क्या भंसाली निर्दोष हैं?

डॉ. नीलम महेंद्र
26 जनवरी 2018। देश का 69वां गणतंत्र दिवस। भारतीय इतिहास में पहली बार 10 आसियान देशों के राष्ट्राध्यक्ष समारोह के मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित, पूरे देश के लिए गौरव का पल, लेकिन अखबारों की हेडलाइनें क्या थीं? समारोह की तैयारियां? विदेशी मेहमानों का आगमन और स्वागत? जी नहीं! 'देशभर में 'पद्मावत' के विरोध में हिंसक प्रदर्शन'!
 
'पद्मावती' का नाम बदलकर भले ही 'पद्मावत' रख दिया गया हो लेकिन फिल्म से जुड़ा विवाद थमने का नाम ही नहीं ले रहा। जुलाई 2016 में इसके निर्माण के साथ ही विवादों की भी शुरुआत हो गई थी जिसके परिणामस्वरूप पहले 1 दिसंबर 2017 को रिलीज होने के लिए तैयार यह फिल्म अब आखिरकार 25 जनवरी 2018 को भारी सुरक्षा के बीच देश के कुछ राज्यों को छोड़कर बाकी जगह रिलीज कर दी गई। लेकिन जैसा कि अंदेशा था, इसके प्रदर्शन के साथ ही देश में इसके विरोध में हिंसक आंदोलन भी शुरू हो गए। आगजनी, पथराव, तोड़फोड़। नि:संदेह इस प्रकार की घटनाओं का एक सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं होना चाहिए।
 
इस प्रकार की हिंसा न केवल कानून व्यवस्था पर प्रशासन की ढीली पकड़ और सरकार की नाकामी को सामने लेकर आती हैं बल्कि अनेक बुनियादी सवालों को भी खड़ा करती हैं, जैसे भंसाली, जो बॉलीवुड के एक नामी फिल्म प्रोड्यूसर एवं डायरेक्टर हैं, इससे पहले भी कई फिल्मों का निर्माण कर चुके हैं और खास बात यह है कि इनकी फिल्मों और विवादों का नाता कोई नया नहीं है। इससे पहले भी जब उन्होंने 'बाजीराव मस्तानी' बनाई थी, तब भी विवाद हुआ था। अगर वे चाहते तो अपनी पिछली गलती से सबक ले लेते और इस फिल्म को एक विवाद बनने से बचा लेते लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया (शायद इसलिए कि वो एक 'गलती' नहीं थी) जिससे यह कहा जाए कि वे स्वयं ही इस विवाद के एक जिम्मेदार पक्ष नहीं हैं।
 
ऐसा सोचने के कई कारण हैं कि इस प्रकार के विवादों को वे जान-बूझकर आमंत्रित करते हैं, क्योंकि इन विवादों से उनकी फिल्म को पूरे देश में मुफ्त की वो पब्लिसिटी मिल जाती है जिसे हासिल करने के लिए न सिर्फ करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं बल्कि फिल्म की कास्ट के साथ शहर शहर की खाक भी छाननी पड़ती है। लेकिन अखबारों और न्यूज चैनलों की हेडलाइन बनने वाली एक विवादित फिल्म देखने के लिए निश्चित ही दर्शकों की भीड़ उमड़ेगी और कमाई के सभी रिकॉर्ड भी ध्वस्त कर देगी।
 
अगर हम विवाद की तह में जाएंगे तो पता चलता है कि जब फिल्म का निर्माण आरंभ हुआ था तभी राजपूत संगठनों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया था। अगर भंसाली चाहते तो उसी वक्त फिल्म की स्क्रिप्ट समझाकर उन्हें भरोसे में लेकर विवाद वहीं खत्म कर सकते थे लेकिन उनकी ओर से राजपूत समाज के संशय दूर करने की कोई भी कोशिश नहीं की गई। परिणामत: विरोध बढ़ता गया। यहां तक कि एक बार फिल्म के सेट तक को जला दिया गया जिससे काफी आर्थिक हानि भी हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने विवाद बढ़ने दिया।
 
अगर वे सचमुच ही फिल्म से जुड़ा विवाद टालना चाहते तो प्रदर्शन से पूर्व इन राजपूत संगठनों को फिल्म दिखाकर उनके भ्रम दूर करके इसके शांतिपूर्ण प्रदर्शन का रास्ता साफ कर सकते थे। लेकिन इसके बजाय उन्होंने कुछ पत्रकारों को फिल्म दिखाकर उनके चैनलों को इसके प्रचार का माध्यम बनाना ज्यादा उचित समझा।
 
प्रश्न तो और भी हैं। देश के एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते उनके भी कुछ दायित्व देश के प्रति हैं। देश का माहौल शांतिपूर्ण रहे और उनकी वजह से समाज के किसी वर्ग की भावनाएं आहत न हों यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। लेकिन उन्होंने देश के प्रति अपने ऐसे किसी कर्तव्य का कोई विचार किए बिना फिल्म 26 जनवरी गणतंत्र दिवस से 1 दिन पहले 25 जनवरी को रिलीज की। जबकि वे जानते थे कि एक तरफ उस दिन गणतंत्र दिवस के आयोजनों और इनमें शामिल होने वाले विदेशी मेहमानों की सुरक्षा में हमारे सुरक्षा बल लगे होंगे तो दूसरी तरफ इन हालातों में देश में आतंकवादी घटनाओं को टालने के लिए भी देश का पूरा फोर्स रेड अलर्ट पर रहता है। ऐसे मौकों पर देश की सुरक्षा वैसे ही हमारे सुरक्षा बलों के लिए एक चुनौती होती है।
 
लेकिन इन सभी महत्वपूर्ण बातों को नजरअंदाज करके देश के नागरिकों की सुरक्षा को ताक में रखकर सिर्फ अपने आर्थिक लाभ को ध्यान में रखते हुए भारी विरोध के बावजूद अपनी विवादित फिल्म गणतंत्र दिवस की छुट्टियों के इस मौके पर अपने स्वार्थ को सर्वोपरि रखते हुए प्रदर्शित करना ही अपने आप में कई सवालों को खड़ा करता है, क्योंकि यह तो अपेक्षित ही था कि फिल्म का विरोध होगा और हुआ भी। लेकिन अगर इस अराजकता का फायदा आतंकवादी संगठन उठा लेते और भीड़ में घुसकर किसी बड़ी आतंकवादी घटना को अंजाम दे देते तो?
 
लेकिन जो हुआ वो भी देश को शर्मिंदा करने वाला था। गुरुग्राम की एक स्कूली बच्चों से भरी बस को निशाना बनाया गया। कहा गया कि करणी सेना के कार्यकर्ताओं द्वारा यह सब किया गया जबकि करणी सेना ने ऐसी किसी घटना में अपना हाथ होने से इंकार किया है। सच क्या है? यह तो जांच बाद पता चलेगा लेकिन वे मासूम बच्चे जो कितनी रातों सो नहीं पाएंगे, कितने दिनों तक इस घटना के सदमे से बाहर नहीं आ पाएंगे, उनकी इस मनोदशा का जिम्मेदार कौन है?
 
बेहतर होता कि भविष्य में इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो, इसके लिए सरकार सख्त कानून द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा तय करे। यह स्पष्ट करे कि जब अभिव्यक्ति किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाकर समाज में हिंसा का कारण बन जाती है तो वो स्वतंत्रता की सीमा लांघ जाती है और समाज के लिए प्रताड़ना बन जाती है।
 
क्या एक लोकतांत्रिक समाज में विरोध को नजरअंदाज करते हुए एक विवादित फिल्म को सुरक्षा के बीच तानाशाहीपूर्वक इस प्रकार प्रदर्शित करना केवल अभिव्यक्ति की आजादी की दृष्टि से ही देखा जाना चाहिए? क्या यह बेहतर नहीं होता कि सरकार अथवा कोर्ट यह आदेश देती कि देश की शांति और नागरिकों की सुरक्षा के मद्देनजर जब तक दोनों पक्ष बातचीत से विवाद को सुलझा नहीं लेते, तब तक फिल्म को प्रदर्शित करने नहीं दिया जाएगा? बड़े से बड़े विवाद बातचीत से हल हो जाते हैं, शर्त यही है कि नीयत सुलझाने की हो।
 
करणी सेना द्वारा देशभर में इस प्रकार की हिंसा किसी भी प्रकार से उचित नहीं ठहराई जा सकती, लेकिन क्या भंसाली निर्दोष हैं?

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