वायरस का वैक्सीन मिल जाएगा, इस डायन प्रथा की कलंकित बीमारी का इलाज कहां?

डॉ. छाया मंगल मिश्र
ये पृथ्वीलोक है। इसमें मेरा भारत देश महान है जिसमें देश को ही माता कहते हैं। नारी पूजनीय है इस देश में। कन्या और मां के कई देवी रूप पूजे जाते हैं। इस लोक में कोरोना महामारी आई हुई है। प्रकृति मां के दंडस्वरूप। मां तो दंड भी देती है, प्यार भी करती है। पर ये जो इस लोक की औरत है, ये औरत वो जाति है जिसे इंसानों में कभी नहीं गिना जाता। वो देवी है, पूजनीय है, वंदनीय है या फिर डायन, डाकिनी, चुड़ैल, जादुगरनी, पिशाचिनी, टोटगायली, मनहूस, अपशकुनी, मसानी जैसे अनेक काले शब्दों का पर्याय।

और ये सही भी हैं। कैसे? तो ये वही औरतें तो हैं, जो उन नरपिशाचों, राक्षसों, दैत्यों, प्रेतों, पलीतों, असुरों, जिन्नों को जन्म देती है। जिनका हृदय नहीं फटता उन्हें डायन करार देते हुए, जिनको लज्जा नहीं आती उन्हें नंगा कर सार्वजनिक रूप से घुमाते हुए, उनकी दयनीय चीत्कारों से दिल नहीं पसीजता इन जिन्नों का।

दोनों हाथ फैला-फैलाकर जब वो अपनी जान और दया की भीख मांगती हैं, तब तुम्हारा पिशाचीस्वरूप अट्टहास करता है। दर्द और अपमान से बिलखती वो औरत जब बार-बार सबकी ओर देख-देखकर बचने के लिए मार्ग ढूंढती है तो उसको बालों से घसीट-घसीटकर ले जाने वाले तुम प्रेत योनि जीने लगते हो। उसके माथे से उघड़ता आंचल जब छाती से होता हुआ कमर से भी खींच लेते हो तुम भूत, पिशाच और दैत्यों के वंशज। और जब उनका मुंडन कर रहे होते हो तब मानवीयता को शर्मसार कर रहे होते हो तुम पलीत-असुर।

उसके शरीर को जब कट लगा-लगाकर घायल करते हो और उसकी प्राणलेवा दर्द से निकली चीखों को तुम मधुर संगीत-सा आनद लेते हो, तब राक्षसों को भी मात करते हो। इतने में भी मन नहीं भरता तुम नराधमों का तो तुम अपनी निकृष्टता, नीचता, हैवानियत और क्रूरता की सारी हदें बेरहमी से तोड़ते हुए उसे मल-मूत्र खिलाने-पिलाने जैसे कुकृत्य करने में अपनी संपूर्ण पशुता का निंदनीय प्रदर्शन करते हुए आसुरी उत्सव मनाते हो।

जब वो देवी, पूजनीय, वंदनीय औरत लाचारी, बेबसी, मजबूरी के साथ कातर याचनाभरी आंखों से अपने ही कांपते हाथों की उस छोटी-सी हथेली को अपनी लज्जा छुपाने के लिए पूरे शरीर पर फिराती है, तब तुम्हें उस देवी की याद नहीं आती जिसे चुनरी ओढ़ाने, पैदल-पैदल ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों पर बने मां के बने मंदिरों में भूखे-प्यासे जाते हो। वो मल-मूत्र की दुर्गंध से ऊबके खाती औरत, जिसे तुम सबके षड्यंत्र ने डायन घोषित किया है, को पशुओं को दवा पिलाने की बांस की भोंगली में भरकर मुंह में ठूंसते तुम्हें मौत न आई? निर्लज्जों?

जालिमों की परवरिश तुमने कहां से पाई? कसाई भी पेशे से मजबूर होते हैं, पर तुम तो इंसान के रूप में सबसे भयावह कौम हो। कोरोना से भी खतरनाक, इंसानियत के लिए कलंक लाइलाज महामारी। इतने से भी तुम्हारी कुंठा नहीं भरती तो उसे बलात्कार कर जिंदा जला देते हो या गांव निकाला दे संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेते हो।

वैसे ये है क्या? 'डाकिनी' शब्द का प्रयोग वैदिक (वेद सहमत) एवं अवैदिक तंत्र की दोनों धाराओं में हुआ है। दुर्गा सप्तशती में कहा गया है 'अंतरिक्षचरा: धोरा: डाकिन्यश्च महाबला:'। बौद्ध तंत्र परंपरा में डाकिनियों का स्थान अत्यंत सम्मानपूर्ण एवं प्रतिष्ठित है, जैसे वैदिक धारा में साधिकाओं एवं भैरवियों का।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि डाकिनी का विरोध स्त्री एवं बौद्ध होना दोनों कारणों से हुआ। श्मशान आदि की देवी, एक पिशाचिनी या देवी जो काली के गले में समझी जाती है, भूत-प्रेत योनि की स्त्री। 'कबीर माया डाकिनी, सब काहू को खाय दांत उपारुं पापिनी, सन्तो नियरै जाय'।

धार्मिक मान्यतानुसार डाकिनी को छिन्नमस्तिका देवी का रक्तपान करते हुए बताया गया है। बौद्ध धर्म में डाकिनी को वज्रयोगिनी कहा गया है। 'डाकिनी' शब्द सुनते ही हमारे मन में एक भयानक एवं क्रूर औरत की तस्वीर उभरती है। डाकिनियों को अत्यंत ताकतवर भी माना गया है।

तंत्र के अनेक ग्रंथों में इनका विस्तृत वर्णन है। अंग्रेजी औपनिवेशिक, भारतीय संस्कृति की निंदा करने वाली पूर्वाग्रही दृष्टि से हटकर यदि शास्त्रीय दृष्टि से विचार करेंगे तो कुछ दूसरा ही चित्र सामने उभरेगा। 'डाकिनी' शब्द का अपना शाब्दिक अर्थ होता है- तेज गति से चलने वाली। आज भी तेज गति से चलने को डांकना, तीव्र धावक को डाक, तेजी से पत्र ले जाने वाली व्यवस्था को डाक व्यवस्था एवं बाबा बैजनाथ पर बिना रुके जल ले जाकर चढ़ाने वाले को डाक बम कहते हैं। आश्चर्य है कि कैसे डाक शब्द का स्त्रीलिंग डाकिनी शब्द भय, घृणा, क्रूरता, निषेध एवं क्रूर प्रतिहिंसा जैसी भावनाओं के साथ जुड़ गया है। इसी तरह वज्र शब्द कठोरता के साथ तीव्र गति का भी द्योतक है।

तंत्र विद्या/शास्त्र स्त्री एवं पुरुष दोनों को एक-दूसरे का पूरक मानता है। इतना ही नहीं, शारीरिक बनावट की दृष्टि से स्त्री एवं पुरुष में केवल अंगों के उभार का ही अंतर है। एक का प्रगट एवं एक का गुप्त। बस इतना ही तो फर्क है। स्त्री की साधना स्त्री के अनुरूप होगी ही। वह भी तीव्र गति से साधना कर सफल हो सकती है। अत: डाक या डाकिनी दोनों बराबर हैं। सिद्धों में कुक्कुरिपा वज्र डाक हैं। आज भी अनेक लोग डाक हो सकते हैं। ऐसे अनेक डाक स्थान मिलेंगे।

बिहार में गया-नवादा रोड में रघुनी डाक का स्थान है, जो बिलकुल नया है। तंत्र साधिका स्त्री, अपनी शिक्षा, स्वावलंबन, यौन संबंध, स्नेह, प्रजनन, संतति सभी मामलों में स्वनिर्णय में समर्थ एवं स्वतंत्र होती थी। इस प्रकार का तंत्र पुरुष के वर्चस्व को सीधी चुनौती है। किसी भी सत्ता की चूलें हिलाने वाला है। अत: षड्यंत्रपूर्वक तीव्र वेग से साधना करने वाली स्त्री को उन्मुक्त, व्यभिचारिणी, क्रूर, हत्यारिणी आदि सिद्ध कर उनकी हत्या 'डायन' कहकर करने की प्रवृत्ति बढ़ी जिसमें पुरुष ओझाओं की मुख्य भूमिका होती है। आज दलित ओझा भी होते हैं किंतु शाब्दिक दृष्टि से 'ओझा' शब्द उपाध्याय से 'उबज्झा' और फिर 'ओझा' रूप में विकसित हुआ है। बस यही है कहानी।

पर समय के साथ बढ़ती महिलाओं के प्रति क्रूर व्यवहार की विकृतियों में से एक यह भी खूब फूली-फली। डायन प्रथा के वजूद की अहम वजहें हैं- अशिक्षा और अंधविश्वास का चक्रव्यूह। इस तरह की घटनाएं ज्यादातर दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में होती हैं, जहां शिक्षा और स्वच्छता का अभाव होता है, साथ ही संपत्ति पर अधिकार जमाने की इच्छा।

अधिकतर आदिवासी समुदायों में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में जमीन पर ज्यादा अधिकार प्राप्त होते हैं। इस संपत्ति पर अधिकार जमाने के लिए उन्हें 'डायन' साबित करने की कवायद शुरू की जाती है। खासकर उन महिलाओं को निशाने पर रखा जाता है जिनके आगे-पीछे कोई नहीं होता, जैसे विधवाएं, अकेली रह रहीं महिलाएं, बूढ़ी औरतें आदि। कई दफा घर के पुरुष सदस्यों की बुरी नजरों के विरोधस्वरूप बदले की भावना व अहंकार से ग्रसित हो डायन अस्त्र का इस्तेमाल करता है।

केवल भारत ही नहीं तंजानिया, नाइजीरिया, दक्षिण अफ्रीका, इंग्लैंड जैसे देश भी इसी प्रपंच से ग्रसित हैं। घटिया मानसिकता के पुरुष जिनमें कुछ स्त्रियां भी अपने तुच्छ और कुटिल स्वार्थवश जुड़ जाती हैं, केवल अपनी शक्ति दिखाने के लिए गरीब, निरीह, मासूम और मजबूर औरतों को ही बलि का बकरा बनाते हैं। कभी भी समर्थ, सक्षम घराने की अमीर, रईस महिलाओं के साथ ऐसा हुआ हो, जान नहीं पड़ता। अपवाद हों तो बात अलग है। आज भी मरने वालियों के सत्य आंकड़े उपलब्ध नहीं हो सकते।

कोरोना से जंग लड़ रहे विश्व में भारत के एक कोने में आज भी डायन का खेल खेला जा रहा है। बिहार से वायरल वीडियो ने दिल दहलाकर रख दिया। सारी महामारियों व बीमारियों के वैक्सीन बने, बन जाएंगे। इलाज ढूंढे, ढूंढ लिए जाएंगे, पर आज भी इस नासूर डायन प्रथा की कलंकित बीमारी का इलाज नहीं हो पाया। कानून बनने के बाद भी। इसका इलाज विज्ञान में संभव ही नहीं है, क्योंकि हम खुद ही इसका इलाज हैं। हमारी खामोशी का टूटना जरूरी है। अत्याचार का विरोध एकजुटता के साथ जरूरी है।

गलत को गलत कहने की हिम्मत जरूरी है। संस्कार और अंधविश्वास में अंतर का ज्ञान होना जरूरी है। जिस दिन हम यह जान जाएंगे, स्थिति भी सुधर जाएगी। देश में हर अपराध व समस्या के लिए बने कानूनों के साथ हमारी जागरूकता भी इससे निजात दिलाएगी। यही भारत एक ऐसा देश है, जहां सृष्टि रचना आदिशक्ति द्वारा मानी गई।

नारी की प्रशंसा में असंख्य श्लोक, सूक्तियां, मंत्र, काव्य व महाकाव्य रचे गए। यदि वास्तव में उन सारी स्तुतियों का यथार्थ में क्रियान्वयन हो जाता तो असंख्य युगों के लिए भारत एक उदाहरण बन जाता। पर दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।

और यदि फिर भी हम औरतों पर ऐसे लांछित, जलालतभरे, गलीज, अमानवीय क्रूर अत्याचार नहीं रुकते, तो आओ हम सब सच में डायन बन ही जाएं। ऐसे पुरुषों को खा जाने वाली। इन्हें जनना बंद कर दें। बंजर कर दें इनके वंश। सृष्टि को मानवरहित कर दें। सच में बन जाएं डायन।

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