टेराकोटा कला से गोरखपुर जिले के कुम्हारों की जिंदगी में आया बदलाव

गिरीश पांडेय
बाबा (गोरक्षपीठाधीश्वर के नाते पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ को लोग बाबा या महाराज के ही नाम से पुकारते हैं) ने हमारी मिट्टी को सोना बना दिया। टेराकोटा को गोरखपुर का ओडीओपी (एक जिला, एक उत्पाद) घोषित करने के साथ खुद ही वे इसके ब्रांड अम्बेसडर बन गए। हर मंच से उनके द्वारा इसकी चर्चा के नाते हमारे उत्पादों की जबरदस्त ब्रांडिंग हुई। ओडीओपी योजना के तहत मिलने वाली वित्तीय मदद पर अनुदान, नई तकनीक और विशेषज्ञों से मिलने वाले प्रशिक्षण ने सोने पर सुहागा का काम किया। नतीजा आपके सामने है। दीपावली तक सारा माल बिक गया। अब किसी के पास तैयार माल नहीं है। यही नहीं, मेरे जैसे कई लोगों के पास अगली दिवाली का आर्डर है और एडवांस भी।
 
यह कहना है गुलरिहा के 40 वर्षीय राजन प्रजापति का। ऐसा कहने वाले राजन अकेले नहीं हैं। उनके वर्कशॉप में काम कर रहे जगदीश प्रजापति, रविन्द्र प्रजापति और नागेंद्र प्रजापति भी हैं। माटी में जान डालने का हुनर रखने वाले ये सभी लोग उद्योग निदेशालय उत्तर प्रदेश सरकार से पुरस्कृत हो चुके हैं। राजन को और भी कई पुरस्कार मिल चुके हैं। वह माटी कला बोर्ड एवं राष्ट्रपति से भी सम्मान पा चुके हैं।
 
राजन के बाबा छांगुर गांव के आम कुम्हारों की तरह उस समय की जरूरत के अनुसार मटकी, हांडी, खोना, परई, भरूका, नाद, कोसा, दिया आदि बनाते और पकाते थे। उस समय तक औरंगाबाद (टेराकोटा का ओरिजन माना जाने वाला गांव) में हाथी, घोड़ा आदि बनाने की शुरुआत हो चुकी थी। राजन के बाबा ने इस हुनर को धीरे-धीरे सीख लिया। इसके बाद इनके पुत्र ने परंपरागत मिट्टी के बर्तन बनाने की जगह टेरकोटा पर ही फ़ोकस किया। सिर्फ हाईस्कूल तक पढ़े राजन भी बचपन से हाथ से चलने वाले चाक पर हाथ साफ करने लगे। धीरे-धीरे वह मिट्टी में जान डालने के हुनर में माहिर हो गए।
 
वित्तीय मदद, और नई तकनीक बनी 'सोने पर सुहागा' : यह पूछने पर कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा टेराकोटा को गोरखपुर का ओडीओपी घोषित करने से क्या लाभ हुआ। नागेन्द्र प्रजापति कहते हैं कि सोच भी नहीं सकते। वित्तीय मदद, इसके तहत मिलने वाले अनुदान, अद्यतन तकनीक और भरपूर बिजली से हम सबको बहुत लाभ हुआ। मसलन पहले हम चाक को हाथ से घुमाते थे। 
 
एक मानक गति के बाद मिट्टी को आकार देते थे। गति कम होने के बाद फिर उसी प्रक्रिया को दोहराते थे। इसमें समय एवं श्रम तो लगता ही था, उत्पादन भी कम होता था। अब तो बटन दबाया बिजली से चलने वाला चाक स्टार्ट हो जाता है। जब तक बिजली है, आप दिन रात काम करते रहिए। इससे हमारा उत्पादन दोगुने से अधिक हो गया। इसी तरह पहले हम पैर से मिट्टी गूंथते थे। वह अगले दिन चाक पर चढ़ाने लायक होती थी। पग मिलने यह काम आसान कर दिया। इससे दो घंटे में इतनी मिट्टी गूंथ दी जाती है कि आप हफ्ते-10 दिन तक उससे काम कर सकते हैं।
 
पहले हम हाथी, घोड़ा जैसे बड़े कच्चे आइटम बनाकर रंग-रोगन एवं डिजाइन के लिए उसे किसी ऊंची समतल जगह पर रखते थे। उसे घुमा-घुमा कर फिनिशिंग का काम करते थे। अब हमारे पास घूमने वाला डिजाइन टेबल है। उसे घुमाकर काम करने में आसानी होती है।
गोरखपुर के टेराकोटा की दक्षिण भारत में भी धूम : बकौल राजन हमारे उत्पादों की सर्वाधिक मांग दक्षिण भारत से होती है। मेरा खुद का 80 फीसद माल हैदराबाद, बंगलुरू, चेन्नई, विशाखापत्तनम, पांडिचेरी और मुंबई जाता है। समग्रता में देखें तो 60 फीसद मांग दक्षिण एवं पश्चिम भारत से ही होती है। इसमें कछुआ, झूमर, लालटेन आदि की सर्वाधिक मांग होती है।
 
साख अच्छी है तो ऑर्डर के साथ मिल जाता है एडवांस : पुराने व्यापारी जिन कलाकारों की अच्छी साख है, उनको मय साइज एवं संख्या माल का आर्डर देने के साथ एडवांस भी दे देते हैं। नए व्यापारी आकर पहले सौदा परखते हैं। जहां जंचा, वहां ऑर्डर एवं एडवांस कर जाते हैं। 2007 से मास्टर ट्रेनर राजन बताते हैं कि अगर आप हुनरमंद हैं, बाजार में आपकी अच्छी साख है तो आपके पास इतना आर्डर होगा कि उसकी आपूर्ति के लिए 24 घंटे भी कम पड़ेंगे।
 
ओडीओपी घोषित होने के बाद 30-35 फीसद नए लोग जुड़े : यही वजह है कि टेरोकोटा के ओडीओपी घोषित होने के बाद इससे करीब 30-35 फीसद और लोग जुड़े हैं। जुड़ने वाले भी दो तरह के हैं। मसलन कुछ लोग तो कच्चा माल तैयार करने के साथ फिनिशिंग और पकाने तक का मुकम्मल काम करते हैं। कुछ ऐसे लोग भी हैं जो प्रति पीस और साइज की दर पर कच्चा माल तैयार कर हमारे जैसे लोगों को पहुंचा जाते हैं। यहां उनके रंग रोगन, डिजाइन के बाद पकाने का काम होता है।
 
दिल्ली में बिलगू के टेरोकोटा उत्पादों का जलवा : उल्लेखनीय है कि गोरखपुर महानगर के आने वाले औरंगाबाद, गुलरिहा, भरवलिया, जंगल एकला नंबर-2, अशरफपुर, हाफिज नगर, पादरी बाजार, बेलवा, बालापार, शाहपुर, सरैया बाजार, झुंगिया, झंगहा क्षेत्र के अराजी राजधानी आदि गांवों में टेराकोटा का काम होता है। पर माटी में जान डालने की शुरुआत औरंगाबाद के लोगों ने ही की। इस गांव में ऐसे कुछ परिवार भी मिल जाएंगे, जिनकी तीन लगातार पीढ़ियों को केंद्र या राज्य सरकार ने सम्मानित किया है। यहीं से निकले अलगू के भाई बिलगू उर्फ विनोद ने दिल्ली में यह काम शुरू किया। आज वह बड़े वर्कशॉप के मालिक हैं। यही नहीं, यहां के लोग अलगू के हुनर का लोहा मानते हैं।
 
कोरोना में भी काम आई अपनी माटी : वैश्विक महामारी कोरोना में भी अपनी माटी और हुनर काम आ गया। बाहर निकलना नहीं था। हमने सोचा हमारी मिट्टी और इससे बने उत्पाद सड़ने तो हैं नहीं। देर-सबेर हालात सामान्य होंगे। यह सोचकर समय काटने और बेहतर दिनों की उम्मीद में हमने अपना काम जारी रखा। जो सोचा था, बाद में वही हुआ। कोरोना के बाद इतने आर्डर आए कि जो भी बना था, वह खत्म हो गया। पर इसके पीछे भी मूल रूप से हमारे महाराजजी (मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ) ही थे। उनकी नीतियों की वजह से कोरोना से पहले अच्छी बिक्री की वजह से हमारे पास काम लायक पूंजी थी, साथ में बाकी संसाधन भी। लिहाजा हमारा काम चल गया। अन्यथा तो हममें से कई बर्बाद हो जाते।
Edited by : Vrijendra Singh Jhala

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