Mahamrityunjay yatra : विश्व की एक मात्र महामृत्युंजय रथ यात्रा

केडी शर्मा
महेश्वर। धन्य है महेश्वर (मध्यप्रदेश) की धरा जहां पिछले 15 वर्षों से विश्व की एकमात्र महामृत्युंजय रथ यात्रा का अनवरत आयोजन हो रहा है। वर्ष दर वर्ष यह नई ऊंचाइयां हासिल कर रही है। निमाड़ ही नहीं पूरे मध्यप्रदेश में इस यात्रा की पहचान है। जनवरी में नव वर्ष प्रारंभ होते ही लोग उत्सुकता से इस दिन का इंतजार करते हैं।
 
स्थानीय निवासी तो इसमें बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते ही हैं, विभिन्न शहरों से, जैसे इंदौर, जयपुर, वड़ोदरा, आणंद (गुजरात) एवं विदेशी पर्यटक भी आश्चर्यचकित हो बड़ी श्रद्धा से भगवान महामृत्युंजय का आशीर्वाद व कृपा प्राप्त करते हैं। 
 
यात्रा के प्रेरणा स्तोत्र : बाबा देवीशंकर चट्टोपाध्याय (हमारे परम गुरुदेव) के शिष्य श्री सहजानंदनाथ (मूल नाम श्री हरिविलास जी आसोपा), जिनका इंदौर में निवास था, जो हमारे गुरुदेव हैं, जिन्हें हम आपसा कहते हैं, उन्होंने 7 जनवरी 2007 को इसका शुभारंभ करवाया। तब से यह क्रम अनवरत है और इस वर्ष कोरोना महामारी के सभी दिशा निर्देशों का पालन करते हुए अति सूक्ष्म आयोजन किया गया।
 
यात्रा का उद्देश्य :  सर्वे भवन्तु सुखिन सर्वे सन्तु निरामयाः एवं सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय इस विश्व कल्याण की भावना एवं सर्व कल्याण हेतु महामृत्युंजय मंत्र का प्रचार यही इस यात्रा का उद्देश्य है। सभी जानते हैं भगवान आशुतोष शिव का सर्वोच्च अमोघ एवं अत्यंत प्रभावशाली मंत्र है महामृत्युंजय मंत्र-  “ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्”। अथवा “मृत्युंजय महारुद्र त्राहिमाम शरणागतम जन्म मृत्यु जरा व्याधि पीड़ितम कर्म बन्धने” सूक्ष्म में “ॐ जूं सः”।
 
यह भगवान शिव से प्रार्थना है कि मेरा जीवन सुगंधित हो जिससे मैं सब ओर सुगंध या खुशबु महकाता रहूं, मेरी पुष्टि में वृद्धि हो यानी मैं भक्ति और शक्ति दोनों में बलशाली हो जाऊं और समय आने पर बिना प्रयास के जीवन के सभी बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष की प्राप्ति करूं, जिस तरह ककड़ी फल आदि पक जाने पर स्वयं ही वृक्ष या लता से मुक्त हो जाते हैं।
 
सभी जानते हैं धर्म एवं अध्यात्म सिर्फ श्रद्धा और विश्वास का विषय है, कोई तर्क या बहस का नहीं। विज्ञान भी इस बात की पुष्टि करता है कि कोई भी चिकित्सा दवा या इलाज तभी असर करता है जब आपको उस डॉक्टर पर एवं दवा पर भरोसा हो कि इससे मैं ठीक हो जाऊंगा। कितनी ही बार ऐसा देखा गया है कि किसी भी सादी गोली (बिना किसी दवा के) से ही बीमार इसलिए ठीक हो जाता है क्योंकि उसको उस पर विश्वास है कि उसने दवा ले ली है। महामृत्युंजय मंत्र पर अनेक वैज्ञानिक एवं चिकित्सकीय शोध हुए हैं जिनमें इसके सकारात्मक परिणामों की पुष्टि हुई है।
 
अभी हाल ही में देश व दिल्ली के प्रसिद्ध डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में नयूरोफार्मोकोलोजिस्ट डॉ. अशोक कुमार ने 2016 से 2019 तीन वर्षों तक इस पर शोध किया और जाप का परीक्षण जिन मरीजों पर किया उनके स्वास्थ्य लाभ में चमत्कारिक परिणाम देखने को मिले।
 
शोध के इस विषय को ICMR (Indian Council for Medical Research) ने अनुमति प्रदान की है। इस शोध एवं अन्य जितने भी शोध इस मंत्र पर हुए हैं, सभी की जानकारी Google एवं YouTube पर उपलब्ध है| निष्कर्ष यह है कि पूर्ण श्रद्धा से किए गए जाप के निश्चित ही सकारात्मक परिणाम मिलते हैं।
 
महेश्वर ही क्यों : महेश्वर शिव का ही एक नाम है, जिसका पौराणिक नाम महिष्मति है। महिष्मति नरेश सहस्त्रार्जुन और लंकापति रावण के बीच यहीं नर्मदा नदी में युद्ध हुआ था जिसमें सहस्त्रार्जुन ने रावण को पराजित कर उसे बंदी बना लिया था। ऋषि पुलत्स्य (रावण के दादा) को जब पता चला तो वे स्वयं महेश्वर आए और सहस्रार्जुन से प्रार्थना कर उन्होंने रावण को मुक्त करवाया।
 
महिष्मति क्षेत्र में ही विद्वान मंडन मिश्र हुए थे जिनका उस समय पूरे भारत में कोई सानी नहीं था। लोक कथाओं के अनुसार उनका तोता भी संस्कृत के वैदिक स्तोत्र बोलता था। आदि शंकराचार्य ने उन्हें व उनकी विद्वान पत्नी उदय भारती को शास्त्रार्थ में पराजित किया और मंडन मिश्र को अपना शिष्य बना लिया। 
 
परम शिव भक्त देवी अहिल्या ने महेश्वर को अपनी राजधानी बनाया और यहीं से शासन किया। उन्होंने नर्मदा नदी पर विशाल एवं सुंदर घाट बनवाया कि ऐसा मनोरम दृश्य नर्मदा के उद्गम से अंत तक कहीं भी देखने को नहीं मिलता है।
 
इस क्षेत्र की ऐसी कई आध्यात्मिक शक्तियां हैं, जो कालांतर में लुप्त होती चली गईं। हमारे गुरुदेव को इस क्षेत्र की ऐसी कई आध्यात्मिक महत्व की जानकारी थी। उन्हें अंतर-प्रेरणा से यह अनुभूति हुई कि यहां करीब 1000 वर्ष पहले महामृत्युंजय रथ यात्रा निकलती थी, जो कालांतर में शासन परिवर्तनों के साथ लुप्त हो गई। सर्व कल्याण के लिए उन्होंने इसे पुन: आरम्भ करने का संकल्प लिया और इसका शुभारंभ 7 जनवरी 2007 से हुआ। तब से यह क्रम अनवरत 15 वर्षों से चल रहा है। 
 
यात्रा का निश्चित दिन :  हर वर्ष मकर संक्रांति से पूर्व का रविवार इस यात्रा का निश्चित दिन है। यानी धनुर्मास का अंतिम रविवार। रविवार यानी सूर्य देव का दिन, संक्रांति यानी सूर्य देव का राशि परिवर्तन और मकर संक्रांति को सूर्य देव धनु राशि से निकलकर मकर राशि में प्रवेश करते हैं। परिवर्तन के इस संक्रांति काल में रविवार यानी सूर्य देव के दिन का विशेष महत्व है।
 
धार्मिक पुराणों एवं विज्ञान दोनों ने ही सूर्य देव की उत्तरायण स्थिति का विशेष महत्व एवं स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभकारी बताया है।  इसी संक्रांति से सूर्य देव दक्षिण से उत्तर की दिशा में अपनी स्थिति बदलते हैं। गुजरात में इस को उत्तरायण पर्व के नाम से पूरे प्रदेश में बहुत ही उमंग और उल्लास से मनाया जाता है।
 
इसी संक्रांति से सूर्य देव की ऊर्जा का अधिक संचार होता है और शरीर को अधिक ऊर्जा मिलने से कार्य क्षमता बढ़ती है। स्वास्थ्य में सुधार होता है, सर्दी से जमे रहे कफ और विकार शरीर से निकलते हैं और प्रकृति में भी विशेष परिवर्तन दिखाई देता है। शीत ऋतु समाप्ति पर होती है, दिन बड़ा व रात छोटी होना शुरू होता है यानी यह पर्व अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह बहुत ही महत्वपूर्ण समय होता है, शायद इसीलिए गुरुदेव ने महामृत्युंजय यात्रा के लिए यही दिन निश्चित किया होगा ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।
गुरुदेव का संक्षिप्त जीवन परिचय :  प्राकट्‍य 9 अक्तूबर 1936, अमूर्त :18 अक्तूबर 2017,  नाम : हरि विलास जी आसोपा - दीक्षित नाम श्री सहजानंदनाथ। जन्म विदिशा (म.प्र.) के बहुत ही प्रतिष्ठित परिवार में हुआ, पिता पन्नालाल जी वहां के करीब 100 गावों के बड़े जमींदार थे और उनका बहुत बड़ा व्यापार था | आपकी प्रारंभिक शिक्षा सिंधिया पब्लिक स्कूल ग्वालियर में हुई। हिंदी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं की खासकर व्याकरण की गहरी पकड़ थी। बहुत कम शब्दों में गहरी बात समझा दिया करते थे। मैंने एक दिन पूछा आज के समय में यह पहचान कैसे करें कि अमुक सच में संत या सिद्ध पुरुष है या नहीं तो बड़े सूक्ष्म में समझा दिया कि 'जो सिद्ध है वो प्रसिद्ध नहीं और जो प्रसिद्ध है वो सिद्ध नहीं'|
 
शिक्षा के परिवेश से आपकी रुचि हिंदी व अंग्रेजी साहित्य काव्य शायरी आदि में रही। पढ़ने का अत्यधिक शौक था। उस समय की अंग्रेजी और हिंदी साहित्य की सभी चर्चित व श्रेष्ठ पुस्तकें व काव्य पढ़ा करते थे। व्यापार व्यवसाय में आपका रुझान कम ही था, कम उम्र में पिता के देहांत के बाद व्यवसाय में बड़ा घाटा हुआ तो आप व्यापार समेटकर इंदौर चले आए और टाइम्स ऑफ इंडिया में पत्रकारिता करने लगे। 
 
19 अक्टूबर 1961 में दशहरे के दिन परम गुरुदेव पं. देवीशंकर चट्टोपाध्याय (रिटायर्ड ICS अफसर) ने आपको दीक्षा प्रदान की, जिसने आपके जीवन की दिशा को पूरी तरह आध्यात्मिकता की तरफ मोड़ दिया। अपने गुरु से बहुत सिद्धियां प्राप्त हुईं पर कभी भी प्रचार प्रसार या चमत्कार के लिए प्रयोग नहीं किया। कहते थे स्वप्रशंसा एवं पर निंदा से बचो इससे अहंकार पैदा होता है, अहंकारी व्यक्ति गुरु तो क्या सच्चा शिष्य भी नहीं बन सकता है। जरूरत पड़ने पर बहुत ही जटिल एवं कठिन परिस्थितियों में साधकों की अनेक समस्याओं का समाधान किया, कितनों को जीवनदान दिया, गंभीर बीमारियों से निजात दिलाई, नए लक्ष्य प्राप्त करवाए और उनके लिए कठिन तो क्या कुछ भी असंभव नहीं था।
 
उन्होंने साधक की समस्या का निदान कराने के बाद उसको कभी भी ऋणी महसूस नहीं करवाया। प्रचार प्रसार से बचने के लिए कुनबा भी छोटा ही रखा। कुल 27 शिष्यों को ही दीक्षा दी और सभी को परिवार की तरह वात्सल्य भाव से रखते थे। सभी के नाम उनकी पत्नी बच्चों व परिवार के भी सभी सदस्यों के नाम हमेशा याद रहे। सभी को नाम से ही बुलाया करते थे। हम सभी उन्हें ‘आपसा’ संबोधित करते थे। कितनी ही बार अपनी अंतर प्रेरणा से कुछ आभास होता तो अमुक शिष्य को स्वयं फ़ोन कर या प्रत्यक्ष बुलाकर आगाह करते या निदान बताते थे। सब आश्चर्यचकित हो जाते थे, ऐसी कई चमत्कारिक घटनाएं हम सभी ने प्रत्यक्ष देखी हैं। उनकी कृपा की प्रत्यक्ष अनुभूति सभी साधकों को समय पर हुई।
 
शिव और शक्ति की उपासना का बहुत आग्रह रखते थे। नवरात्रि में मां भगवती की साधना के लिए सबसे कहते थे। कहते थे कि नवरात्रि के नौ दिन मेरी झोली में डाल दो, मैं आप सब के कल्याण के लिए भीख मांगता हूं, ये नौ दिन की साधना आप सभी को शक्ति प्रदान करेगी, सर्व कल्याण करेगी। कहते थे जो है (तत्व) वह दिखता नहीं है और जो नहीं है वह दिखता है। शायरी में भी रुचि रखते थे, कहते थे कुछ शब्दों या पंक्तियों में बहुत ही गूढ़ बात समझाई जा सकती है। 
 
यात्रा समय और मार्ग : दोपहर 2 बजे स्वाध्याय भवन महालक्ष्मी नगर महेश्वर से जय स्तम्भ, बाज़ार चौक होते हुए शाम करीब 6 बजे नर्मदा घाट (नाव घाट) पहुंचती है। पूरे रास्ते DJ SOUND पर महामृत्युंजय मंत्र का जाप एवं सुंदर भजनों व ढोल-ढमाके के साथ पूरे उमंग व जोश में भगवान महामृत्युंजय के रथ को हाथ से खींचकर ले जाने की मानो होड़ सी लगी रहती है। हर कोई रथ खींचने को लालायित दिखता है। यात्रा में स्थानीय निवासियों के अलावा पास के सभी नगरों-गांवों से एवं इंदौर, वड़ोदरा, आनंद (गुजरात),  जयपुर व विदेशी पर्यटक भी आश्चर्यचकित हो श्रद्धा के साथ दर्शन कर प्रसाद ग्रहण करते हैं। सभी जाति, वर्ग, संप्रदाय के लोग बिना कोई ऊंच नीच या भेदभाव से इसमें शरीक हो गौरवान्वित महसूस करते हैं। नर्मदा घाट पर महाआरती के प्रसाद वितरण होता है। 
 
स्वाध्याय भवन :  गुरुदेव की इच्छा के अनुरूप महेश्वर की आध्यात्मिक एवं प्रदूषण मुक्त नगरी के महालक्ष्मी नगर के पूर्ण शांत विस्तार में राधा अष्टमी 2002 को स्वाध्याय भवन को मूर्त रूप मिला। आज के इस भागदौड़ व प्रतिस्पर्धात्मक डिजिटल युग में मनुष्य स्वयं मशीन सा बनता जा रहा है। सभी अपनी नौकरी, पेशा, व्यवसाय व गृहस्थ जीवन में पूरी तरह व्यस्त व त्रस्त हैं। गुरुदेव की यह इच्छा थी कि जब कभी भी किसी साधक को अपने व्यस्त जीवन में कुछ क्षण एकाकी स्वाध्याय व साधना करने की उत्कंठा हो तो उसे किसी अन्य आश्रम या स्थान पर भटकने या गुमराह होने की बजाय अपने ही गुरु भाइयों के साथ इस भवन में शांति से स्वाध्याय करें अथवा अपने गुरु या इष्ट मंत्र की साधना करें या मार्गदर्शित अनुष्ठान जप आदि संपन्न करें।
 
तभी से साधक, खासकर इंदौर व बड़ोदा से, अपनी सुविधा व समय अनुसार यहाँ आकर बड़ी आत्मिकता व श्रद्धा से स्वाध्याय, साधना जप अनुष्ठान संपन्न करते हैं। यहां आते ही साधक बहुत ही शांति व सुकून महसूस करते हैं। चैत्र नवरात्र व शारदीय नवरात्र इनमें प्रमुख हैं। इसके अलावा महाशिवरात्रि, होली, वसंत पंचमी या अन्य कोई धार्मिक प्रसंग विशेष तिथि या पर्व पर भी आयोजन होते रहते हैं। गुरुदेव मानसिक जाप पर विशेष जोर देते थे, सो प्रत्येक आयोजन में प्राणायाम मानसिक जप के समय पूर्ण शांति व मौन से वातावरण पूर्ण आध्यात्मिक हो जाता है। इस भवन की आध्यात्मिक ऊर्जा व शांति बनाए रखने के लिए इसका उपयोग किसी भी अन्य कार्य या आयोजन के लिए पूर्णतः निषिद्ध है। साधकों के आयोजन के लिए ही इसे खोलते हैं अन्यथा यह बंद ही रहता है। स्वाध्याय भवन में कोई मूर्ति पूजा, आरती, पुजारी, गादी इत्यादि की कोई परंपरा नहीं है। यह सिर्फ एकांत साधना व स्वाध्याय का स्थल है। 2007 में यहीं से महामृत्युंजय रथ यात्रा का आयोजन प्रारंभ हुआ, जो अब स्वाध्याय भवन एवं महेश्वर का वार्षिक पर्व बन गया है।
 

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