समाजसेवी मुखौटा: समाजभोगियों का लाइलाज रोग है छपास रोग

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
चकल्लस फैलाने वाले चंदूलाल वगैरह यानि इनकी सभी जगह बड़ी लम्बी फेहरिस्त है ये सभी बड़े नामचीन समाजसेवी माने जाते हैं, मतलब ये है कि समाज की सेवा करने का सबसे बड़ा कर्ता-धर्ता इन्हीं को माना जाता है।

इनके जैसे तमाम समाजसेवी और राजनेता मुद्दों को पकड़कर उछल-कूद मचाने में अव्वल दर्जा हासिल किए हुए हैं। ठीक वैसे ही जैसे बंदर इस डाल से उस डाल तक उछल-कूद करता है, वैसे ही समाजसेवा का झण्डा उठाने वाले तमाम छुटकू से बड़कू तक सभी बड़ी ही तल्लीनता के साथ समाजसेवा में अपनी भूमिका निभाते हैं।

मरीजों को फल वितरण से लेकर, साफ-सफाई, स्वच्छता, जागरूकता, नशामुक्ति सहित अनेकानेक मामलों में बड़ी ही सफाई से सरकारी मशीनरी के स्टांप से सील सिक्का लगवा लेते हैं। कुख्यात समाजसेवी का दर्जा हासिल करने के बाद नगद या चेक में पैकेज प्राप्त करने और रुतबे की आत्ममुग्धता में मशगूल रहते हैं।

लेकिन मेन्शन दैट कि- सबसे बढ़िया कॉमन बात ये है कि चन्दूलाल किस्म के समाजभोगी- "समाजसेवी का मुखौटा" लगाए हुए नामचीन चेहरों को छपास नामक बीमारी है। यह बीमारी असाध्य है जिसका उपचार नहीं किया जा सकता और यदि कोई चाहे भी तो चन्दूलाल वगैरह खुद इस बीमारी का ईलाज नहीं करवाएंगे। क्योंकि यह बीमारी ही ऐसी है कि जब से इन सभी को लगी तभी से तो समाजसेवा के दारोमदार बनकर उभरे हैं।

असल में परोपकार और समाजसेवा देश में पहले भी होती थी जब महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियों को राक्षसों के संहार हेतु इन्द्र के वज्र निर्माण के लिए देह दान कर दिया था। कभी महाराज शिवि ने भी इन्द्र और अग्नि के द्वारा बाज और कबूतर का रुप धरकर परीक्षा ली जा रही थी तो उन्होंने तराजू में अपने को तौल कर बाज का भोजन बनना स्वीकार किया था। किन्तु उन्होंने इसलिए ऐसा नहीं किया था कि उनकी कीर्ति हो, बल्कि धर्मपारायणता और परोपकार का गुण आन्तरिक थे न कि दिखावे वाला।

अब तो घोर कलयुग है और कलियुग में स्वांग रचने वालों की अपनी महत्ता है जो जितना बड़ा बहरुपिया बन जाए वो उतना ही सिध्द और प्रसिद्ध हो जाता है। उतने में भी बात जब समाजसेवा की हो तो वाह् भई! वाह् क्या कहने।
लेकिन आज देखें तो सब समाजसेवी बने हैं चाहे पर्दे के पीछे गोरखधंधा ही करते हों लेकिन पब्लिक की ईमेज में अखबारों की खबरों के माध्यम से सब स्वयंभू बने घूम रहे हैं। यह गलती भी नहीं है क्योंकि चन्दूलाल वगैरह सब इसी के लिए तो इस क्षेत्र में उतरे हैं कि "नेम एन्ड फेम" की तूती बोले और प्रतिष्ठित के साथ वरिष्ठ समाजसेवी का दर्जा हासिल हो जाए। छपास रोग के भी कई फायदे हैं राजनीति में इण्ट्री का द्वार खुल जाता है तो इसके साथ ही ई-लीगल कामों को एनजीओ के माध्यम से लीगल करने की जुगत हासिल हो जाती है।

समाजसेवा असलियत में अब तो बिजनेस बन चुकी है जिसमें समाजसेवी का रुप ओढ़े हुए शिकारी गरीब, मजलूम, बेसहारों को अपना शिकार मानकर उल्लू सीधा करने की फिराक में रहते हैं। कब मुद्दा गरम हो और गिध्द की तरह झपट्टा मारकर बेबसी का शिकार कर लें।

चन्दूलाल वगैरह जब भी भूख से पीड़ित लोगों की मदद करने जाते हैं जो दो पूड़ियों वाले पैकेट दो चार लोगों को थमाकर विधिवत सैकड़ों फोटो खींचकर अपनी समाजसेवा दिखलाने लगते हैं। बेचारा गरीब भी अपनी नियति पर रोता है, लेकिन भूख के आगे याचक बनकर खुद को इनके सामने सौंप देता है क्योंकि कहते हैं न कि मरता क्या न करता। इसलिए चन्दूलाल वगैरह गरीबों की मुफलिसी को अपना औजार बनाकर उनको निवाला तो दे देते हैं लेकिन उनकी खुद्दारी को गिरवी कर सोशल मीडिया में प्रसारित कर देते हैं।

इनका यह सिस्टम पूरा का पूरा- "फोटोबाजी" अटेंशन है, अगर फोटू न खिंची और अखबार में नहीं छपी तब तक समाजसेवा फेल मानी जाएगी।

मदद हो पाए या न हो पाए, समस्याओं का हल हो या नहीं हो याकि उसी में कोई नया मुद्दा ढूंढ़े मिले लेकिन छपास रोगियों को छपने का आत्मसुख जरूर मिलता है।

इनका जी जब इतने में भी नहीं भरता है तो अखबार वालों या मीडिया वालों को फोन कर बकायदे आमंत्रित करते हैं कि भाईसाहब प्लीज! हमें कव्हर कर लीजिए और अखबार और चैनल में न्यूज जरूर लगवा दीजिएगा। कभी-कभी तो पत्रकार इनकी बेशर्मी को आईना दिखलाते हुए सख्ती बरतते हुए खबर न लगाकर इनकी छपास की बीमारी का थोड़ा बहुत उपचार कर देते हैं, लेकिन शुरु में ही कहा गया है कि यह असाध्य रोग है इसलिए पूरा निदान नहीं किया जा सकता है।

सबके अपने-अपने जुगाड़ होते हैं इसलिए प्रेस विज्ञप्ति और प्रचार- प्रसार के हथकंडों के माध्यम से छपास रोग "दिन दूनी रात चौगुनी" गति से फलता-फूलता है।

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