महाकुंभ में क्यों अलग है निर्मल अखाड़ा, गुरुनानक देव से जुड़ा है इतिहास

WD Feature Desk
शुक्रवार, 31 जनवरी 2025 (17:02 IST)
Nirmal Panchaiti Akhara Story: महाकुंभ में जब हम नागा साधुओं को देखते हैं तो हमारी नजर में एक छवि बन जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि सभी साधु एक जैसे नहीं होते? निर्मल अखाड़ा ऐसा ही एक अखाड़ा है जो अन्य अखाड़ों से काफी अलग है। यहां शरीर पर भस्म लगाने या धूनी रमाने की परंपरा नहीं है। यहां साधु नग्न नहीं रहते, उनके शरीर पर वस्त्र होते हैं और वे तपस्वी कहलाते हैं। आइए जानते हैं इस अखाड़े के बारे में विस्तार से।

निर्मल अखाड़े की स्थापना और इतिहास
निर्मल अखाड़े की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुई थी। इस अखाड़े के संस्थापक गुरु नानक देव जी के शिष्य भाई भागीरथ थे। गुरु नानक देव जी ने भाई भागीरथ को निर्मल वचन दिए थे, जिसके आधार पर इस संप्रदाय की स्थापना हुई।

निर्मल अखाड़े की विशेषताएं
 
निर्मल संप्रदाय की नींव
निर्मल संप्रदाय की नींव स्वयं गुरु नानक देव ने 1564 में रखी थी। भाई भागीरथ की कठिन तपस्या से प्रसन्न होकर गुरु नानक देव ने उन्हें मूल मंत्र का उपदेश और निर्मल वख भेंट किए थे।

अखाड़े की स्थापना
श्री पंचायती निर्मल अखाड़ा की स्थापना 1862 में पटियाला में हुई थी। अखाड़े से जुड़े अनुयायी सिख धर्म के सभी 10 गुरुओं और गुरु ग्रंथ साहिब को अपना इष्ट मानते हैं। निर्मल अखाड़े की स्थापना गुरु नानक देव जी ने की और गोबिंद सिंह ने इसे धार दी। 1686 में गुरु गोबिंद सिंह ने पांच सिखों बीर सिंह, गैंदा सिंह, करम सिंह, राम सिंह और सैना सिंह को वाराणसी में संस्कृत और शास्त्रों का अध्ययन करने भेजा था।

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शिक्षा और विद्वत्ता
वाराणसी के पंडितों ने इन्हें शिक्षा देने से ये कहते हुए मना कर दिया कि ये लोग ब्राह्मण नहीं हैं। इसलिए इन्हें वेदों की शिक्षा नहीं दी जा सकती। पांचों ने वापस आकर ये बात गुरु गोबिंद सिंह को बताई। इसके बाद गुरुदेव ने पांचों को गेरुआ वस्त्र पहनाकर साधु की उपाधि दी।
वाराणसी के पंडितों को संदेश भिजवाया गया कि साधु की कोई जाति नहीं होती है, अब आप इन्हें हिंदू धर्म के शास्त्रों की शिक्षा दें। उन्होंने 13 साल तक काशी में रहकर वेद, वेदांग, शास्त्र, पुराण, इतिहास का अध्ययन किया। कहते हैं कि वेदों की शिक्षा लेने के बाद पांचों सिखों ने उन्हीं विद्वानों को शास्त्रार्थ में हरा दिया जिनसे उन्होंने शिक्षा ली थी।

निर्मल की उपाधि
जब यह पांचों शिक्षित होकर आनंदपुर साहिब पहुंचे तो इन्हें निर्मल की उपाधि दी गई। कई लोगों का मानना है कि यहीं से निर्मल संप्रदाय की शुरुआत हुई। अखाड़े के पहले श्रीमहंत यानी अध्यक्ष मेहताब सिंह को बनाया गया। इस अखाड़े के तहत बहुत सारे डेरे आते हैं।

13वें अखाड़े की मान्यता
18वीं शताब्दी के आखिरी में हरिद्वार में कुंभ का आयोजन हुआ। इसमें निर्मल अखाड़े के संत भी शामिल हुए। निर्मल सम्प्रदाय के संरक्षक राजा साहेब सिंह के नेतृत्व में 10-11 हजार घुड़सवार सिख संतों ने हरिद्वार पहुंचकर स्नान घाटों पर कब्जा कर लिया। बाद में नागा संत स्नान करने आए तो उन्होंने विरोध किया। इससे दोनों ओर से युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में कई नागा संत मारे गए। इसके बाद निर्मल संप्रदाय को 13वें अखाड़े के रूप में मान्यता मिली।

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