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हक रिव्यू: न्याय की इस सच्ची कहानी में यामी-इमरान की शानदार एक्टिंग

समय ताम्रकर
शुक्रवार, 7 नवंबर 2025 (12:52 IST)
न्याय सिर्फ कानून का शब्द नहीं, बल्कि यह दर्द, संघर्ष और मानवीयता का अनुभव है, यह लाइन उस झकझोर देने वाले संघर्ष की झलक देती है, जिसे फिल्म ‘हक’ बताना चाहती है। फिल्म ने एक आम-सी महिला के जीवन को बड़े परदे पर उतारा है। वह महिला जिसने अपनी गरिमा, अपने हक और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़कर इतिहास बना दिया, चाहे उसे कभी एहसास न हुआ हो।
 
अब्बास (इमरान हाशमी) अपनी पत्नी शाजिया बानो (यामी गौतम धर) के साथ जीवन व्यतीत कर रहा है। शुरुआत में सब सामान्य-सहज चलता है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है, रिश्तों में दरारें उभरने लगती हैं। अब्बास अचानक दूसरी शादी करता है, फिर ट्रिपल तलाक का प्रयोग करता है।  शाजिया न्याय के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाती है।  
 
फिल्म 1985 में हुए मामले और सुप्रीम कोर्ट फैसले पर आधारित है। इसे सीधे-सीधे उस केस पर आधारित नहीं बताया गया बल्कि एक संवेदनशील तरीके से उस पूरे सामाजिक और कानूनी परिदृश्य को सामने लाया गया है।
 
‘हक’ एक ऐसी महिला की कहानी है जो अपने साथ हुए अन्याय के खिलाफ पूरे सिस्टम से लड़ती है। कहानी सच्ची घटना से प्रेरित है और इसी वजह से हर फ्रेम में यथार्थ झलकता है। फिल्म की शुरुआत शांत है, लेकिन धीरे-धीरे भावनाएं, कानून और इंसानियत का संघर्ष उभरकर सामने आता है।
 
फिल्म पहले हाफ में ही दर्शकों को कनेक्ट कर लेती है। शाजिया-अब्बास के बीच कैसा व्यवहार है, घर-परिवार में किस तरह की मानसिकता है, यह बड़ी बारीकी से पेश किया गया है। दूसरे हाफ में गति थोड़ी धीमी पड़ जाती है। कोर्टरूम सीन में बढ़ती राष्ट्र-धर्म-कानून की चर्चाएं फिल्म को कभी-कभी भारी बना देती है।
 
निर्देशक सुपर्ण एस वर्मा, जो ‘द फैमिली मैन’ और ‘राणा नायडू’ जैसी वेबसीरिज के लिए जाने जाते हैं, ने कहानी को बहुत सादगी से पेश किया है। फिल्म में किसी किस्म की लाउडनेस नहीं है और न ही कोर्टरूम ड्रामा नाटकीयता से भरा है। निर्देशक ने कहानी को बिना ओवरड्रामैटिक बनाए, एक भावनात्मक यात्रा में बदल दिया है। नि:संदेह फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसका ट्रीटमेंट है।
 
फिल्म की कमजोरी की बात की जाए तो कहानी के मूल को सहेजने पर ज्यादा फोकस किया है और इस चक्कर में कहानी के राजनीतिक और सामाजिक पहलु पीछे छूट जाते हैं जबकि इस पर बहुत बातें की जा सकती थीं। फिल्म की धीमी गति भी तेज फिल्म देखने के आदी दर्शकों को थोड़ा परेशान कर सकती है। 
 
यामी गौतम ने एक बार फिर साबित किया है कि वो अपनी भावनाओं को चेहरे और आंखों से बखूबी बयान कर सकती हैं। फिल्म में वो नायक नहीं, बल्कि एक आम इंसान हैं जो अन्याय के खिलाफ खड़ी होती हैं और यही बात फिल्म को खास बनाती है।
 
इमरान हाशमी यहां अपने रोमांटिक इमेज से बिल्कुल अलग नजर आते हैं। लंबे समय बाद इमरान को इस तरह की गंभीर भूमिका में देखना ताजगी भरा अनुभव है। कुछ दृश्यों में उनकी रेंज की कमी दिखती है, लेकिन ज्यादातर समय वे अपने किरदार को गहराई देते हैं। 
 
बैकग्राउंड म्यूजिक, साउंड डिजाइन और सिनेमाटोग्राफी ने कहानी के इम्पैक्ट को और गहरा किया है।  
 
‘हक’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि समाज को आईना दिखाने वाली कहानी है। यह बताती है कि न्याय सिर्फ अदालत में मिलने वाला फैसला नहीं, बल्कि एक भावनात्मक राहत है जो किसी भी पीड़ित को जीने की ताकत देती है। 
 
फिल्म की सबसे बड़ी मजबूती यह है कि यह किसी समुदाय को नीचा दिखाने की बजाय उस व्यक्ति की आवाज को बयां करती है, जिसने न्याय के लिए अकेले-अकेले लड़ाई लड़ी। 

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