मोहन भागवत के वक्तव्यों को कैसे देखें

अवधेश कुमार
मंगलवार, 25 जून 2024 (12:14 IST)
संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के भाषण पर अभी तक जबरदस्त बहस चल रही है। वैसे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के भाषणों और वक्तव्यों पर मीडिया, विश्लेषकों तथा समर्थकों के अलावा विरोधियों की भी गहरी नजर रहती है। किंतु संघ प्रमुख के दो भाषण वर्ष में सर्वाधिक महत्वपूर्ण होते हैं और उनसे भविष्य की दिशा मिलती है- विजयादशमी महोत्सव और दूसरा नागपुर में आयोजित तृतीय वर्ष कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर के समापन पर दिया गया भाषण। वर्तमान उद्बोधन भी कार्यकर्ता विकास वर्ग के समापन समारोह का ही है।

निष्पक्षता से कोई उनके पूरे उद्बोधन को सुनेगा तो उसका वह अर्थ नहीं निकालेगा जो मुख्य मीडिया और सोशल मीडिया में छाया हुआ है। सबका निष्कर्ष एक ही है कि डॉक्टर भागवत ने भाजपा के बहुमत न पाने को लेकर ही अपनी टिप्पणी की है तथा उसको चेताया है। उसमें चाहे अहंकार की बात हो, मिलकर चलने की, सत्य बोलने की, आत्ममंथन… सब केवल नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए है। 
 
प्रश्न है कि क्या संघ और भाजपा के संबंध ऐसे हो गए हैं कि संघ प्रमुख को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को कुछ कहना हो तो सार्वजनिक भाषण में बोलेंगे और वह भी कार्यकर्ता विकास वर्ग के समापन में जबकि प्रशिक्षण के बाद स्वयंसेवकों को सकारात्मक भाव से निकलकर देश के लिए काम करने की प्रेरणा देनी होती है? 
 
दूसरे अगर ये बातें केवल सरकार के लिए हैं तो विपक्ष के लिए क्यों नहीं? हालांकि कार्यकर्ता प्रशिक्षण शिविर का निर्णय महीनों पहले हुआ होगा और समापन भाषण का भी। उस समय किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह चुनाव  परिणाम आने और सरकार गठित होने का दिन होगा। बावजूद चुनाव हो, सरकार और विपक्ष के बीच अनेक मुद्दों पर बाहर चल रही हो, सरकार गठित हुई हो और संघ प्रमुख उसकी पूरी तरह अनदेखी कर दें यह नहीं हो सकता। 
 
उद्बोधन के समय उनके ध्यान में पूरा राजनीतिक परिदृश्य पर रहा होगा। पर जिन लोगों ने निष्पक्षता से संघ को समझा है, अध्ययन किया है वो इन ज्यादातर टिप्पणियों से सहमत नहीं हो सकते। तो फिर क्या होंगे डॉक्टर मोहन भागवत के वक्तव्यों के निहितार्थ?
 
जिन पंक्तियों को बहस का आधार बनाया गया है उनमें पहला है, चुनाव। वे कहते हैं कि चुनाव संपन्न हुए हैं। उसके परिणाम भी आए और कल सरकार भी बन गई।  ….ये अपने देश के प्रजातांत्रिक तंत्र में प्रत्येक पांच वर्ष में होने वाली घटना है। उसके अपने नियम और डायनेमिक्स हैं। 
 
..अपने देश के संचालन के लिए कुछ निर्धारण करने वाला वो प्रसंग है, इसलिए महत्वपूर्ण है। लेकिन इतना महत्वपूर्ण क्यों है? समाज ने अपना मत दे दिया, उसके अनुसार सब होगा। ध्यान रखिए इसी में वह कहते हैं कि क्यों, कैसे, इसमें संघ के हम लोग नहीं पड़ते। हम लोकमत परिष्कार का अपना कर्तव्य करते रहते हैं। प्रत्येक चुनाव में करते हैं। इस बार भी किया है। 
 
इन पंक्तियों को कोई उद्धृत नहीं करता जबकि संघ और उसके सारे संगठनों में काम करने वाले स्वयंसेवकों तथा समाज के लिए उनका पक्ष यही है। आगे वे कहते हैं- कल ही आदरणीय सत्य प्रकाश जी महाराज ने हमको कबीर जी का एक वचन बताया। 
 
कबीर कहते हैं- 'निर्बंधा बंधा रहे बंधा निर्बंधा होई कर्म करे करता नहीं दास कहाय सोई'। जो सेवा करता है, जो वास्तविक सेवक है, जिसको वास्तविक सेवक कहा जा सकता है उसको कोई मर्यादा रहती है यानी वो मर्यादा से चलता है। 
 
..जैसा कि तथागत ने कहा है- कुशलस्य उपसंपदा, यानी अपनी आजीविका पेट भरने का काम सबको लगा ही है, करना ही चाहिए.. लेकिन कौशलपूर्वक जीविका कमानी है और कार्य करते समय दूसरों को धक्का नहीं लगना चाहिए। ये मर्यादा भी उसमें निहित है। 
 
..वो मर्यादा ही अपना धर्म है, संस्कृति है। जो पूज्य महंत गुरुवर्य महंत रामगिरी जी महाराज जी ने अभी बहुत मार्मिक कथाओं से थोड़े में बताई, उस मर्यादा का पालन करके जो चलता है, कर्म करता है, कर्मों में लिप्त नहीं होता, उसमें अहंकार नहीं आता। वही सेवक कहलाने का अधिकारी रहता है। 
 
साफ है कि इन संतों का वहां उद्बोधन हुआ और उसी को उद्धृत करते हुए डॉक्टर भागवत ने स्वयंसेवकों को नीति और व्यवहार समझने की कोशिश की जिसमें से अहंकार, धक्का देना आदि शब्दों को उठाकर बिना पूरे प्रसंग को लिए विश्लेषण करेंगे तो निष्कर्ष कुछ भी आ सकता है। 
 
मजे की बात देखिए कि मोहन भागवत कहते हैं कि इन चार पंक्तियों में संघ की वृत्ति ध्यान में आती है। इन बातों में उलझे रहेंगे तो काम रह जाएंगे। यानी संघ अपना काम करता है उसमें उलझता नहीं। और बहस इसी पर हो रही है कि संघ इसी वृत्ति में लिप्त है। तो संघ प्रमुख ने राजनीति को लोकतंत्र में आवश्यक बताते हुए भी यह कहा है कि उसमें कैसे व्यवहार हों लेकिन हमारी भूमिका उससे अलग है। 
 
चुनाव को  प्रजातंत्र की आवश्यक प्रक्रिया बताते हुए वे कहते हैं कि उसमें दो पक्ष रहते हैं, इसलिए स्पर्धा रहती है। स्पर्धा रहती है तो दूसरे को पीछे करने और स्वयं को आगे बढ़ने का काम होता ही है…. परंतु उसमें भी एक मर्यादा है। असत्य का उपयोग नहीं करना। चुने हुए लोग संसद में बैठकर देश को चलाएंगे, सहमति बनाकर चलाएंगे। 
 
तो भागवत का देश के लिए दिशा यही है कि चुनाव में आवेश हुआ, गुस्सा हुआ, सब कुछ हुआ लेकिन अब सत्ता और विरोधी की जगह सबको देश चलाना है इसलिए सहमति बनाकर आगे काम होना चाहिए। वे कहते हैं कि हमारे यहां तो परंपरा सहमति बनाकर चलने की है- 'समानो मंत्र: समिति: समानी। समानम् मनः सह चित्तमेषाम'। 
 
यह सच है कि ऋग्वेदकारों को मानवी मन का ज्ञान था। सब जगह उन्होंने ‘सम’ कहा है (समानो मंत्रः समिति समानी समानम् मनः), लेकिन चित्त के बारे में सम नहीं कहा, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति का चित्त, मानस अलग-अलग होता ही है। इसलिए 100 प्रतिशत मतों का मिलान होना संभव नहीं है। लेकिन जब चित्त अलग-अलग होने के बाद भी एक साथ चलने का निश्चय करते हैं तो सह चित्त बन जाता है।
 
वे संसद में दो पक्षों को भी आवश्यक इसलिए मानते हैं क्योंकि उनके अनुसार किसी भी प्रश्न के दो पहलू रहते हैं और दोनों सामने आने के बाद ही पूर्णता होती है। चूंकि राजनीति में स्पर्धा होती है इसलिए ऐसी पूर्णता नहीं हो पाती। 
 
यही आज की राजनीति का सच है जिसके बारे में मोहन भागवत ने स्पष्ट कहा है कि स्पर्धा होने के कारण असत्य का सहारा लिया जाता है, तकनीकी का उपयोग करते हुए असत्य बाती पड़ोसी गई।  इस संदर्भ में मोहन भागवत का यह प्रश्न उचित है कि क्या ज्ञान -विज्ञान एवं विद्या का यही उपयोग है? 
 
कायदे से इस प्रश्न पर देश में बहस होनी चाहिए। मोहन भागवत की बातों को स्वीकार करें तो संघ की कल्पना है कि देश के राजनेताओं को स्पर्धा रखते हुए भी असत्य के आधार पर राजनीति और चुनाव नहीं करना चाहिए। सबको देश का ध्यान रखना चाहिए। 
 
उन्होंने कहा कि सज्जन विद्या का ये उपयोग नहीं करते। विद्या विवादाय ये खलस्य यानी दुर्जन का काम कहा गया है-'विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधोर् विपरीतमेतद् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय'॥ विद्या का उपयोग प्रबोधन करने के लिए होता है, लेकिन आधुनिक विद्या (टेक्नोलॉजी) का उपयोग असत्य परोसने के लिए किया गया। उनकी चिंता है कि देश के शीर्ष राजनेता इस तरह का व्यवहार करेंगे तो देश का भला नहीं हो सकता है। इसी में विरोधी को प्रतिपक्ष कहने की बात करते हैं, क्योंकि उनके अनुसार वह विषय का एक पहलू उजागर करते हैं जिनका विचार होना चाहिए। 
 
सच कहा जाए तो उनका देश की सभी पार्टियों के राजनेताओं से अपील है कि चुनाव खत्म हो गया जिसमें मर्यादा का पालन नहीं हुआ। किंतु देश के सामने चुनौतियां हैं और उनके लिए सबको सत्य और एक दूसरे को धक्का देने की प्रतिस्पर्धा से बाहर निकाल कर समान मन से काम करना चाहिए। सत्ता पक्ष प्रतिपक्ष के विचारों का सम्मान करें और प्रतिपक्ष सत्ता पक्ष का। उन्होंने पिछले 10 वर्षों में भारत के विकास की भी चर्चा की है और कहा है कि आधुनिक दुनिया जिन मानकों को मानती है, जिनके आधार पर आर्थिक स्थिति का मापन किया जाता है उनके अनुसार भी हमारी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो रही है। हमारी सामरिक स्थिति निश्चित रूप से पहले से अधिक अच्छी है। 
 
दुनियाभर में हमारे देश की प्रतिष्ठा बढ़ी है। कला क्षेत्र में, क्रीडा क्षेत्र में, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में, संस्कृति के क्षेत्र में हम सब लोग विश्व के सामने आगे बढ़ रहे हैं। विश्व के प्रगत देशों ने भी हमको धीरे-धीरे मानना शुरू किया है। जो कहते हैं कि भागवत ने केवल मोदी और उनकी सरकार को कटघरे में खड़ा किया है, उन्हें भाषण का यह पक्ष भी ध्यान रखना चाहिए। 
 
एक समय शांत होता दिख रहा मणिपुर में फिर से अशांति आई तो इस पर चिंता प्रकट करना वहां शांति स्थापना की अपील है। उनका यही मत है कि सबको ऐसे विषयों को प्राथमिकता में लेकर मिलजुल कर शांति स्थापना के लिए काम करना चाहिए। राजनीतिक विचारधारा से परे हटकर पूरे भाषण को देखें तो इसमें भारत के वर्तमान और भविष्य की चिंता तथा उसके लिए समाज के नीचे से ऊपर तक के व्यक्तियों जिनमें नीति निर्माण करने और उसके लिए दबाव बनाने वाले शामिल हैं, के भी आदर्श और मर्यादित व्यवहार का सूत्र निहित है। 
 
यह केवल राजनीति नहीं समाज के हर सक्रिय पक्ष के लिए है। आप संघ के विरोधी हों या समर्थक उनके पूरे भाषण को सुना और शांत मन से मनन किया जाएगा तो हमें आपको कोई विरोधी या शत्रु सहसा नजर नहीं आएगा तथा सबके अंदर देश के लिए संकुचित स्वार्थ से परे हटकर मिलजुल कर काम करने की भावना सशक्त होगी।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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