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प्रवासी साहित्य : एक घर था मन का बसेरा...
रेखा भाटिया
मेरा भी एक घर था मेरे मन का बसेरा,
मेरे अंदर का सागर मेरा उन्माद,
जो हरकत लेता और बदले में देता वजहें,
मैं हंस पड़ती अनायास ही खुशी को वजह देता।
मोहल्ले की छोटी गलियों में घर के नन्हे गलियारों में,
खनका करती थी हंसी मेरे मासूम बचपन की,
गली के गाय, कुत्तों, बच्चों, बूढ़ों सभी से थी भली पहचान,
भीगी बहती हवा के खुशबूदार झोंकों में हिंडोले में पैर पसारे।
चिड़िया, गिलहरी, कौवे की कांव आंगन के जैतून के पेड़ पर,
आकाश जितनी ऊंची खुली खिड़की जैसी बालकनी,
गली के बच्चों की शरारतों की योजना स्थली,
भागकर छज्जे से ऊंची उठती इमारतें निहारना।
वो ऊंचाइयां सृजन करतीं भविष्य की परछाइयां,
बीतेगा आने वाला वक्त किन्हीं फिल्मी ऊंची इमारतों में,
मीलों फैली हरियाली अंतिम छोर तक समुन्दर आए नजर,
उड़नखटोले में पहुंचेंगे जादुई नगरी में होगा घर।
पापा थे हंसते-पुलकित होते जान सपनों का सहस्य,
खूब साथ दिया पापा खूब बलिदान दिया पापा,
देश-विदेश का ज्ञान दिया, भाषा-विज्ञान का व्याख्यान,
गणित की गणनाएं, भूगोल-इतिहास सब सरल किया।
वो कब जगे, कब सोए पता नहीं हम तो सपनों में खोए,
योग-संस्कारों का बीज भी बो ही दिया था तुमने,
किसी दर-दिशा गुरु न खोजा भरपूर थी आपकी शिक्षा,
आपकी चौड़ी छाती बनती मेरे बचपन का अखाड़ा।
विद्वान संतान आपकी उतरी है जीवन अखाड़े में,
जादुई नगरी ऊंची इमारतें सपनों का घर है सब,
चारों ओर रोशनी है फिर भी हटता नहीं भीतर अंधेरा,
वर्षों बाद उड़नखटोले से उतर देखी करीब से झुर्रियां।
धुंधली पड़ी नजर, लचर कानों पर झुका चश्मा,
कितने शब्द कह गई एक सांस में कहती गई,
सपनों के रहस्य की हकीकत पापा बतानी है,
आप बेबस, मैं बेबस किया, उम्र ने कितना बेबस।
आप सुन न पाए मेरी भावनाओं की सुनामी में,
मंद-मंद मुस्कराए, हाथ रख माथे डगडगमाए,
घर चलते हैं, थक गया हूं प्रतीक्षा लंबी थी,
अब मेरी प्रतीक्षा लंबी है, मेरे मन का बसेरा।
मेरा घर वो बीते सुनहरे पल क्या लौट आएंगे,
मेरी खोखली हंसी में देते अनायास ही खुशी के पल!
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