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प्रधानमंत्री मोदी ने मां के सम्मान को पुनर्प्रतिष्ठित किया

अवधेश कुमार
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मां हीराबेन सौ वर्ष की भरपूर जिंदगी जी कर विदा हुई हैं। इस कारण उनका जाना शोक में विह्वल होने का कारण नहीं हो सकता। बावजूद प्रधानमंत्री मोदी के लिए यह कितनी बड़ी क्षति है, इसका अनुमान वही लगा सकते हैं जिनका अपना निजी परिवार नहीं हो। ऐसा व्यक्ति चाहे जितना बड़ा हो मां के चले जाने के बाद उसके सामने स्पष्ट हो जाता है कि अब उसका अपना कोई नहीं। इसमें अंतर्मन से कोई कितना विह्वल हो सकता है, इसकी सामान्य तौर पर कल्पना नहीं की जा सकती।

गुजरात के मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री बनने तक नरेंद्र मोदी के मां के साथ समय बिताने पर दृष्टि रखने वाले जानते हैं कि दोनों के बीच कितना गहरा लगाव था। भले मोदी जी के आंखों से आंसू टपकते नहीं दिखे हो पर अंतर्मन की वेदना कोई महसूस कर सकता है। हालांकि अपने चरित्र और संगठन के संस्कार के अनुरूप उन्होंने व्यवहार में इस वेदना को हाबी नहीं होने दिया।

बतौर प्रधानमंत्री अपने सारे कार्यक्रम पूर्ववत रखे। हां, कोलकाता जाने की जगह अहमदाबाद से ही वर्चुअली सारे कार्यक्रमों को अंजाम दिया। वह चाहते तो आसानी से कार्यक्रमों को टाल सकते थे। इस पर कोई टीका टिप्पणी भी नहीं होती और अस्वाभाविक भी नहीं माना जाता। लेकिन नेता की पहचान ऐसे ही समय होती है। एक ओर मां की चिता को अग्नि देना और दूसरी ओर वर्चुअल रेल को हरी झंडी दिखाने के साथ परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास तथा पहले की तरह ही संपूर्ण भाषण। इस भूमिका ने प्रधानमंत्री के कद को और ज्यादा उठा दिया है।
वास्तव में मां हीराबेन के अस्पताल में भर्ती होने, मृत्यु, अंतिम संस्कार, मुखाग्नि से लेकर सरकारी कार्यक्रमों में भागीदारी में प्रधानमंत्री मोदी ने असीम संतुलन का परिचय दिया है।

एक ओर पुत्र के रूप में मातृ ऋण से मुक्ति की पूरी अंतिम क्रिया और दूसरी ओर देश के प्रति दायित्व का संपूर्ण निर्वहन। जब हीराबेन मोदी की मृत्यु की खबर आई तो हमारे आपके मन में धारणा यही थी कि बड़े तामझाम और भारी भीड़ में शव यात्रा निकलेगी, देश के नेताओं की लंबी कतार वहां श्रद्धांजलि के लिए होगी आदि आदि। किंतु पहले मोदी जी ने सब को संदेश दिया कि अपने अपने यहां रहे और सारे तय कार्यक्रमों को अंजाम दें। उन्हें इसका आभास था कि इतना संदेश देने के बावजूद अगर अंतिम क्रिया जल्दी न की गई तब भी काफी बड़ी संख्या में लोग आ जाएंगे। 3:30 बजे भोर में मृत्यु की सूचना मिली और प्रधानमंत्री 7:30 में पहुंचे तथा परिवार एवं रिश्तेदारों की सीमित मंडली में अंतिम संस्कार किया। उच्च पदों पर कायम दूसरे नेताओं और शीर्ष व्यक्तित्व के लिए भी यह उदाहरण है।

वर्तमान राजनीति में शीर्ष पदों पर बैठे लोगों में ऐसे उदाहरण कम ही होंगे जब अपने माता-पिता या निकटतम संबंधी की अंतिम क्रिया को इतने सरल साधारण ढंग से पूरा किया गया हो। जलती चिता के समक्ष प्रधानमंत्री के बड़े भाई फफक कर रो पड़े लेकिन उन्होंने अपनी भावनाओं पर नियंत्रण बनाए रखा। स्वयं मुखाग्नि देकर यह भी बताया कि मां से उनका कितना गहरा लगाव था। उनके बड़े भाई और छोटे भाई दोनों थे। ऐसा भी नहीं कि कर्मकांड में कोई कमी हो रही हो। सिर से लेकर दाढ़ी, मूछों तक के मुंडन की भी तस्वीरें हमारे समक्ष आ चुके हैं।
ऐसा शायद ही कोई व्यक्ति हो जिसका अपनी मां के साथ गहरा लगाव न हो। इस मायने में हम कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यदि अपनी मां के साथ इतना लगाव था तो इसमें विशेष कुछ भी नहीं।

जरा इसके दूसरे पक्ष को भी देखिए। हम में से आज ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी व्यस्तता में से माता-पिता के लिए समय निकाल लेते हैं? अगर पारिवारिक जीवन हो तो शायद माता -पिता को कुछ लोग साथ रख भी लें। नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे। जाहिर है, उन्होंने परिवार का परित्याग किया और अघोषित रूप से प्रचारक संन्यस्त जीवन जीता है। वह भगवाधारी संन्यासी नहीं होता लेकिन भाव यही रहता है कि संपूर्ण जीवन देश के लिए है जिसमें परिवार के उतना ही स्थान है जितना अन्य परिवारों के लिए। इस प्रकार के जीवन को निकट से देखने वाले लोग समझ सकते हैं की नरेंद्र मोदी जी ने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री रहते हुए मां के साथ संबंधों का जिस तरह निर्वहन किया वह सामान्य बात नहीं है।

बार-बार उनसे मिलने जाना, बैठकर बातें करना, साथ में खाना, मां से आशीर्वाद लेना आदि सामान्य तस्वीरें हो या लाइव पूरे देश को भावुक बनाते थे। विरोधियों ने इसकी आलोचना भी की। इसे नाटक तक करार दिया गया। कई नेताओं ने यह टिप्पणी की कि राजनीति के लिए मोदी अपनी मां तक का उपयोग कर रहे हैं। लेकिन देश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जिन्होंने इससे प्रेरणा ली। अनेक ऐसे लोग जो कभी अपने माता-पिता से बात करने तक का समय नहीं निकाल पाते थे उन्होंने उनका ध्यान रखना शुरु कर दिया। ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या होगी जिन्होंने अपने माता-पिता को साथ ला कर रखा तो कुछ ने गांव या शहरों में अपने माया पिता और पिता के पास जाना नियमित रूटीन बना लिया।

कोई यदि इस पर शोध करें तो विरोधियों के लिए चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे। प्रधानमंत्री को मां के बीमार पड़ने की जैसे सूचना मिली वह स्वयं भागे भागे अस्पताल पहुंचे। वे नहीं भी जा सकते थे और दिल्ली से ही सारी जानकारी लेकर व्यवस्था कर सकते थे। आजकल ऐसा ही आमतौर पर किया जाता है। किंतु वहां जाकर उन्होंने जो संदेश दिया उसका लाखों लोगों के मन पर लंबे समय तक असर रहेगा और वह भी उन परिस्थितियों में ऐसा ही करेंगे। देश और समाज का काम करने वाले लोग भी ऐसा ही मानते हैं कि उनकी कोई दूसरी जिम्मेवारी नहीं लिस्ट ऑफ मोदी ने अपने व्यवहार से इस सोच को बदलने में भूमिका निभाई है।

कहा गया है 'नास्ति मातृसमा छाया नास्ति मातृसमा गतिः। नास्ति मातृसमं त्राणं नास्ति मातृसमा प्रपा।।'

अर्थात् मां के जैसा ना कोई छाया दे सकता है, न ही कोई आश्रय ही दे सकता है और मां के समान न ही कोई हमें सुरक्षा दे सकता है। मां इस पूरे ब्रह्मांड में जीवनदायिनी है और उसके जैसा कोई दूसरा नहीं है।' मोदी ने बिना कुछ बोले देश में मां के इस सम्मान को नए सिरे से प्रतिस्थापित करने कोशिश की। जब मोदी ने बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का आह्वान किया और बेटियों के साथ तस्वीरें शेयर करने की अपील की तब भी बड़ी आलोचना हुई। किंतु समाज में बेटियों के महत्व को नए सिरे से स्वीकारने में उस अभियान की बड़ी भूमिका रही है। कहा गया है कि अगर स्त्री ने हो तो सृष्टि की रचना ही संभव नहीं होती। ब्रह्मा विष्णु और महेश भी सृष्टि की रचना नहीं कर सकते थे। किंतु यह कहावत पुस्तकों में सिमटी और हमारे समाज में स्त्रियां महत्वहीन होतीं गईं।

हमने देखा है कि माता-पिता को महत्व न दिए जाने के कारण भारत की परिवार परंपरा ध्वस्त हुई और इसका भयानक असर हुआ है। केवल कहने भर से कि संयुक्त परिवार की ओर लौटें यह संभव नहीं हो सकता। मां का अगर घर में सम्मान है तो नई पीढ़ी उसे देखकर अपने घर के बड़े बुजुर्गों, मां-बाप, दादा-दादी सबका सम्मान करने लगती है। कारण, उन्होंने यही देखा। यह भाव धीरे-धीरे परिवारों से खत्म हो रहा था, इसलिए आने वाली पीढ़ी का भी अपने माता-पिता, दादा-दादी के साथ जुड़ाव नहीं होता था। आठ वर्षों में नरेंद्र मोदी ने मां के साथ व्यवहार की जो तस्वीरें हमारे सामने रखी उन्होंने सामूहिक रूप से भारत का मानस बदला है।

लाखों की संख्या में नई पीढ़ी को घर के बड़े माता-पिता ही नहीं घर के बड़े बुजुर्गों का सम्मान करने, उनके साथ भावनात्मक रूप से जुड़ने को प्रेरित किया है। जब मोदी मां का पैर धो कर उससे चरणामृत की तरह आंखों में लगा रहे थे तो क्या विरोधियों की तरह आम लोगों ने उसे नाटक माना? सच तो यह है कि इसे देखकर लाखों लोगों की हिचक दूर हुई। उन्हें लगा कि प्रधानमंत्री जो कर रहे हैं उसे हमें भी करना चाहिए। हजारों शब्दो से बड़ा एक आचरण होता है। मां के संदर्भ में मोदी ने यही उदाहरण प्रस्तुत किया।
नोट :  आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का आलेख में व्‍यक्‍त विचारों से सरोकार नहीं है। 
Edited by navin rangiyal

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