क्या चार युगों की धारणा विकासवादी सिद्धांत के विपरीत है?

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।।वेद पढ़े न जो प्राणी।। समझे न सार रहे अज्ञानी।।
।।कलिमल ग्रसे धर्म सब लुप्त भए सदग्रंथ।
दंभिन्ह निज मति कल्पि करि प्रगट किए बहु पंथ॥97 क॥
भावार्थ:-कलियुग के पापों ने सब धर्मों को ग्रस लिया, सद्ग्रंथ लुप्त हो गए, दम्भियों ने अपनी बुद्धि से कल्पना कर-करके बहुत से पंथ प्रकट कर दिए॥ रामचरित मानस उत्तरकांड 97 (क)
 
दोषारोपण : अक्सर लोग यह आरोप लगाते रहे हैं कि हिन्दू धर्म के चार युगों वाला सिद्धांत विकासवादी सिद्धांत के विपरीत और अवैज्ञानिक है। ऐसे लोग डार्विन या अन्य विकासवादी सिद्धांत के जनकों का हवाला देकर कहते हैं कि मनुष्य वानर के एक रूप से विकसित होकर मनुष्य बना। मनुष्‍य को मनुष्य बनने में लाखों वर्ष लगे। पहले मनुष्य जंगली था और अब सभ्य है। पहले धरती पर इतना विकास नहीं हुआ था लेकिन आज मानव चांद पर पहुंच गया है। आज हम जिस युग में जी रहे हैं वह सबसे अच्‍छा युग है जबकि हिन्दू धर्म के अनुसार सतयुग सबसे अच्छा युग था। हिन्दू धर्म की यह धारणा अवैज्ञानिक है।
 
 
दरअसल, इसमें उन लोगों का दोष नहीं है यह चारों युगों की धारणा को अच्छे से न समझ पाने का दोष है। युगों की धारणा को समझना जब कठिन होता है तो हम उसे यह बोलकर खारिज कर सकते हैं कि यह अवैज्ञानिक है। जरूरी है कि हम पहले इसे पूर्णत: समझे और फिर इसकी आलोचना करें। समझे बगैर आलोचना वे करते हैं जिन्हें अपना कोई हिडन एजेंडा चलाना हो।
 
युग क्या है?
हिन्दू धर्म की कालगणना वृहत्तर है। एक पल से एक कल्प तक का समय का विभाजन किया गया है। आपने सुना ही होगा मध्ययुग, आधुनिक युग, वर्तमान युग जैसे अन्य शब्दों को। इसका मतलब यह कि युग शब्द को कई अर्थों में प्रयुक्त किया जाता रहा है। ज्योतिषानुसार 5 वर्ष का एक युग होता है। संवत्सर, परिवत्सर, इद्वत्सर, अनुवत्सर और युगवत्सर ये युगात्मक 5 वर्ष कहे जाते हैं। बृहस्पति की गति के अनुसार प्रभव आदि 60 वर्षों में 12 युग होते हैं तथा प्रत्येक युग में 5-5 वत्सर होते हैं। 12 युगों के नाम हैं- प्रजापति, धाता, वृष, व्यय, खर, दुर्मुख, प्लव, पराभव, रोधकृत, अनल, दुर्मति और क्षय। प्रत्येक युग के जो 5 वत्सर हैं, उनमें से प्रथम का नाम संवत्सर है। दूसरा परिवत्सर, तीसरा इद्वत्सर, चौथा अनुवत्सर और 5वां युगवत्सर है।
 
 
दूसरी ओर, पौराणिक मान्यता अनुसार एक युग लाखों वर्ष का होता है, जैसा कि सतयुग लगभग 17 लाख 28 हजार वर्ष, त्रेतायुग 12 लाख 96 हजार वर्ष, द्वापर युग 8 लाख 64 हजार वर्ष और कलियुग 4 लाख 32 हजार वर्ष का बताया गया है। उक्त युगों के भीतर ही यह चार तरह के युगों का क्रम भी होता है। अर्थात कलियुग में ही सतयुग का एक दौर आएगा, उसी में त्रैता और द्वापर भी होगा। पहले सतयुग था, फिर त्रैतायुग हुआ, फिर द्वापर युग हुआ और अब कलियुग है।
 
 
धर्म के पैर : कभी कोई इस पर विचार नहीं करता कि त्रै‍तायुग दूसरे नंबर का युग है लेकिन उसे त्रैता क्यों कहा गया और द्वापर तीसरे नंबर का है लेकिन उसे द्वापर क्यों कहा गया? दरअसल, सतयुग में प्रतिकात्मक तौर पर धर्म के चार पैर थे, त्रैता में तीन पैर, द्वापर में दो पैर और अब कलिकाल में धर्म के पैरों का कोई नामोनिशान नहीं है। धर्म अब पंगु बन गया है। यह धर्म के उत्थान, विकास और पतन के अनुसार युगों का निर्धाण किया गया है। साथ ही मनुष्य की ऊंचाई, योग्यता, क्षमता और मानसिक दृढ़ता के भी उत्थान, विकास और पतन के अनुसार युग की धारणा नियुक्त की गई है।
 
 
उत्थान और पतन का सिद्धांत : हिन्दू धर्म में विकासवादी सिद्धांत को चक्रों के अनुसार बताया गया है। विकास के दो आयाम है। पहला शारीरिक विकासक्रम जो कि प्राकृतिक विकासक्रम का एक हिस्सा है और दूसरा मानसिक विकास क्रम जो कि चेतना के विकासक्रम का एक हिस्सा है। शारीरिक तो आप समझते ही है कि मनुष्‍य किस तरह वानर से मनुष्य बन गया लेकिन चेतना के विकासक्रम के अनुसार चेतना या कहें कि आत्मा ने अपनी इच्‍छा से उपर के शरीरों में विकास किया। जैसे आत्मा ने पहले खुद को जड़ जगत अर्थात पत्थर, पेड़-पौधे इत्यादि में व्यक्त किया, फिर प्राण जगत अर्थात पशु और पक्षियों में, फिर मनुष्य अर्थात मन के जगत में खुद को अभिव्यक्त किया। शरीर के आकार-प्रकार की यह यात्रा चेतना के विकास से भी जुड़ी हुई है। इससे समझने के लिए महर्षि अरविंद के विकासवासी सिद्धांत को समझना चाहिए। 
 
निश्चित ही मनुष्‍य विकासक्रम में मनुष्‍य बना है लेकिन हिन्दू धर्म अनुसार विकासक्रम में सबकुछ घटता जाता है, जैसे पहले मनुष्‍य की आयु औसत आयु 300 से 500 वर्ष के बीच हुआ करती थी लेकिन अब औसत आयु 60 से 70 के बीच ही रह गई है। इस शारीरिक पतन के साथ ही मनुष्‍य का मानसिक पतन भी हुआ। पहले 100 में से 98 मनुष्यों की बुद्धि निर्मल और संवेनदशील हुआ करती थी लेकिन अब इसका उल्टा है। पहले का मनुष्य ज्यादा समझदार और शांतिप्रिय हुआ करता था लेकिन अब का मनुष्य मूर्ख, क्रोधी, फरेबी, झूठा, नास्तिक, अधर्मी और हिंसक है।
 
 
निश्‍चित ही मनुष्य ने अपनी बुद्धि कौशल से बड़ी-बड़ी इमारतें और अत्याधुनिक वायुयान बना लिए हैं, लेकिन वह प्राचीनकाल के मनुष्यों से हर तरह से कमजोर है। ऐसा नहीं है कि आज हम जो विकास देख रहे हैं वह आज ही हुआ है। प्राचीनकाल के मनुष्य भी हवा में उड़ते थे और वे भी अंतरिक्ष में आते-जाते थे। इसके कई उदाहरण और सबूत प्रस्तुत किए जा सकते हैं। भले ही विज्ञान ने कितनी ही तरक्की कर ली हो लेकिन आज का मनुष्य गीजा के पिरामिड या अजंता-ऐलोरा का कैलाश मंदिर बनाने में सक्षम नहीं है। आज का मनुष्य बगैर घड़ी के समय बताने में सक्षम नहीं है। ऐसी कई बातें हैं जो प्राचीनकाल के मनुष्‍यों को वर्तमान के मनुष्यों से श्रेष्ठ सिद्ध करती है।
 
 
प्राचीनकाल में हवा, खाद्यपदार्थ और जल शुद्ध हुआ करता था। वर्तमान में सभी कुछ अशुद्ध है। क्या यह पतनकाल नहीं है। मनुष्य जन्म लेता है तो बच्चा होता है फिर बढ़ता है तो किशोर होता है, फिर वह जवान होता है और अंत में वह बुढ़ा होकर मर जाता है। उसी तरह हिन्दू धर्मानुसार संपूर्ण मनुष्‍य जाती और इस जगत की भी उम्र तय है। धरती का शैशवकाल, किशोरकाल, युवा काल और अंत में वृद्धकाल। चारों युगों की धारणा इसी पर टीकी हुई है।
 
 
1.सतयुग : सतयुग में मनुष्य की लंबाई 32 फिट अर्थात लगभग 21 हाथ बतायी गई है। इस युग में पाप की मात्र 0 विश्वा अर्थात् (0%) होती है। पुण्य की मात्रा 20 विश्वा अर्थात् (100%) होती है।
 
2.त्रेतायुग : त्रेतायुग में मनुष्य की लंबाई 21 फिट अर्थात लगभग 14 हाथ बतायी गई है। इस युग में पाप की मात्रा 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है और पुण्य की मात्रा 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है।
 
3.द्वापर : द्वापरयुग में मनुष्य की लंबाई 11 फिट अर्थात लगभग 7 हाथ बतायी गई है। इस युग में पाप की मात्रा 10 विश्वा अर्थात् (50%) होती है जबकि पुण्य की मात्रा 10 विश्वा अर्थात् (50%) होती है।
 
 
4.कलियुग : कलियुग में मनुष्य की लंबाई 5 फिट 5 इंच अर्थात लगभग साढ़े तीन हाथ बतायी गई है। इस युग में धर्म का सिर्फ एक चैथाई अंश ही रह जाता है। इस युग में पाप की मात्रा 15 विश्वा अर्थात् (75%) होती है, जबकि पुण्य की मात्रा 5 विश्वा अर्थात् (25%) होती है।
 
मनुष्य की उत्पत्ति : मनुष्य की उत्पत्ति का सिद्धांत हर धर्म में अलग-अलग है। हालांकि विज्ञान सभी से अलग सिद्धांत प्रतिपादित करता है। यदि हम बाइबल में उल्लेखित आदम से लेकर ईसा मसीह तक के ईशदूतों की उम्र की गणना करें तो 3,572 वर्ष मनुष्य की उत्पत्ति के होते हैं। ईसाई मत के जानकार स्पीगल के अनुसार यह अवधि 6,993 वर्ष की मानी गई है और कुछ और संशोधनवादियों ने यह समय 7,200 वर्ष माना है अर्थात मनुष्य की उत्पत्ति हुए मात्र 7,200 वर्ष से कुछ अधिक समय व्यतीत हो चुका है। लेकिन हिन्दू धर्म में इसको लेकर भिन्न मान्यता है।
 
 
संसार के इतिहास और संवतसरों की गणना पर दृष्टि डालें तो ईसाई संवत सबसे छोटा अर्थात 2016 वर्षों का है। सभी संवतों की गणना करें तो ईसा संवत से अधिक दिन मूसा द्वारा प्रसारित मूसाई संवत 3,583 वर्ष का है। इससे भी प्राचीन संवत युधिष्ठिर के प्रथम राज्यारोहण से प्रारंभ हुआ था। उसे 4,172 वर्ष हो गए हैं। इससे पहले कलियुगी संवत शुरू 5,117 वर्ष पहले शुरू हुआ।
 
इब्रानी संवत के अनुसार 6,029 वर्ष हो चुके हैं, इजिप्शियन संवत 28,669 वर्ष, फिनीशियन संवत 30,087 वर्ष। ईरान में शासन पद्धति प्रारंभ हुई थी तब से ईरानियन संवत चला और उसे अब तक 1,89,995 वर्ष हो गए। ज्योतिष के आधार पर चल रहे चाल्डियन संवत को 2,15,00,087 वर्ष हो गए। खताई धर्म वालों का भी हमारे भारतीयों की तरह ही विश्वास है कि उनका आविर्भाव आदिपुरुष खता से हुआ। उनका वर्तमान संवत 8,88,40,388 वर्ष का है। चीन का संवत जो उनके प्रथम राजा से प्रारंभ होता है वह और भी प्राचीन 9,60,02,516 वर्ष का है।
 
 
अब हम अपने वैवस्तु मनु का संवत लेते हैं, जो 14 मन्वंतरों में से एक है। उससे अब तक का मनुष्योत्पत्ति काल 12,05,33,117 वर्ष का हो जाता है जबकि हमारे आदि ऋषियों ने किसी भी धर्मानुष्ठान और मांगलिक कर्मकांड के अवसर पर जो संकल्प पाठ का नियम निर्धारित किया था और जो आज तक ज्यों का त्यों चला आता है उसके अनुसार मनुष्य के आविर्भाव का समय 1,97,29,447 वर्ष होता है।

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