ज्ञानवापी व्यास तलघर पर न्यायिक आदेश के मायने

अवधेश कुमार
Gyanvapi Vyas Basement : वाराणसी के ज्ञानवापी व्यास तलगृह या तहखाना में फिर से विधिपूर्वक पूजा पाठ शुरू होना कायदे से स्वागतयोग्य और राहतकारी घटना मानी जानी चाहिए। किंतु देश में कुछ लोग और संगठन हर हाल में झूठ को सच और सच को झूठ बनाए रखने पर उतारू हैं तो विवाद बिल्कुल स्वाभाविक है। कुछ मुस्लिम संगठनों और नेताओं ने इसे इस तरह प्रस्तुत किया है मानो न्यायालय ने बिल्कुल गलत तरीके से हिंदू पक्ष की अपील को स्वीकार कर पूजा पाठ का आदेश दिया है। 
 
ज्ञानवापी मस्जिद वाकई मस्जिद ही था या आदि विश्वेश्वर का मूल स्थान इस पर न्यायालय में सघन बहस चल रही है। प्रदेश और विश्व भर में फैले भारतवंशी न्यायालय के आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बावजूद क्या वाकई व्यास तहखाना में पूजा पाठ का आदेश जल्दीबाजी में दिया गया और एकपक्षीय है? 
 
जिन लोगों ने वाराणसी के जिला न्यायालय से लेकर उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय में ज्ञानवापी संबंधित मामलों की बहस पर दृष्टि रखी है उन्हें पता है कि इस एक सामान्य आदेश के लिए भी कितना परिश्रम करना पड़ा है। न्यायालय कभी बिना तथ्यों और साक्ष्यों के कोई आदेश नहीं दे सकता। ऐसा कोई आदेश देगा तो ऊपर के न्यायालय में वह निरस्त हो जाएगा।
 
उत्तर प्रदेश में 1993 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सरकार गठित होने तक ज्ञानवापी व्यास तलगृह में पूजा-पाठ हो रही थी। अचानक उसे प्रशासन ने बंद कर दिया। क्यों बंद कराया इसका कोई उत्तर सरकार और प्रशासन के पास नहीं था। वास्तव में सरकार ने न कोई लिखित आदेश दिया और न कभी इसके बारे में कोई स्पष्टीकरण। हां, 15 अगस्त, 1993 को मुख्यमंत्री के रूप में मुलायम सिंह यादव का एक संबोधन था जिसमें वह कह रहे थे कि सांप्रदायिक शक्तियों पर नियंत्रण करना जरूरी था। 
 
सांप्रदायिक शक्तियों से उनका तात्पर्य उस समय उन हिंदू संगठनों से था जो अयोध्या में श्रीराम मंदिर आंदोलन में शामिल थे। 6 दिसंबर, 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद देश का माहौल ऐसा बना दिया गया था जिसमें सरकारें हिंदू धर्म स्थलों के विरुद्ध जाकर भी अल्पसंख्यकों में मुसलमान के हित के नाम पर कोई कदम उठाएं सबल प्रतिकार संभव नहीं था।

गैर भाजपा दलों में इस बात को लेकर प्रतिस्पर्धा थी कि कौन कितना अल्पसंख्यकों या मुसलमान के पक्ष में तथा भाजपा, संघ और अन्य हिंदू संगठनों के विरुद्ध जा सकता है। उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री होने के कारण मुलायम सिंह यादव उस समय अल्पसंख्यकों के हीरो बने थे, क्योंकि उन्होंने इसके पूर्व कारसेवकों पर गोलियां भी चलवाई थी। प्रदेश के मुसलमानों का वोट पूरी तरह उनके पक्ष में ध्रुवीकृत था और इसीलिए कांग्रेस हाशिए में चली गई थी। इसमें मुलायम सिंह यादव सरकार ने कई फैसले किए जिनमें व्यास तहखाने के साथ मां श्रृंगार गौरी की पूजा अर्चना को प्रतिबंधित करना भी शामिल था।
 
सच यह है कि अगर ठीक से इसके विरुद्ध आवाज उठती तथा न्यायालय में उस समय भी मुकदमा लड़ा गया होता तो पूजा आरंभ हो जाता। पर वह समय ऐसा नहीं था कि कोई राजनीतिक दल इसके विरुद्ध आवाज़ उठाए या न्यायालय में प्रभावी लोग इस विषय को लेकर जाएं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि पर प्रतिबंध लगा चुका था। दूसरे छोटे बड़े हिंदू या सनातनी संगठनों में क्षमता नहीं थी कि वो सरकार के विरुद्ध उठ खड़े हों। 
 
अब समय बदल चुका है। लोग ऐसे मामलों को ढूंढ-ढूंढ कर सामने ला रहे हैं जिनके पीछे कोई मान्य कानूनी आदेश नहीं था या कानून और संविधान को परे रख आदेश दिए गए या विधान बनाए गए। 1991 पूजा स्थल कानून या फिर वक्फ संपत्ति कानून आदि का विरोध हमारे सामने है। स्वतंत्रता के बाद सात दशक से ज्यादा के कानूनी संघर्ष के बाद 2019 में उच्चतम न्यायालय द्वारा अयोध्या मामले में मंदिर के पक्ष में दिए गए फैसले से लोगों को उम्मीद जगी कि अब अन्य ऐसे धर्म स्थलों के संदर्भ में भी न्याय होगा। इसलिए अब सारे मुकदमे प्रभावी तरीके से लड़े जा रहे हैं। 
 
वास्तव में सच्चाई तो यही है कि चाहे अयोध्या हो काशी या मथुरा या ऐसे कुछ अन्य क्षेत्र इन मामलों में मुस्लिम पक्ष का दावा हर दृष्टि से कमजोर है। आम सनातनी या हिंदू के संस्कार में यह है ही नहीं कि किसी दूसरे मजहब के मान्य स्थलों के विरुद्ध आवाज़ उठाए या उन्हें कब्जे में लेने की कोशिश करे। हमारे संस्कार में सभी पंथों, मजहबों को सम्मान देना, उनके प्रति श्रद्धा बनाए रखना शामिल है। इसलिए यह आरोप गलत है कि मस्जिदों या दूसरे धर्म स्थलों पर कब्जे की होड़ चल रही है। ऐसा एक भी उदाहरण नहीं होगा जहां जबरन दूसरे धर्म स्थलों पर कब्जे की कोशिश हुई हो। अगर कोई ऐसा करता है तो देश उसके विरुद्ध उठ खड़ा होगा। 
 
काशी और मथुरा का मामला बिल्कुल अलग है। अगर व्यास तहखाना पहले से पूजा अर्चना नहीं हो रही होती तो कोई न्यायालय जाता ही नहीं। यही बात मां श्रृंगार गौरी के संदर्भ में भी है। व्यास तहखाना में पूजा अर्चना अंग्रेजों के समय भी होती थी। जब-जब इस पर विवाद हुए, न्यायालयों में या सरकारी विभागों में मामले गए उनके भी दस्तावेज उपलब्ध हैं। जिला न्यायालय में वे सारे प्रस्तुत किए गए। 
 
सारे तथ्यों को देखकर ही न्यायालय ने 17 जनवरी, 2024 को वाराणसी के जिला अधिकारी को उस स्थान का रिसीवर नियुक्त किया। इसके आधार पर जिलाधिकारी ने 23 जनवरी को ज्ञानवापी परिसर को अपने कब्जे में लिया। जब न्यायालय ने पूजा पाठ का आदेश दिया तो उसको पूरा करने में कोई समस्या नहीं थी। कई सौ वर्षों से पूजा पाठ की कर्मकांडीय पद्धति विकसित है। व्यास परिवार में तलगृह के पूजा का उत्तराधिकारी विषय में पारंगत होता है। 
 
स्वाभाविक ही तालगृह में पूजा बंद होने के बावजूद अलग प्रतीक के रूप में उसी पद्धति से पूजा होती रही थी। इसलिए जैसे ही आदेश हुआ पूजा पाठ शुरू हो गया। इतनी जल्दी पूजा पाठ शुरू करने पर प्रश्न उठाने वाले नहीं जानते कि किसी स्थान को कब्जे में लेने के बावजूद भक्त अपने तरीके से पूजा पाठ कहीं न कहीं जारी रखते हैं। साकार और निराकार दोनों उपासनाएं हमारे यहां मान्य हैं।

अगर विग्रह साकार उपलब्ध नहीं है तो फिर ध्यान में उनको सामने लाना और पूजा करना सनातन में एक सामान्य स्थिति है। नए सिरे से केवल उस जगह की साफ-सफाई या विग्रहों का श्रृंगार भर करना था।‌ वर्षों से पूजा पाठ के लिए तरस रहे भक्तों के अंदर वेदना तो थी ही। वे पूरे भाव और संसाधन के साथ खड़े हो गए। चूंकि सनातन समाज अब अपने धर्म स्थलों को लेकर जागरूक व सतर्क है, इसलिए शेष व्यवस्थाओं में कहीं कोई समस्याएं नहीं आती।
 
इसमें आदेश को चुनौती देने की याचिकाएं ऊपर के न्यायालय स्वीकार कर सकते हैं किंतु सच्चाई से फैसला कोई न्यायालय नहीं दे सकता। जिस पूजा पाठ के लिए व्यास परिवार के पिछले कई सौ वर्षों के पूजारियों के नाम तक उपलब्ध हैं उनको झुठलाने की कोशिश दिल दहलाने वाली है।

आज की पीढ़ी को पूर्व में किए गए किसी अपराध के लिए दोषी नहीं माना जा सकता। किंतु इतिहास में जिन ने ऐसे स्थलों पर कब्जा कर ध्वस्त किया, मनमाना निर्माण कराया, कुछ संगठन और मजहबी या अन्य व्यक्ति उस पर इस दावा करते हैं या उनसे अपने को जोड़ते हैं तो यह हर भारतीय के लिए क्षोभ और चिंता का विषय बनता है। काशी और मथुरा के मामले को गलत दिशा देने के दुष्प्रयास हो रहे हैं। 
 
व्यास तलघर में पूजा आरंभ होने के बाद हिंदुओं या सनातनियों की उमड़ती भाव विह्वल भीड़ समझ में आती है। इनमें अनेक की आंखों से छलकते हुए आंसू कोई भी देख सकता है। इसके समानांतर भारी संख्या में वहां अलग-अलग जगहों से नमाज के लिए लोगों को एकत्रित करना दुर्भाग्यपूर्ण है।

भारत के दुरगामी हित में यही है कि न्यायालय में मामले हैं तो उनके आदेश को स्वीकार करने का संस्कार सभी विकसित करें। इन स्थलों के हो रहे सर्वे और न्यायालयों के आदेश बता रहे हैं कि अतीत में मजहब के आधार पर कुछ ऐसे बड़े अपराध और अन्याय हुए जिनका परिमार्जन आवश्यक है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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