भीष्म पितामह जयंती : पढ़ें महाभारत के नायक गंगापुत्र की पौराणिक कथा

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* भीष्म पितामह की जयंती पर विशेष... 
 
10 जनवरी 2018 को भीष्म पितामह की जयंती है। भीष्म पितामह का नाम सुनते ही हमें एक पराक्रमी योद्धा का सशक्त चेहरा याद आता है। एक ऐसा पितृभक्त पुत्र जिसने अपना पूरा जीवन एक प्रतिज्ञा को निभाने में बिता दिया। एक ऐसे निष्काम कर्मयोगी, जिसने अपने पिता के लिए अपने जीवन, अपनी इच्छाओं और सुखों का त्याग कर दिया।

 
धार्मिक शास्त्रों के अनुसार माघ मास के कृष्ण पक्ष की नवमी को भीष्म पितामह की जयंती मनाई जाती है। भीष्म पितामह महाभारत की कथा के एक ऐसे नायक हैं, जो प्रारंभ से अंत तक इसमें बने रहे। उन्होंने जीवनभर अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया और हस्तिनापुर को सुरक्षित हाथों में देखकर ही अपने प्राणों का त्याग किया। उन्हें देवव्रत व गंगापुत्र आदि नामों से भी जाना जाता है। 
 
महाभारत में भीष्म पितामह की कथा का उल्लेख है, जो इस प्रकार है- गंगापुत्र भीष्म पिछले जन्म में द्यौ नामक वसु थे। एक बार पृथु आदि वसु अपनी पत्नियों के साथ मेरु पर्वत पर भ्रमण कर रहे थे। वहां वशिष्ठ ऋषि का आश्रम भी था। एक वसु पत्नी की दृष्टि ऋषि वशिष्ठ के आश्रम में बंधी नन्दिनी नामक गाय पर पड़ गई। यह गाय समस्त कामनाओं की पूर्ति करने वाली थी। उसने उसे अपने पति द्यौ नामक वसु को दिखाया तथा कहा कि वह यह गाय अपनी सखियों के लिए चाहती है। आप इसे हर लें। पत्नी की बात मानकर द्यौ ने अपने भाइयों के साथ उस गाय को हर लिया। वसु को उस समय इस बात का ध्यान भी नहीं रहा कि वशिष्ठ ऋषि बड़े तपस्वी हैं और वे हमें श्राप भी दे सकते हैं। जब महर्षि वशिष्ठ अपने आश्रम आए तो उन्होंने दिव्य दृष्टि से सारी बातें जान लीं। वसुओं के इस कार्य से क्रोधित होकर ऋषि ने उन्हें मनुष्य योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया।

 
वसुओं को जब यह बात पता चली तो वे ऋषि वशिष्ठ से क्षमा मांगने आए तब ऋषि ने कहा कि बाकी सभी वसुओं को तो शीघ्र ही मनुष्य योनि से मुक्ति मिल जाएगी लेकिन इस द्यौ नामक वसु को अपने कर्म भोगने के लिए बहुत दिनों तक पृथ्वीलोक में रहना पड़ेगा। यह पृथ्वी पर संतानहीन रहेगा। महाभारत के अनुसार गंगापुत्र भीष्म वह द्यौ नामक वसु थे। श्राप के प्रभाव से वे लंबे समय तक पृथ्वी पर रहे तथा अंत में इच्छामृत्यु से प्राण त्यागे।

 
भीष्म पितामह के पिता का नाम राजा शांतनु था। एक बार शांतनु शिकार खेलते-खेलते गंगा तट पर जा पहुंचे। उन्होंने वहां एक बहुत ही सुंदर स्त्री देखी। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए। शांतनु ने उसका परिचय पूछते हुए उसे अपनी पत्नी बनने को कहा। उस स्त्री ने इसकी स्वीकृति दे दी लेकिन एक शर्त रखी कि आप कभी भी मुझे किसी भी काम के लिए रोकेंगे नहीं अन्यथा उसी पल मैं आपको छोड़कर चली जाऊंगी। 
 
शांतनु ने यह शर्त स्वीकार कर ली तथा उस स्त्री से विवाह कर लिया। इस प्रकार दोनों का जीवन सुखपूर्वक बीतने लगा। समय बीतने पर शांतनु के यहां 7 पुत्रों ने जन्म लिया लेकिन सभी पुत्रों को उस स्त्री ने गंगा नदी में डाल दिया। शांतनु यह देखकर भी कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि उन्हें डर था कि यदि मैंने इससे इसका कारण पूछा तो यह मुझे छोड़कर चली जाएगी। 8वां पुत्र होने पर जब वह स्त्री उसे भी गंगा में डालने लगी तो शांतनु ने उसे रोका और पूछा कि वह यह क्यों कर रही है? 
 
उस स्त्री ने बताया कि वह गंगा है तथा जिन पुत्रों को उसने नदी में डाला था, वे वसु थे जिन्हें वशिष्ठ ऋषि ने श्राप दिया था। उन्हें मुक्त करने लिए ही मैंने उन्हें नदी में प्रवाहित किया। आपने शर्त न मानते हुए मुझे रोका इसलिए मैं अब जा रही हूं। ऐसा कहकर गंगा शांतनु के 8वें पुत्र को लेकर अपने साथ चली गई। 
 
गंगा जब शांतनु के 8वें पुत्र को साथ लेकर चली गई तो राजा शांतनु बहुत उदास रहने लगे। इस तरह थोड़ा और समय बीता। शांतनु एक दिन गंगा नदी के तट पर घूम रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि गंगाजी में बहुत थोड़ा जल रह गया है और वह भी प्रवाहित नहीं हो रहा है। इस रहस्य का पता लगाने जब शांतनु आगे गए तो उन्होंने देखा कि एक सुंदर व दिव्य युवक अस्त्रों का अभ्यास कर रहा है और उसने अपने बाणों के प्रभाव से गंगा की धारा रोक दी है। 
 
यह दृश्य देखकर शांतनु को बड़ा आश्चर्य हुआ तभी वहां शांतनु की पत्नी गंगा प्रकट हुईं और उन्होंने बताया कि यह युवक आपका 8वां पुत्र है। इसका नाम देवव्रत है। इसने वशिष्ठ ऋषि से वेदों का अध्ययन किया है तथा परशुरामजी से इसने समस्त प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला सीखी है। यह श्रेष्ठ धनुर्धर है तथा इन्द्र के समान इसका तेज है। 
 
देवव्रत का परिचय देकर गंगा उसे शांतनु को सौंपकर चली गईं। शांतनु देवव्रत को लेकर अपनी राजधानी में लेकर आए तथा शीघ्र ही उसे युवराज बना दिया। गंगापुत्र देवव्रत ने अपनी व्यवहारकुशलता के कारण शीघ्र प्रजा को अपना हितैषी बना लिया। 
 
एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम रहे थे तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषाद कन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं। 
 
यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया, क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी।

 
तब निषादराज ने कहा कि यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखंड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम 'भीष्म' पड़ा। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। 

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