1 मई मजदूर दिवस : मजदूरों के दम से ही तरक्की है

फ़िरदौस ख़ान
किसी भी देश के विकास में मजदूरों की सबसे बड़ी भूमिका है। ये मजदूर ही हैं, जिनके खून-पसीने से विकास की प्रतीक गगनचुंबी इमारतों की तामीर होती है। ये मजदूर ही हैं, जो खेतों में काम करने से लेकर किसी आलीशान इमारत को चमकाने का काम करते हैं। इस सबके बावजूद सरकार और प्रशासन से लेकर समाज तक इनके बारे में नहीं सोचता। बजट में भी सबसे ज्यादा इन्हीं की अनदेखी की जाती है। सियासी दल भी चुनाव के वक्त तो बड़े-बड़े वादे कर लेते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही सब भूल जाते हैं। रोजगार की कमी की वजह से लोगों को अपने पुश्तैनी गांव-कस्बे छोड़कर दूर-दराज के इलाकों में जाना पड़ता है। अपने परिजनों से दूर ये मजदूर बेहद दयनीय हालत में जीने को मजबूर हैं।

 
बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लाखों लोग मध्य भारत के हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों में रोजगार की तलाश में आते हैं। इनमें से कुछ लोग यहां की छोटे-बड़े कारखानों में नौकरी कर लेते हैं, तो कुछ अपना कोई छोटा-मोटा धंधा कर लेते हैं। कोई रिक्शा चलाता है, कोई फल-सब्जी बेचता है, तो कोई मजदूरी करने लगता है। इन सभी का बस एक ही मकसद होता है कि कुछ पैसे कमाकर अपने घर को भेज दिए जाएं। अफसोस की बात है कि ज्यादातर बाहरी मजदूरों के पास रहने का ठिकाना तक नहीं है।

दिल्ली में ऐसे हजारों मजदूर हैं, जो सड़कों पर ही रहते हैं, जहां भी जगह मिल जाती है, बस वहीं सो जाते हैं। सर्दियों में उन्हें रैन बसेरों का आसरा होता है। मगर कई बार वहां भी इतनी भीड़ हो जाती है कि जगह ही नहीं मिल पाती। ऐसे में वे किसी पुल के नीचे ही आश्रय तलाशते हैं। गर्मियों की रातें किसी पेड़ की छाया तले या फुटपाथ पर कट जाती हैं। इसी तरह वे बरसात में भी कहीं न कहीं सर छुपाने की जगह तलाश ही लेते हैं। 
 
कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की हालत भी अच्छी नहीं है। कारखाने में दिनभर मेहनत करने के बावजूद उन्हें बहुत कम तनख्वाह मिलती है। इसलिए ज्यादातर मजदूर ओवर टाइम करते हैं। छोटे-छोटे दड़बानुमा कमरों में कई-कई मजदूर रहते हैं। नियुक्तियां ठेकेदारों के जरीए होती हैं, इसलिए उन्हें कोई सुविधा नहीं दी जाती। इतना ही नहीं, उनकी नौकरी भी ठेकेदार की मर्जी पर ही निर्भर करती है, वह जब चाहे उन्हें निकाल सकता है। अकसर कारखानों में छंटनी भी होती रहती है। जब काम कम होता है, तो मजदूरों को नौकरी से निकाल दिया जाता है। ऐसी हालत में उनके सामने एक बार फिर से रोजी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है।

 
भवन निर्माण में लगे मजदूरों की हालत और भी बदतर है। देश में हर साल काम के दौरान हजारों मजदूरों की मौत हो जाती है। सरकारी, अर्द्ध सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में काम करते समय दुर्घटनाग्रस्त हुए लोगों या उनके आश्रितों को देर सवरे कुछ न कुछ मुआवजा तो मिल ही जाता है, लेकिन दिहाड़ी मजदूरों को कुछ नहीं मिल पाता। पहले तो इन्हें काम ही मुश्किल से मिलता है और अगर मिलता भी है तो काफी कम दिन। अगर काम के दौरान मजदूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं, तो उन्हें मुआवजा भी नहीं मिल पाता। देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए हैं या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन अब कोई भी उनकी सुध लेने वाला नहीं है।
 
 
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से हर साल करीब 22 लाख मजदूर मारे जाते हैं। इनमें करीब 40 हजार मौतें अकेले भारत में होती हैं, लेकिन भारत की रिपोर्ट में यह आंकड़ा हर साल केवल 222 मौतों का ही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया में हर साल हादसों और बीमारियों से मरने वालों की तादाद 22 लाख से ज्यादा हो सकती है, क्योंकि बहुत से विकासशील देशें में सतही अध्ययन के कारण इसका सही-सही अंदाजा नहीं लग पाता।

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक के मुताबिक कार्यस्थलों पर समुचित सुरक्षा प्रबंधों के लक्ष्य से हम काफी दूर हैं। आज भी हर दिन कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से दुनियाभर में पांच हजार महिला-पुरुष मारे जाते हैं। औद्योगिक देशों खासकर एशियाई देशों में यह संख्या ज्यादा है। रिपोर्ट में अच्छे और सुरक्षित काम की सलाह के साथ-साथ यह भी जानकारी दी गई है कि विकासशील देशों में कार्यस्थलों पर संक्रामक बीमारियों के अलावा मलेरिया और कैंसर जैसी बीमारियां जानलेवा साबित हो रही हैं। अमूमन कार्य स्थलों पर प्राथमिक चिकित्सा, पीने के पानी और शौचालय जैसी सुविधाओं का घोर अभाव होता है, जिसका मजदूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। 
 
हमारे कार्यस्थल कितने सुरक्षित हैं, यह बताने की जरूरत नहीं है। ऊंची इमारतों पर चढ़कर काम कर रहे मजदूरों को सुरक्षा बैल्ट तक मुहैया नहीं कराया जाता है। पटाखा फैक्ट्रियों, रसायन कारखानों और जहाज तोड़ने जैसे कामों में लगे मजदूर सुरक्षा साधनों की कमी के कारण हुए हादसों में अपनी जान गंवा बैठते हैं। भवन निर्माण के दौरान मजदूरों के मरने की खबरें आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं। इस सबके बावजूद मजदूरों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता।
 
 
दरअसल, देशी मंडी में भारी मात्रा में उपलब्ध सस्ता श्रम विदेशी निवेशकों को भारतीय बाजार में पैसा लगाने के लिए आकर्षित करता है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण भी वे मजदूरों का शोषण करके ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोरना चाहते हैं। अर्थशास्त्री रिकार्डो के मुताबिक मजदूरी और उनको दी जाने वाली सुविधाएं बढ़ती हैं, तो उद्योगपतियों को मिलने वाले फायदे का हिस्सा कम होगा। हमारे देश के उद्योगपति ठीक इसी नीति पर चल रहे हैं। औद्योगीकरण ने बंधुआ मजदूरी को बढ़ावा दिया। देश में ऐसे ही कितने भट्‌ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहां मजदूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मजदूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती।


अफसोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के जरिए  प्रशासन पर दबाव बनाते हैं, तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। मजदूर सुरेंद्र कहता है कि मजदूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्‌ठों का रुख करते हैं, मगर यहां भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मजदूर बीमार हो जाए, तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता।

 
दरअसल, अंग्रेजी शासनकाल में लागू की गई भूमि बंदोबस्त प्रथा ने भारत में बंधुआ मजदूर प्रणाली के लिए आधार प्रदान किया था। इससे पहले तक जमीन को जोतने वाला जमीन का मालिक भी होता था। जमीन की मिल्कियत पर राजाओं और उनके जागीरदारों का कोई दावा नहीं था। उन्हें वही मिलता था जो उनका वाजिब हक बनता था और यह कुल उपज का एक फीसद होता था। हिन्दू शासनकाल में किसान ही जमीन के स्वामी थे। हालांकि जमीन का असली स्वामी राजा था। फिर भी एक बार जोतने के लिए तैयार कर लेने के बाद वह मिल्कियत किसान के हाथ में चली गई।

राजा के आधिराज्य और किसान के स्वामित्व के बीच किसी भी तरह का कोई विवाद नहीं था। वक्त के साथ राजा और राजत्व में परिवर्तन होता रहा, लेकिन किसानों की जमीन की मिल्कियत पर कभी असर नहीं पड़ा। राजा और किसान के बीच कोई बिचौलिया भी नहीं था। भूमि प्रशासन ठीक से चलाने के लिए राजा गांवों में मुखिया नियुक्त करता था, लेकिन वक्त के साथ इसमें बदलाव आता गया और भूमि के मालिक का दर्जा रखने वाला किसान महज खेतिहर मजदूर बनकर रह गया।

 
यह अफसोस की बात है कि आजादी के इतने सालों बाद भी हमारे देश में मजदूरों की हालत बेहद दयनीय है। हालांकि मजदूरों के कल्याण के नाम पर योजनाएं तो कई बनीं, लेकिन उनका फायदा मजदूरों तक नहीं पहुंच पाया। जब मजदूर भला चंगा होता है, तो वह जैसे-तैसे मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेता है, लेकिन दुर्घटनाग्रस्त होकर या बीमार होकर वे काम करने काबिल नहीं रहता, तो उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है। सरकार को चाहिए कि वह मजदूरों को वे तमाम बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराए, जिनकी उन्हें जरूरत है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब तक देश का मजदूर खुशहाल नहीं होगा, तब तक देश की खुशहाली का तसव्वुर करना भी बेमानी है।
 
(लेखिका स्टार न्यूज एजेंसी में संपादक हैं)


(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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