प्रेम संदेश देती कविता : कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार

राकेशधर द्विवेदी
कागा तुम नहीं आते मेरे द्वार
वर्षों पहले तुम आते थे
अपनी कांव-कांव से यह बताते थे
कि प्रिय घर आने वाले हैं।
और मैं सज धज कर
तैयार हो जाती थी,
तुम्हारे इंतजार में। 
और प्रेम कबूतर तुम
तुम भी नहीं आते हो 
न चिट्ठियां लेकर जाते हो
न साजन का कोई नया संदेश सुनाते हो
न निशि दिन छत की मुंडेर पर खड़ी
निर्मल आकाश को निहारती रहती हूँ
और तुम ‘निष्ठुर’ पक्षी नहीं आते हो 
और हीरामन तुम
तुमने तो न जाने कितनी बार
पिया मिलन की आस जगाई
बार-बार उनका नाम पुकार मेरी प्रीत खूब बढ़ाई।
खैर मैने भी तुम्हारी निष्ठुरता से तंग आकर
एक वैज्ञानिक यंत्र कम्यूटर से दोस्ती कर ली
और प्रतिदिन ई-मेल चैटिंग से 
प्रेम पथ पर बढ़ रहे हैं 
महीनों बाद आज फिर तुम तीनों की याद आई है।
क्योंकि आज मेल बाउंस हो गया है। 
और संदेशे का जवाब आया है कि 
प्राप्तकर्ता अपने पते पर उपलब्ध नहीं है।  
इसलिए तुम तीनों से हाथ जोड़कर है ये गुहार
कि फिर से पधारो म्हारे द्वार!
 

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