जानिए क्या है गाणपत्य संप्रदाय, गणेश चतुर्थी पर विशेष

जानिए क्या है गाणपत्य संप्रदाय  गणेश चतुर्थी पर विशेष | ganapatya sampradaya
अनिरुद्ध जोशी
हिंदू धर्म की सभी विचारधारा या संप्रदाय वेद से निकले हैं। वेदों में ईश्वर, परमेश्वर या ब्रह्म को ही सर्वोच्च शक्ति माना गया है। सदाशिव, दुर्गा, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, भैरव, काली आदि सभी उस सर्वोच्च शक्ति का ही ध्यान करते हैं। सभी संप्रदाय मूल में उसी सर्वोच्च शक्ति के बारे में बताते हैं।
 
 
हिन्दू धर्म में मूलत: वैदिक, शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, कौमारम, तांत्रिक और स्मार्त संप्रदाय का उल्लेख मिलता है। आओ जानते हैं हिन्दू धर्म के गाणप्तय संप्रदाय के बारे में संक्षिप्त जानकारी।
 
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पार्वती के पुत्र गजानन गणेश के भक्तों के समूह को ही गाणपत्य संप्रदाय का माना जाता है, जो गूढ़ हिंदू संप्रदाय के सदस्य हैं। इस संप्रदाय का प्रचलन महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में था। भगवान गणेश की प्रतिमा और उनकी पूजा दुनियाभर की प्राचीन सभ्यताओं प्रचलित थी। लगभग 10वीं सदी तर यह संप्रदाय अपने चरम पर रहा। इस सम्प्रदाय के लोग महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में ज्यादा हैं। हालांकि वर्तमान में हिन्दुओं के सभी संप्रदाय आपस में घुलमिल गए हैं और सभी सभी की पूजा करते हैं। 
 
 
गाणपत्य मानते हैं कि गणेश ही सर्वोच्च शक्ति हैं। गणेशजी की सगुण और निर्गुण दोनों ही रूप में पूजा होती है। इस संप्रदाय के लोग ही भाद्रपद के चतुर्थी को गणेश का जन्मोत्सव मनाते हैं। इस संप्रदाय ने गणेशजी को समर्पित अनेक मंदिर बनवाए, जिनमें सबसे बड़ा, तिरुचिरापल्ली (तमिलनाडु) में चट्टानों को काटकर बनाया गया मंदिर उच्चि-पिल्लैयार कोविल है। इस संप्रदाय के सदस्य माथे पर गोल लाल टीका लगाते हैं और कंधों पर हाथी का सिर और दांत का चिह्न अंकित करवाते हैं।
 
 
मोरिया गांव : मोरया गोसावी नाम के एक बहुत ही प्रसिद्ध भक्त थे। उनके पिता का नाम वामनभट और माता का नाम पार्वतीबाई था। वे लगभग सोलहवीं सदी (मतांतर से चौदहवीं सदी) में कर्नाटक से आकर पुणे के पास पुणे के समीप एक बस्ती में रहने लगे थे। वामनभट परम्परा से गाणपत्य सम्प्रदाय के थे। चिंचवड़ मोरयागांव नाम से विख्यात है। यहीं पर मोरया गोसावी ने जीवित समाधि ले ली थी।
 
 
तभी से यहां का गणेश मंदिर देश भर में विख्यात हुआ और गणेश भक्तों ने गणपति के नाम के साथ मोरया के नाम का जयघोष भी शुरू कर दिया। यहां गणेश की सिद्धप्रतिमा को मयूरेश्वर कहा जाता है। इसके अलावा सात अन्य स्थान भी थे जहां की गणेश-प्रतिमाओं की पूजा होती थी। थेऊर, सिद्धटेक, रांजणगांव, ओझर, लेण्याद्रि, महड़ और पाली अष्टविनायक यात्रा के आठ पड़ाव हैं।
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गणेश-पुराण के अनुसार दानव सिन्धु के अत्याचार से बचने के लिए देवताओं ने श्रीगणेश का आह्वान किया। सिन्धु-संहार के लिए गणेश ने मयूर को अपना वाहन चुना और छह भुजाओं वाला अवतार लिया। मोरगांव में गणेश का मयूरेश्वर अवतार ही है। इसी वजह से इन्हें मराठी में मोरेश्वर भी कहा जाता है।
 

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