या झूठे आरोप लगाकर लोगों को मौत की सजा दे देते हैं। इन मुल्कों में फ्रीडम ऑफ स्पीच के महत्व को लेकर कोई बहस नहीं होती है। यही हाल चीन और उत्तर कोरिया जैसे कम्युनिस्ट राष्ट्रों का भी है।
 
मध्‍यकाल में राजा और धर्म के बारे में अपने नकारात्मक विचार व्यक्त करना फांसी के फंदे पर झुलने जैसा था, जबकि राजा या धर्म के ठेकेदार यदि कुछ गलत कर रहे हैं तो उनकी आलोचना करना भी राज्य की जनता का कर्तव्य होता है। यह समस्या भारत में भी प्राचीन काल से रही है। चाणक्य के पिता चणक ने जब मगध के राजा को उसके दुराचारि होने की बात कही तो उनके सिर को काटकर चौराहे पर लटका दिया गया था।
 
दुनिया को आधुनिक बनाने में फ्रीडम ऑफ स्पीच का कितना महत्व है? जब से आधुनिक युग का प्रारंभ हुआ लोकतंत्र और मानवाधिकरों की रक्षा के विषय में भी तेजी से सोचा जाने लगा। लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए बहुत ही जरूरी है फ्रीडम ऑफ स्पीच और अपने तरीके से जीवन जीने के अधिकार का होना। राजनीतिज्ञ यदि कुछ गलत करते हैं तो उनकी गलती के बारे में मौन रहना क्या अपने ही राज्य को कमजोर करना नहीं माना जाएगा? 
 
सकारात्मक आलोचना से ही लोकतंत्र निखरता है और कोई राज्य, राजा या धर्म मजबूत होता है। अमेरिका और योरपीय समाज का शक्तिशाली होना इस बात का सबूत है कि वहां पर फ्रीडम ऑफ स्पीच, मानवाधिकार और अपने तरीके से जीवन जीने की स्वतंत्रता को बहुत महत्व दिया गया जिसके चलते समाज प्रगतिशील और प्रयोगवादी बना। आज वहां का हर बच्चा विज्ञान व तकनीक के बारे में सोचता है जबकि अभी भी मध्यकाल में जी रहे राष्ट्र में से साइंस के एक भी नोबेले प्राइज को निकालना बहुत ही अचरज की बात होगी।
 
 
यदि विकासशिल देश मीडिया और सोशल मीडिया से घबराकर यह तय करने लगेंगे कि हमें 'फ्रीडम ऑफ स्पीच' पर लगाम लगाना चाहिए तो आप शर्तिया यह मान लीजिये की मानव जाति रिवर्स गियर लगाना प्रारंभ कर देगी और आने वाले पचास वर्षों में हम मध्यकाल में होंगे। प्रत्येक व्यक्ति यह बात अच्छे से समझ लें कि विज्ञान ने हमें हर तरह से सुविधा, संपन्न और स्वतंत्र किया है परंतु धर्म के ठेकेदारों ने हमारी सोच को हमेशा ही संकुचित बनाए रखने का ही प्रयास किया है। बुद्धि के बड़े संघर्ष के बाद ही स्वतंत्र विचार को प्राप्त किया जा सकता है और दुनिया को सभ्य और समझदार बनाया है तो स्वतंत्र विचारकों ने भी बनाया है। हमें धर्म और अधर्म के फर्क को समझना होगा।
 
 
फ्रीडम ऑफ स्पीच का दुरुपयोग हो रहा है या यह माना जाता है कि बदनीयत से दुष्‍प्रचार किया जा रहा है तो इसका समाधान खोजा जाना चाहिए। भारतीय कानून अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है परंतु वह किसी की मानहानी, न्यायालय-अवमान, शिष्टाचार या सदाचार, राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था, मित्र देशों से संबंध और भारत की प्रभुता और अखंडता आदि के विषय में कोई समझौता नहीं कर सकता है और करना भी नहीं चाहिए।

यह प्रत्येक व्यक्ति को समझना चाहिए कि वह 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' का दुरुपयोग नहीं करें क्योंकि यह स्वंत्रता सैंकड़ों वर्षों के बाद और सैंकड़ों लोगों के बलिदान के बाद प्राप्त हुई है। वह भी कुछ ही मुल्कों में है। इसकी कदर करें अन्यथा हम मध्यगुम में जीने के लिए मजबूर होंगे।
 
 
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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