The Kashmir Files: 'वेबदुनिया' ने बात की कश्मीरी पंडितों से, पीड़ितों से, चश्मदीदों से...हमने बात की उनसे जिन्होंने देखा, भोगा, सहा, झेला और जिया है...। उसी कड़ी में जानिए एक कश्मीरी महिला की कहानी, जो अपने बचपन में किस तरह अपने पिता के साथ जम्मू-उधमपुर आई। उसके पिता किस तरह कहां-कहां छिपते रहे और जब वे घर पर आए वेश बदलकर तो पूरा परिवार फूट-फूटकर रोया और वे किस तरह सभी को कश्मीर से रातोरात निकालकर जम्मू लेकर आए, लेकिन रात के उस सफर से कहीं भयानक था जम्मू का संघर्ष। पढ़िए शक्ति भट्ट की कहानी।
मैंने भी जब यह फिल्म देखी तो मुझे लगा ये तो मैं बचपन से देखती आई हूं। मैं ट्रक में कैसे चढ़ी थी और किस तरह रात का सफर किया था। हम श्रीनगर के पास बड़गाम में रहते थे। श्रीनगर के हालात बहुत ज्यादा खराब थे। हमारी भी ऐसी ही स्टोरी थी। हमारे पड़ोसियों ने ही हमें बोला कि चलो निकलो। इंफॉर्मर जो थे, वो हमारे अगल-बगल वाले ही थे। हमारे फादर भी लीडरशीप में थे। जैसा कि आपने पढ़ा भी होगा कि बिट्टा कराटे का जो इंटरव्यू हुआ था, उसमें भी जो उसने बोला था कि मैंने जो सबसे पहले मर्डर किया था, वह मैंने सतीश टिक्कू का किया था। वे एक्चुअल में मेरे फादर के फ्रेंड ही थे। तो वो जब हमने इंटरव्यू देखा और उनका फोटो देखा तो हमारी आंखों से उन दिनों आंसू बहे, जो पहली रील टेलीकास्ट हुई थी।
मेरे फादर भी उनके साथ ही थे, क्योंकि वे उनके साथ ही कार्य करते थे। मेरे फादर के लिए भी लेटर छोड़ा गया कि ऐसा है कि अब आपकी बारी है। आपके साथ भी ऐसा कुछ होने वाला है। हम भी बहुत छोटे-छोटे थे तो हम बहुत डर गए थे। मम्मी भी बहुत डर गई थी कि अब क्या होगा? तो मेरे फादर कभी किसी कजिन के यहां जाते थे तो कभी और कहीं। वो एक जगह स्थित नहीं रहते थे। हम भी किसी को नहीं बताते थे कि वे कहां हैं या क्या हैं? लेकिन पड़ोसी आते थे और पूछते हां, कैसे हो? क्या हालचाल है? मतलब वो इंफॉर्मेशन निकालते थे कि इसके पिताजी कहां हैं? इसके दादा कहां हैं? इसके अंकल कहां हैं? ताकि वहां जाकर उनको इंफॉर्म कर दें।
कई दिनों तक मेरे फादर भूखे-प्यासे कभी इस जगह तो कभी यहां-वहां भटकते रहते थे। वो क्या और कहां खाते थे, हमें नहीं पता। घर में कभी अलमारी तो कभी राइस के ड्रम में, जो आपने फिल्म में भी देखा होगा। वहां छुपते थे। ये सबने किया है। हर परिवार की यही कहानी है। ऐसा नहीं कि किसी एक आदमी ने किया है। जिस-जिस को जान बचानी होती थी, वह ड्रम में ही घुसता था। एक दिन ड्रम में घुसता था और अगले दिन जाता था किचन में, जो चिमनी होती थी। तब अलग टाइप की चिमनी होती थी जिसके होल में छुपता था। चिमनी के ऊपर जहां से धुआं निकलता है, वहां जाकर छुपता था। पुरुषों को मारते थे और औरतों का रेप करते थे। रेप करने के बाद चापिंग से मारते थे, जो कि मूवी में नहीं बताया। कई औरतों का रेप करके उन्हें काटा गया और उन्हें झेलम में बहा दिया गया। वो भी नहीं दिखाया गया। जितने भी सारे कश्मीरी पंडित मरे हैं ना, उनकी सारी बॉडी झेलम में है। झेलम में एक-एक करके जनेऊ का पहाड़ जैसा बन गया था। तब जाकर पता चला कि कितने लोग मारे होंगे।
मेरे फादर इधर-उधर घूमते हुए बचते रहे लेकिन मेरे अंकल को उन्होंने ढूंढकर पकड़ा और मार दिया। वो मेरे फादर से बड़े थे, उनको मार दिया। हमारे छोटे अंकल थे, जो हमारे साथ ही थे हमारी प्रोटेक्शन के लिए। आंटियां वगैरह सभी साथ में रहते थे। मेरे दादाजी भी थे साथ में तो उन्होंने सोचा कि अब बहुत ज्यादा हो गया, क्योंकि यहां से फादर के जितने भी फ्रेंड सर्कल के थे, वे सभी उड़ चुके थे। मतल मारे जा चुके थे। सिर्फ मेरे फादर ही बचे थे। मेरे फादर उन्हें मिल नहीं रहे थे। शायद 3-4 दिन से वे भूखे-प्यासे भटक रहे थे। वो काले हो चुके थे। फिर जैसे-तैसे वो पहुंचे जम्मू। जम्मू पहुंचकर कुछ दिनों का सेटलमेंट उन्होंने लिया और उसके बाद उन्होंने अपने आपको संभाला और फिर उन्होंने प्लानिंग किया कि मैं अपनी फैमिली को कैसे लाऊं? पलायन से पहले ही वो जम्मू चले गए थे।
फिर एक दिन मेरे फादर अपना गेटअप बदलकर आए। वो अपना लुक बदलकर आए। उन्होंने शेव रखी। खूब दाढ़ी-वाढ़ी आ गई थी। फिर वो टोपी पहनकर उन्हीं की तरह बनकर आ गए। वो घर पर आए तो पड़ोसियों को आइडिया नहीं लगा कि ये बंदा कौन है? वो सीधे अंदर आ गए तो हमने पहचाना नहीं और तब उन्होंने कहा कि मैं ही हूं। तब हम सभी उन्हें देखकर रो पड़े। सभी गले मिले। हम बोलने लगे कि 'पापा आ गए, पापा आ गए'।
उन्होंने सभी को चुप कराया और बोलने लगे कि 'आज शाम को हमें किसी भी तरह से यहां से निकलना है। मैंने ट्रक वाले से बात कर ली है।' हमारे यहां बड़ी फैमिली थी। मेरे 7 अंकल थे। मेरी चाची, ताइयां और उनके भी बच्चे थे। मेरे कजिन थे। मेरे एक अंकल को मार दिया गया था और एक कुंआरे थे। फिर मेरे पापा, मेरी दादी, दादा सबको लेकर चले गए। मेरे साथ ही दूसरी बगल की दीवार थी और वहां मेरे दादाजी के भाई रहते थे। हम सभी साथ में रहते थे। मैं छोटी थी लेकिन कोई भी बच्चा इस सदमे को भूल नहीं सकता। मुझे अभी भी पता है मेरे फादर का आना और सभी का रोना। मैं ट्रक में कैसे चढ़ी, मुझे याद है। मैं उनको रोकर बोलती थी कि मुझे भूख लग रही है।
वहां से निकलकर उधमपुर में हम रुके खाना खाने। वहां पर बकरियां थीं। मुझे पता है कि मेरे सामने एक बकरी थी। मैं उससे डरती थी। वहां अजीब-सा माहौल देखा। वो चीज है अभी भी मेरे आंखों के सामने और हम नहीं भूल पाए। सदमा कोई भूल नहीं सकता। फिर उसके बाद का तो पूछो ही मत। टेंटों में रहे। टेंटों में बिच्छू-कीड़े निकलते थे। कभी सांप भी निकलते थे। और हां, एक चीज यह कि औरतों को वॉशरूम जाने में इतना प्रॉब्लम, जो हम औरतों को ही पता है। हर जगह मर्द ही मर्द होते थे तो कितना दूर चलके जाना होता था, आप सोच सकते हैं। औरतों को पानी लाने के लिए भी बहुत जिल्लतें झेलना पड़ती थीं। पानी कहां मिलेगा? यह तलाश करना होता था। पानी के लिए लंबी लाइन लगती थी। कोई टेंट पर भी रहता था तो उसे भी बहुत तकलीफें थीं। उसे भी हर जगह ताने सुनने पड़ते थे। चाहे सब्जी लेने जाओ या पानी लेने।
इस फिल्म ने हमारे ज़ख़्म को कुरेदा है। लेकिन उससे हमें कोई बेनिफिट नहीं होगा। लेकिन हां, इंडिया को सचाई पता चली है। ये मैं बता सकती हूं आपको गारंटी के साथ कि उसमें 1-1 सेकंड का सीन है ना, वो सब सच है। तो मुझे वही लगा, जो मेरे घर में हुआ। पर फिल्म देखकर हमें वैसा कुछ नहीं हुआ, क्योंकि हम वो पहले ही भुगत चुके हैं। हर एक घर की अपनी यही स्टोरी है। 'द कश्मीर फाइल्स' में सिर्फ एक फैमिली की स्टोरी दिखाई गई है, पर ऐसी 2 लाख स्टोरीज़ होंगी। हर एक की अलग कहानी है। पर हां, कॉमन ये चीज़ है कि सभी को धोखे ही मिले हैं। अपने ही धोखे दे रहे हैं। सबको किसने फंसाया, अपने पड़ोसी ने या उसके फ्रेंड सर्कल ने?
हमारा भी 3 स्टोरी का बड़ा-सा मकान था। पहले उसका सारा सामान लूट लिया गया और फिर उसे जला दिया गया। हमारे अंकल का भी 3 मंजिल का मकान था। मेरे दादाजी जो थे, उनके 3 भाई थे, तीनों के भी मकान जला दिए गए। और जो हमारे खेत-खलिहान थे, उन पर उन्हीं ने कब्जा कर लिया। हमारा उधर अब कुछ भी नहीं बचा है। जो बचा बाद में, जैसे मकान जलने के बाद जो जमीन बची, उसे बेचने के लिए हमारे पड़ोसी ने हमारे दादा और मेरे पिता पर बहुत दबाव डाला। उसने कब्जा कर लिया था। बहुत समय तक केस चला। हम सभी डिप्रेशन में चले गए थे। वह आकर झगड़ा करता था कि हमें बेच दो। हमारे फादर कहते थे कि 'जिसके साथ बचपन से इतना बड़ा हुआ और आज वही कहता है कि इसे हमें बेच दो। वो कौन होता है ऐसा बोलने वाला?' मेरी दादी ने उसे खिलाती थीं और उसका ध्यान रखती थीं।
यह सच है कि मेरे दादा वगैरह सारे लोग यही चाहते थे कि हमारी जो अस्थियां हैं, वो इधर-उधर मत डालना, कश्मीर में जाकर जाकर उसी नदी में डालना। लेकिन कुछ लोग बोलते थे कि 'नहीं यार, मेरे घर के आंगन में डाल देना या हमारे पेड़ के पास डाल देना।' फिर बच्चे जाते थे और उसी में डालते थे। उनकी आत्मा की शांति के लिए, क्योंकि यह उनकी आखिरी ख्वाहिश होती थी।
हम जम्मू या उधमपुर में जहां भी टेंटों में रहे, बहुत ही दर्दभरे दिन गुजारे। फिर जब मैं 12वीं में पढ़ने लगी, तब हमने कुछ किया और वहां सेटल हुए। अभी भी 1 से 1.50 लाख लोग कैंपों में रह रहे हैं। हमारी पढ़ाई ने ही हमें बचाया है।
आपने पूछा कि आपकी सरकार से क्या अपेक्षा है? अब मुझे यह उम्मीद है कि इस 'द कश्मीर फाइल्स' को देखने के बाद हमारे दर्द को समझा होगा और वह शायद हमारे लिए कुछ करे, क्योंकि अब जो नई जनरेशन है, इसी पर टेस्ट है। इस जनरेशन के लिए कुछ नहीं किया तो फिर कुछ नहीं हो सकता। अब कुछ तो सुझाव दे, कुछ तो एक डिटरमिनेशन दें कि जिससे हमें आगे बढ़ने में मदद करे या हमारे बच्चों का भविष्य सुरक्षित करे, हमें सिक्यूरिटी दे। वो चाहें वहां दे या यहां दे। कुछ तो करे हमारे लिए। 32 साल से तो कुछ नहीं हुआ।
- शक्ति भट्ट (एक कश्मीरी पंडित)