अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस कैसे मनाएं हम, जब सुरक्षित ही नहीं हैं बेटियां

स्मृति आदित्य
आज अंतरराष्ट्रीय बेटी दिवस है और मेरे सामने से अभी गुजरी है वह खबर जिसमें क्रिकेटर महेन्द्र सिंह धोनी की प्यारी सी बेटी के बारे में इतनी गिरी हुई बात लिखी है जिसे मैं अपनी कलम की नोंक पर लाने में भी शर्म महसूस कर रही हूं... खबर पता सबको है लेकिन विरोध बस वहां सिमट कर रह गया है जहां धोनी को पसंद करने वाले और ना पसंद करने वाले बंटे हैं। 
 
हाथरस में अंधेरे में जला दी गई बेटी की राख बुझ चुकी है, वह ऑनर कीलिंग है या रेप के बाद हत्या... या कुछ और... नहीं जानती मैं, लेकिन एक बेटी मरी है, मार दी गई है या मरवा दी गई है.. बस इस सच को जानती हूं मैं... 
 
कैसे मनाएं हम बेटी दिवस, बेटी का दिवस जब हर दिन हर रोज तिल तिल कर बेटियां मारी जा रही है... बार-बार लगातार....नवरात्रि आरंभ होगी तो 9 दिन पूजी जाएंगी कन्याएं, ढूंढ-ढूंढकर लाई जाएंगी कन्याएं....तस्वीरें सजी मिलेंगी कन्या पूजन की... लेकिन हाय रे यथार्थ .... 
 
देह से नहीं तो गंदे शब्दों से, विकृत मानसिकता से, सड़ी हुई सोच से, विचित्र विचारों से और लूट लेने वाली नजरों से... बेटियां रोज मारी जा रही हैं... कैसे कहें हम कि मेरे घर आई एक नन्ही परी, जब कि उस परी के पंखों को तोड़ देने का माहौल हमारे आसपास पसरा हुआ है...

कैसे बांधें हम उसके कोमल पैरों में रूनझुन पायल जबकि जंजीरें सदियों से हमने खोली नहीं है...

कैसे पहना दूं मैं उसके हाथों में रंगबिरंगी चू‍ड़ियां जबकि समाज की बेड़ियां खोल देने की ताकत नहीं जुटा सकी हूं,

कैसे लगाऊं उसके माथे पर कुमकुम जबकि समाज के माथे पर कलंक के इतने टीके लगे हैं...
 
चाहती हूं उसे महावर रचाना, मेहंदी सजाना पर हर दिशा में उसके खून के छींटे बिखरे हैं... चाहती हूं हर आंगन में ठुमके, इठलाए एक खूबसूरत नाजों से पली चमकते चांद सी बिटिया पर हर तरफ आवाजें हैं सियारों की,  नजरे हैं गिद्धों की, मंडरा रहे हैं चमगादड़...

कहां रखेंगे हम फूल पर सजी नाजुक ओस की बूंद को कि  मर्यादाहीनता की जलती‍ धूप में नहीं रह सकेगी वो...
झूलस रही हैं हमारे आंगन की कलियां खिलने से पहले, मुरझा रही हैं हर दिन हर रोज किसी के बाग की हरी डाली....  
 
सूख रही है मीठे पानी की झील सी कलकल करती बेटियां, हर तरफ नोंची जा रही हैं उसकी बोटियां... 
 
मैं चाहती हूं सकारात्मक सोचूं अपनी बेटियों के लिए पर थक जाती है मेरी सोच किसी हैदराबाद, हाथरस और होशियारपुर की घटना को सुनकर.... कहां से लाएं हम खुशियां, खूबसूरती और खिलखिलाती सुबह बेटियों के लिए जबकि हर दिन खरोंच जाती है कोई एक बेटी की खराब खबर मेरे इस समाज को.... 
 
शुभकामनाएं देना चाहती हूं पर शब्द उलझ जाते हैं आपस में, दिल में उमड़-घुमड़ मच जाती है  नग्न सच को देखकर... कहां से लाऊं वो जादू की छड़ी कि बदल जाए बेटी के प्रति सोच, विचार, संस्कार, भाषा,शब्द, इज्जत और नजरें. . बस एक ही पल में....एक ही बार में... बिटिया दिवस शुभ होगा जब हम सब अपने अपने स्तर पर बेटियों के हक में थोड़ा-थोड़ा बोलें, थोड़ा-थोड़ा सोचें और थोड़ा-थोड़ा ही सही पर प्रयास तो करें...  

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