अफवाहों पर न जाएं, भारत की अफगान नीति सही

अवधेश कुमार
भारत की अफगानिस्तान और तालिबान संबंधी नीतियों को लेकर जिस तरह के दुष्प्रचार और अफवाह बार-बार सामने आ रहे हैं उनसे आम भारतीय के अंदर भी कई प्रकार की आशंकाएं पैदा हो रही है।

सोशल मीडिया पर सबसे बड़ा प्रचार यह हुआ कि भारत ने तालिबान को मान्यता दे दिया। यह भी कहा जा रहा है कि भारत ने गुपचुप तरीके से तालिबान से बातचीत की और उसके साथ काम करने को तैयार हो गया है।

इसके पहले यह दावा किया जा रहा था कि सुरक्षा परिषद में भारत की अध्यक्षता में ही तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से बाहर कर दिया गया और भारत ने उसका समर्थन किया। इस तरह की खबरें अगर बार-बार सामने आए तो फिर संभ्रम और संदेह पैदा होना बिल्कुल स्वाभाविक है। तो सच क्या है?

सबसे पहले सुरक्षा परिषद संबंधी प्रस्ताव और मान्यता देने की खबरों पर बात करें। 15 अगस्त को तालिबान द्वारा काबुल पर आधिपत्य के बाद अगले दिन भारत की अध्यक्षता में 16 अगस्त को सुरक्षा परिषद की बैठक हुई और जो कुछ भी उसमें हुआ उसे एक बयान के रूप में जारी किया गया। संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टीएस तिरुमूर्ति के हस्ताक्षर से जो बयान जारी किया गया उसे देखिए -- ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आंतकवाद से मुकाबला करने के महत्व का जिक्र किया है।

ये सुनिश्चित किया जाए कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और न ही तालिबान और न ही किसी अन्य अफगान समूह या व्यक्ति को किसी अन्य देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन करना चाहिए।’ दोबारा 27 अगस्त को काबुल हवाईअड्डे पर हुए बम विस्फोटों के एक दिन बाद फिर परिषद की ओर से एक बयान जारी किया गया। इसमें 16 अगस्त को लिखे गए पैराग्राफ को फिर से दोहराया गया।

लेकिन इसमें एक बदलाव करते हुए तालिबान का नाम हटा दिया गया। इसमें लिखा था- ‘सुरक्षा परिषद के सदस्यों ने अफगानिस्तान में आतंकवाद का मुकाबला करने के महत्व को दोहराया ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि अफगानिस्तान के क्षेत्र का इस्तेमाल किसी भी देश को धमकी देने या हमला करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए, और किसी भी अफगान समूह या व्यक्ति को किसी भी देश के क्षेत्र में सक्रिय आतंकवादियों का समर्थन नहीं करना चाहिए।’ तो इतना ही है। इसमें तालिबान को मान्यता देने या तालिबान को आतंकवादी संगठनों की सूची से निकालने की कोई बात नहीं है। यह अफवाह उड़ाने वालों का उद्देश्य क्या हो सकता है इसके बारे में आप अपना निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र है।

भारत ने अपने एक महीने की अध्यक्षता में पहल करके पहले अफगानिस्तान पर बैठक बुलाई और तालिबान का नाम लिए बिना आतंकवाद के बढ़ते खतरे को लेकर दुनिया को आगाह किया और उसमें समर्थन भी मिला। सुरक्षा परिषद का प्रस्ताव 2593 अफगानिस्तान को लेकर भारत की मुख्य चिंताओं को संबोधित करता है। आतंकवाद संबंधी प्रस्ताव पर नजर डालिए --'अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी और देश पर हमले, उसके दुश्मनों को शरण देने, आतंकियों को प्रशिक्षण देने या फिर आतंकवादियों का वित्तपोषण करने के लिए नहीं किया जाएगा।

इस प्रस्ताव में खासतौर पर जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा का भी नाम लिया गया है। आज की परिस्थिति में भारत की दृष्टि से इससे अनुकूल प्रस्ताव पारित नहीं हो सकता था।

अब आएं तालिबान के साथ बातचीत पर। 31 अगस्त को भारतीय विदेश मंत्रालय ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर जानकारी दी कि भारत ने तालिबान से बातचीत की है। विदेश मंत्रालय ने बताया कि कतर में भारत के राजदूत दीपक मित्तल ने तालिबान के दोहा राजनीतिक कार्यालय के प्रमुख शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई से दोहा स्थित भारतीय दूतावास में मुलाकात हुई जिसके लिए तालिबान ने अनुरोध किया था। तालिबान ने इसका खंडन नहीं किया।

चूंकि भारतीय विदेश मंत्रालय ने कहा है कि तालिबान के अनुरोध पर बातचीत हुई यानी भारत ने बातचीत और संपर्क की पहल नहीं की तो इसे शत -प्रतिशत सच मानना ही होगा। बातचीत हुई तो किन विषयों पर? प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार भारतीय राजदूत ने अफगानिस्तान में फंसे भारतीय नागरिकों की सुरक्षा और उनकी भारत वापसी पर विस्तृत बातचीत की तथा कहा कि अफगानिस्तान की जमीन का इस्तेमाल किसी भी तरह से भारत विरोधी गतिविधियों और आतंकवाद के लिए नहीं किया जाना चाहिए।

इसके अनुसार शेर मोहम्मद अब्बास स्तनेकजई ने आश्वासन दिया कि इन मुद्दों को सकारात्मक नजरिए से संबोधित किया जाएगा। ऐसे समय जब चीन, रूस, तुर्की, कतर जैसे देश तालिबान के साथ सहयोगात्मक रवैया अपना चुके हैं अनेक देश उनके साथ काम करने के लिए आगे आ रहे हैं तथा एक बड़े समूह में दुविधा की स्थिति है।

भारत ऐसी बातचीत के प्रस्ताव को ठुकरा कर भविष्य के लिए जोखिम नहीं उठा सकता था। वैसे भी अफगानिस्तान में जो भारतीय हैं उनकी सुरक्षा या उनको वहां से वापस लाने के लिए इस समय तालिबान से ही बात करनी होगी।

भारत का राष्ट्रीय हित इसी में है कि किसी तरह आतंकवादी समूह और पाकिस्तान अफगानिस्तान की भूमि का उपयोग भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए न कर पाए। इसके लिए तालिबान से बातचीत करने में कोई समस्या नहीं है। बातचीत का कतई अर्थ नहीं है कि भारत ने तालिबान को आतंकवादी मानना छोड़ छोड़ दिया या उन्हें बिल्कुल मान्यता ही दे दिया।

तालिबान के नेताओं ने कई बार कहा है कि भारत इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण देश है और हम भारत से अच्छे रिश्ते चाहते हैं। उनके प्रवक्ताओं ने भारत को अपनी परियोजनाओं पर काम जारी रखने को भी कहा है। उनका यह भी बयान आया है कि तालिबान किसी भी देश के विरुद्ध अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं होने देगा। पर तालिबान की विश्वसनीयता इतनी संदिग्ध है कि हम उनके आश्वासन पर एकाएक भरोसा नहीं कर सकते।

एक ओर तालिबान का यह बयान है तो दूसरी ओर यह भी कि जम्मू-कश्मीर सहित दुनिया भर के मुसलमानों के लिए आवाज उठाने का उसे अधिकार है। अल कायदा ने तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज होने के साथ यह भी ऐलान कर दिया है कि जम्मू-कश्मीर को आजाद करने के लिए काम करेगा। तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद का बयान है कि चीन उसका सबसे निकट का साझेदार होगा। उसके अनुसार अफगानिस्तान चीन के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव का अंग बनेगा। तालिबान ने चीन को अपने खनिज पदार्थों के दोहन का भी खुला निमंत्रण दे दिया है।

कहने का तात्पर्य कि भारत के लिए इसमें तत्काल आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति है। यह ऐसा समय है जिसमें भारत के लिए निर्णय करना अत्यंत कठिन है। अगर राजनीतिक मतभेद को अलग कर एक देश के हित के नाते हम विचार करेंगे तो सबका निष्कर्ष यही आएगा। एक बड़े वर्ग का आरोप है कि तालिबान और अफगानिस्तान को लेकर हमारी नीति अस्पष्ट है और यह उचित नहीं है।

अगर थोड़ी गहराई से पिछले कुछ महीनों में तालिबान और अफगानिस्तान के संदर्भ में घट रही घटनाएं तथा तालिबान के आधिपत्य से अब तक भारतीय रवैया पर नजर डालें तो निष्कर्ष थोड़ा अलग आएगा। वास्तव में अस्पष्टता ही इस समय के लिए स्पष्ट नीति है। अस्पष्टता की बात कर आलोचना करने वाले का अपना मत हो सकता है लेकिन विचार तो सारी परिस्थितियों को एक साथ मिलाकर करना होगा। अमेरिका ने भी तालिबान को मान्यता देने या राजनयिक संबंध बनाने की बात नहीं की है। राष्ट्रपति जो बिडेन नहीं कहा है कि तालिबान का चरित्र क्रूर रहा है पहले देखना होगा कि वे अपने को बदलते हैं या नहीं।

जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का भी बयान इतना ही है कि हम तालिबान के साथ बातचीत करना चाहते हैं। इसी तरह का विचार कई देशों का है और ज्यादातर देश अभी इस मामले पर चुप्पी साधे हुए हैं। तालिबान के साथ तुरंत संबंध बनाने का सुझाव किसी दूरगामी विचार विमर्श से नहीं आया। यह कहना आसान है कि भारत की नीति गलत है और हम अफगानिस्तान से बाहर हो गए। यानी अफगानिस्तान में बने रहना है तो तालिबान को मान्यता दे देना चाहिए। यह बात अलग है कि मान्यता देने के अफवाह में भी इसके विरुद्ध तीखे स्वर ही हैं।

भारत के लिए यह तो जरूरी है कि किसी न किसी माध्यम से वह वहां संपर्क और संवाद में रहे। स्तनेकजई इसके लिए एक बेहतर व्यक्तित्व है। सैनिक जनरल का उनका प्रशिक्षण देहरादून स्थित इंडियन मिलिट्री अकादमी में हुआ। इस कारण भारत से उनके संबंध पुराने हैं। भारत के अनेक वर्तमान और पूर्व जनरलों से उनके व्यक्तिगत रिश्ते हैं।

दोहा में भारतीय राजदूत से मुलाकात के पहले ही एक वीडियो संदेश में कहा था कि भारत के साथ हम व्यापारिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को बहुत अहमियत देते हैं और इस संबंध को बनाए रखना चाहते हैं। स्तनेकजई ने भारत द्वारा बनाए जा रहे चाबहार बंदरगाह को भी उन्होंने महत्वपूर्ण बताया। हम जानते हैं कि चाबहार बंदरगाह और उससे जुड़ी परियोजनाएं कारोबारी और रणनीतिक दृष्टि से कितने महत्वपूर्ण हैं। कोई तालिबान नेता इन सबके पक्ष में बयान दे रहा है और वह भारत से बातचीत का आग्रह करता है तो उसे हर दृष्टि से स्वीकार किया जाना चाहिए था।

इस नाते भारत का यह बिल्कुल सही कदम था। 15 अगस्त को काबुल पर तालिबान के कब्जे के बाद भारत ने जब दूतावास खाली करना शरू किया था तब स्तनेकजई की तरफ से ही भारतीय अधिकारियों से संपर्क साधा गया था और कहा गया था कि भारत अपना दूतावास बंद नहीं करे।

भारत इन परिस्थितियों में कोई जोखिम नहीं उठा सकता। हम चीन नहीं हैं जिसके लिए पाकिस्तान लगातार सक्रिय था और उसके माध्यम से चीन का तालिबानों के साथ तालमेल भी बन गया। भारत कतर और तुर्की भी नहीं है। अफगानिस्तान पर सर्वदलीय बैठक में सरकार की ओर से विदेश मंत्री एस जयशंकर ने स्पष्ट कहा कि हम लगातार सक्रिय हैं, हमारे लिए राष्ट्रीय सुरक्षा प्राथमिकता है और इसके बाद हमारी व्यापारिक-रणनीतिक और अन्य आवश्यकताएं भी अफगानिस्तान से जुड़ी हैं। लेकिन आज की परिस्थितियों में तालिबान के नेतृत्व को लेकर हम जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं करना चाहते। इसलिए वेट एंड वॉच यानी लगातार नजर रखना और समय की प्रतीक्षा करने की नीति पर चल रहे हैं।

भारत के लिए इस समय यही सर्वाधिक सुसंगत और उपयुक्त नीति मानी जाएगी। लेकिन परिस्थिति बिल्कुल अलग है। हमारे लिए अफगानिस्तान में तालिबानों का आधिपत्य सबसे ज्यादा चुनौतियां का प्रश्न बन गया है। ऐसे समय अत्यंत ही सधे हुए और परिपक्व विचार एवं व्यवहार की आवश्यकता है। अफवाह उड़ाने, अनावश्यक निंदा करने से देश को क्षति होगी। भारत की छवि कमजोर होती है।

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