मानहानि मामला : अदालत ने मेधा पाटकर को सुनाई 5 महीने जेल की सजा, देना होगा 10 लाख रुपए जुर्माना

वेबदुनिया न्यूज डेस्क
सोमवार, 1 जुलाई 2024 (23:19 IST)
Medha Patkar sentenced to jail in defamation case : दिल्ली की एक अदालत ने नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर को 23 साल पुराने मानहानि के एक मामले में 5 महीने के साधारण कारावास की सोमवार को सजा सुनाई। यह मामला दिल्ली के उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने उनके खिलाफ उस वक्त दायर किया था जब वह (सक्सेना) गुजरात में एक गैर सरकारी संगठन (NGO) का नेतृत्व कर रहे थे।
 
मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट राघव शर्मा ने यह कहते हुए पाटकर पर 10 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया कि उनके जैसे व्यक्ति द्वारा झूठे आरोप लगाने से अपराध गंभीर हो गया है। अदालत ने पाटकर से यह राशि सक्सेना को देने को कहा। हालांकि अदालत ने 70 वर्षीय पाटकर को फैसले के खिलाफ अपीलीय अदालत में जाने का मौका देने के लिए सजा को एक महीने की अवधि के लिए निलंबित कर दिया।
 
अदालत ने कहा कि पाटकर की उम्र और बीमारियां उन्हें गंभीर अपराध से मुक्त नहीं करती हैं क्योंकि सक्सेना की प्रतिष्ठा, विश्वसनीयता और सामाजिक प्रतिष्ठा को गहरी क्षति पहुंची है। अदालत के फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए पाटकर ने कहा कि उनके वकील इस आदेश को चुनौती देंगे।
 
उन्होंने अदालत कक्ष के बाहर कहा, सत्य को पराजित नहीं किया जा सकता। हम जो भी काम कर रहे हैं, वह गरीबों, आदिवासियों और दलितों के लिए है। हम विकास के नाम पर विनाश और विस्थापन नहीं चाहते हैं। हमारी किसी को बदनाम करने की कोई इच्छा नहीं है। मेरे वकील आगे कानूनी उपाय करेंगे। हम इसे (अदालती आदेश) चुनौती देंगे।
 
मजिस्ट्रेट अदालत ने अपने आठ पन्नों के आदेश में कहा, जबकि दोषी व्यक्ति कई पुरस्कारों से सम्मानित एक प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता हैं, उनका यह दर्जा उनके कृत्यों को और भी अधिक निंदनीय बनाता है और समाज में उनका सम्मानित स्थान सत्य को बनाए रखने और ईमानदारी से काम करने की जिम्मेदारी देता है।
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अदालत ने कहा, यह तथ्य उनके दायित्य को और बढ़ाता है कि उनके दर्जे के व्यक्ति ने इस तरह के झूठे और नुकसानदेह आरोप लगाए हैं क्योंकि यह जनता के विश्वास को कमतर करता है और एक नकारात्मक उदाहरण स्थापित करता है। इसने कहा कि जबकि पाटकर की उम्र और चिकित्सा स्थिति ऐसे कारक थे जिनके लिए एक संतुलित दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, लेकिन ये उन्हें उनके अपराध की गंभीर प्रकृति से मुक्त नहीं करते।
 
अदालत ने कहा, उद्देश्य एक ऐसी सज़ा देना है जो न्यायसंगत और मानवीय दोनों हो। एक या दो साल की लंबी अवधि की कारावास अवधि उनकी उम्र और स्वास्थ्य को देखते हुए कठोर हो सकती है जबकि एक या दो महीने की बहुत कम अवधि शिकायतकर्ता को न्याय से वंचित कर देगी। इसलिए पांच महीने की साधारण कारावास की सजा उपयुक्त है, यह सुनिश्चित करते हुए कि सजा उपयुक्त है, लेकिन उनकी परिस्थितियों को देखते हुए अत्यधिक कठोर नहीं है।
 
न्यायाधीश ने मौखिक रूप से कहा कि पाटकर को आदेश के खिलाफ अपील दायर करने के लिए सक्षम बनाने हेतु सजा को एक महीने के लिए निलंबित किया जाना चाहिए। अदालत ने कहा कि 10 लाख रुपए का जुर्माना लगाना सक्सेना के लिए एक क्षतिपूरक उपाय होगा।
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इसमें कहा गया है कि जुर्माने में 23-24 वर्षों की कानूनी लड़ाई में सक्सेना को हुई व्यापक क्षति और दीर्घकालिक पीड़ा को भी स्वीकार किया गया है। अदालत ने कहा कि जुर्माने में व्यापक क्षति और लंबे समय की पीड़ा को भी स्वीकार किया गया है, जो सक्सेना को 23-24 साल की कानूनी लड़ाई के दौरान हुई।
 
अदालत ने कहा कि सजा में अपराध की गंभीरता और सामाजिक मूल्यों की सुरक्षा प्रतिबिंबित होनी चाहिए। न्यायाधीश ने लॉर्ड डेनिंग को उद्धृत किया जिन्होंने कहा था कि दंड वह तरीका है जिसके द्वारा समाज गलत काम की निंदा करता है और कानून के प्रति सम्मान बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि दंड पर्याप्त और प्रभावी हो।
 
अदालत ने कहा कि सक्सेना पर हवाला लेनदेन में संलिप्तता और विदेशी संस्थाओं के लिए गुजरात के लोगों के हितों से समझौता करने जैसे निराधार आरोप शिकायतकर्ता की सार्वजनिक छवि और विश्वसनीयता को खत्म करने के लिए लगाए गए थे।
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अदालत ने पाटकर की ‘प्रोबेशन’ का लाभ दिए जाने की याचिका को खारिज कर दिया और कहा कि राहत पर आमतौर पर पहली बार अपराध करने वालों या ऐसे अपराधों के लिए विचार किया जाता है, जिनका पीड़ित पर प्रभाव न्यूनतम होता है और ऐसे मामलों में जहां अपराधी ने वास्तव में पश्चाताप किया हो।
 
अदालत ने कहा कि हालांकि वर्तमान मामले में पाटकर के कृत्यों में अत्यधिक गंभीरता और जानबूझकर की गई कार्रवाई दिखा, जिसका उद्देश्य स्पष्ट रूप से शिकायतकर्ता की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाना था और शिकायतकर्ता को पहुंचाई गई क्षति के लिए पश्चाताप या जिम्मेदारी स्वीकार करने का कोई संकेत नहीं था।
 
अपराध की गंभीरता को दर्शाने वाली सजा आवश्यक : इसने कहा कि ‘प्रोबेशन’ प्रदान करने से अपराध की गंभीरता कमतर होगी और भविष्य में इसी तरह की दुर्भावनापूर्ण कृत्यों को रोकने के लिए अपराध की गंभीरता को दर्शाने वाली सजा आवश्यक है। अदालत ने कहा कि इसके अलावा, इस मामले में ‘प्रोबेशन’ की अनुमति देना न्याय के सिद्धांतों के विपरीत होगा।
 
सक्सेना की ओर से पेश हुए अधिवक्ता गजिंदर कुमार और किरण जय ने अदालत से अनुरोध किया कि जुर्माने की राशि दिल्ली राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) को दी जाए, जिस पर अदालत ने कहा कि मुआवजा मिलने पर वे अपनी इच्छा के अनुसार राशि का वितरण कर सकते हैं। इस अपराध के लिए अधिकतम दो वर्ष तक की साधारण कारावास या जुर्माना या दोनों की सजा हो सकती है।
 
सक्सेना ने अहमदाबाद स्थित एनजीओ ‘नेशनल काउंसिल ऑफ सिविल लिबर्टीज’ के अध्यक्ष के रूप में पाटकर के खिलाफ 24 नवंबर, 2000 को मामला दायर किया था। सक्सेना ने पाटकर के खिलाफ यह मामला उनके खिलाफ उस साल 24 मई को जारी अपमानजनक प्रेस विज्ञप्ति के लिए दायर किया था।
 
गत 24 मई को अदालत ने कहा था कि सक्सेना को देशभक्त नहीं, बल्कि कायर कहने वाला और हवाला लेनदेन में उनकी संलिप्तता का आरोप लगाने संबंधी पाटकर का बयान न केवल अपने आप में मानहानि के समान है, बल्कि इसे नकारात्मक धारणा को उकसाने के लिए गढ़ा गया था।
 
ईमानदारी और सार्वजनिक सेवा पर सीधा हमला : अदालत ने कहा था कि साथ ही यह आरोप कि शिकायतकर्ता गुजरात के लोगों और उनके संसाधनों को विदेशी हितों के लिए गिरवी रख रहा है, उनकी ईमानदारी और सार्वजनिक सेवा पर सीधा हमला है। सजा पर अदालत में बहस 30 मई को पूरी हो गई थी, जिसके बाद फैसला 7 जून को सुरक्षित रख लिया गया था।
 
पाटकर और सक्सेना के बीच वर्ष 2000 से ही एक कानूनी लड़ाई जारी है, जब पाटकर ने अपने और नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) के खिलाफ विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए सक्सेना के विरुद्ध एक वाद दायर किया था। सक्सेना ने एक टीवी चैनल पर उनके (सक्सेना) खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी करने और प्रेस में मानहानिकारक बयान जारी करने के लिए भी पाटकर के खिलाफ 2001 में दो मामले दायर किए थे।(भाषा)
Edited By : Chetan Gour 

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