यही समय है 'विनाश' के कारखानों को नियंत्रित और सीमित करने का

अनिल जैन
भोपाल गैस त्रासदी को विश्व की सबसे भीषणतम औद्योगिक त्रासदी के रूप में जाना जाता है। तात्कालिक तौर पर लगभग 2,000 और अब तक करीब 25 हजार लोगों की अकाल मृत्यु की जिम्मेदार वह त्रासदी आज भी औद्योगिक विकास के रास्ते पर चल रही दुनिया के सामने एक सवाल बनकर खड़ी हुई है।
 
इंसान को तमाम तरह की सुख-सुविधाओं के साजो-सामान देने वाले सतर्कताविहीन या कि गैरजिम्मेदाराना विकास का यह रास्ता कितना मारक हो सकता है, इसकी मिसाल मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 35 बरस पहले भी देखने को मिली थी और अब भी देश के अलग-अलग हिस्सों में छोटे-बड़े स्तर पर अक्सर देखने को मिलती रहती है।
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आंध्रप्रदेश में विशाखापट्टम, तमिलनाडु में कुड्डालोर, महाराष्ट्र में नासिक और छत्तीसगढ़ में रायगढ़। ये उन जगहों के नाम हैं, जहां 7 मई को हुए अलग-अलग भीषण औद्योगिक हादसों में कई लोग हताहत हुए हैं। विशाखापट्टनम के आरआर वेंकटपुरम गांव में एलजी पॉलिमर्स प्लांट से जहरील गैस रिसने से अब तक कम से कम 13 लोगों की मौत हो चुकी है। करीब 1,000 लोग इस जहरीली गैस के रिसाव की चपेट में आए हैं जिनमें से 300 को लोगों की हालत गंभीर होने के चलते अस्पतालों में भर्ती कराया गया है। जिस कारखाने से गैस का रिसाव हुआ है, उसके आसपास के 3 गांवों को पूरी तरह खाली करा लिया गया है।
 
तमिलनाडु में कुड्डालोर जिले के नेवेली गांव में लिग्नाइट कॉर्पोरेशन के प्लांट में एक बॉयलर में भीषण विस्फोट के बाद लगी आग में 7 लोग बुरी तरह झुलस गए। आग लगने के बाद प्लांट के इलाके का आसमान धुएं के बादलों से पट गया। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में एक पेपर कारखाने में गैस रिसने से 7 लोगों को गंभीर रूप से बीमार होने पर अस्पताल में दाखिल कराया गया है।
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यह घटना कारखाने के टैंक की सफाई करते वक्त हुई। इसी तरह महाराष्ट्र में नासिक जिले के सातपुर में एक फार्मास्युटिकल पैकेजिंग फैक्टरी में भीषण आग लगने से कोई जनहानि तो नहीं हुई लेकिन बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान होने का अनुमान है। एक ही दिन में हुईं ये चारों घटनाएं तो मनुष्य विरोधी औद्योगिक विकास की महज ताजा बानगीभर हैं, अन्यथा ऐसी दुर्घटनाएं तो देश के किसी-न-किसी हिस्से में आए दिन होती ही रहती हैं।
 
जब-जब भी ऐसी घटनाएं खासकर किसी कारखाने से जहरीली गैस के रिसाव की घटना होती है तो भोपाल गैस त्रासदी की याद ताजा हो उठती है। भोपाल में यूनियन कार्बाइड के कारखाने से मिक यानी मिथाइल आइसो साइनाइट नामक जहरीली गैस के रिसाव से काफी बड़े इलाके के वातावरण और प्राकृतिक संसाधनों पर जो बुरा असर पड़ा था, उसे दूर करना आज भी संभव नहीं हो सका है। नतीजतन, भोपाल और उसके आसपास के काफी बड़े इलाके के लोग आज तक उस त्रासदी के प्रभावों को झेल रहे हैं।
 
लेकिन इन लोगों की पीड़ा को औद्योगिक विकास के नशे में धुत सरकारों ने इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी याद नहीं रखा। जानलेवा मिक गैस के इस्तेमाल को अभी तक देश में प्रतिबंधित नहीं किया गया है और न ही खतरनाक रसायनों को नियंत्रित और सीमित करने की कोई ठोस नीति अब तक बन पाई है। इसी का नतीजा हम आए दिन होने वाली छोटी-बड़ी औद्योगिक दुर्घटनाओं के रूप में देखते रहते हैं।
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देश में स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन इंटरनेशनल हेल्थ रेगुलेशन एट प्वॉइंट ऑफ इंट्रीज इंडिया के मुताबिक देश में 25 राज्यों और 3 केंद्र शासित प्रदेशों के 301 जिलों में 1,861 प्रमुख खतरनाक रासायनिक औद्योगिक इकाइयां हैं। साथ ही असंगठित क्षेत्र में भी 3 हजार से ज्यादा खतरनाक कारखाने मौजूद हैं जिनका कोई विनियमन नहीं है। इन चिंताओं से हटकर सुस्त अर्थव्यवस्था में भी भारतीय रसायन उद्योग बेहद उत्साहित है। केंद्र सरकार भी अपनी मरणासन्न मेक इन इंडिया योजना में रसायन उद्योग के जरिए ही जान फूंकना चाहती हैं।
 
फलते-फूलते रसायन उद्योग के अलावा भी देश में विकास के नाम पर जगह-जगह अन्य विनाशकारी परियोजनाएं जारी हैं- कहीं परमाणु बिजली घर के रूप में, कहीं औद्योगीकरण के नाम पर, कही बड़े बांधों के रूप में और कही स्मार्ट सिटी के नाम पर। तथाकथित विकास की गतिविधियों के चलते बड़े पैमाने पर हो रहा लोगों का विस्थापन सामाजिक असंतोष को जन्म दे रहा है। यह असंतोष कहीं-कहीं हिसक प्रतिकार के रूप में भी सामने आ रहा है।
 
'किसी भी कीमत पर विकास' की जिद के चलते ही देश की राजधानी दिल्ली समेत तमाम महानगर तो लगभग नरक में तब्दील होते जा रहे हैं, लेकिन न तो सरकारें सबक लेने को तैयार है और न ही समाज। महानगरों और देश के बड़े शहरों में काम करने वाले विभिन्न प्रदेशों के जो प्रवासी मजदूर कोरोना महामारी के चलते अपनी रोजी-रोटी छिन जाने की वजह से अपने घरों की ओर लौटना चाहते हैं, उन्हें रोकने के लिए भी सरकारों और उद्योगपतियों द्वारा तरह-तरह के शर्मनाक और अमानवीय हथकंडे अपनाए जा रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वे जहां हैं, वहीं बने रहें और लॉकडाउन खत्म होने के बाद फिर उद्योगपतियों के 'विकास' में अपना योगदान करते रहें।
 
विदेशी निवेश के नाम पर तो सरकारों ने विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए समूचे देश को आखेटस्थली बना दिया है। यही नहीं, अब तो देश के बड़े कॉर्पोरेट घरानों ने भी देश में कई जगह ऐसे कारखाने खोल दिए, जहां मौत का सामान तैयार होता है और जिनका अवशिष्ट नदियों को और धुआं वायुमंडल को जहरीला बनाता है। ऐसे कारखानों में पर्याप्त सुरक्षा उपाय न होने की वजह से वहां काम करने वाले श्रमिकों और उस इलाके के लोगों के सिर पर हर समय मौत नाचा करती है। उन कारखानों में कभी आग लगती है, कभी विस्फोट होता है तो कभी जहरीली गैस का रिसाव होता है। इस सिलसिले में गत दिनों आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु सहित 4 जगहों पर कारखानों में हुई दुर्घटनाएं ताजा मिसालें हैं।
 
इस तरह के कारखाने जब खोले जाते हैं तो सरकारें पहले से जानती हैं कि इनमें कभी भी कोई हादसा हो सकता है और लोगों की जानें जा सकती हैं, लेकिन इसके बावजूद वह इन कारखानों को स्थापित होने देती हैं। इसके लिए वह स्थानीय लोगों को उनकी जमीन से बेदखल करने और उनकी खेती की जमीन छीनने में भी कोई संकोच नहीं करतीं।
स्थानीय लोग और पर्यावरण संरक्षण के लिए काम करने वाले संगठन जब इन कारखानों का विरोध करते हैं तो उन्हें विकास विरोधी, नक्सली और विदेशी एजेंट तक करार दे दिया जाता है। उनके विरोध के स्वर को बलपूर्वक दबा दिया जाता है और उन पर तरह-तरह के मुकदमे लाद दिए जाते हैं। इस काम में कॉर्पोरेट नियंत्रित मीडिया भी 'चीयर्स लीडर्स' की भूमिका अपनाते हुए पूरी तरह सरकार और पुलिस का साथ देता है।
 
इस समय कोरोना महामारी और लॉकडाउन के चलते सभी तरह की औद्योगिक गतिविधियां जो कई दिनों से ठप थीं, अब फिर से शुरू हो रही हैं। जानकारों का कहना है कि जब कोई औद्योगिक इकाई कुछ समय के लिए बंद की जाती है तो सुरक्षा के लिहाज से उसे बंद करने के पहले भी और उसे फिर शुरू करते वक्त भी उसकी पूरी साफ-सफाई अनिवार्य रूप से करना होती है। ऐसा नहीं करने पर दुर्घटनाएं होना स्वाभाविक है।
 
जाहिर है कि आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में जो दुर्घटनाएं हुई हैं, वे निर्धारित सुरक्षा व्यवस्था को पूरे किए बिना ही औद्योगिक इकाइयां बंद करने और अब डेढ़-दो महीने के अंतराल के बाद दोबारा शुरू होने के दौरान ही हुई हैं। अगर केंद्र सरकार ने लॉकडाउन पूरी तरह हटने पर ऐसे बड़े कारखानों के दोबारा शुरू होने से पहले वहां साफ-सफाई की प्रक्रिया का पालन करने के संबंध में उचित दिशा-निर्देश जारी नहीं किए तो ऐसी और भी कई दुर्घटनाओं को टाला नहीं जा सकेगा।
 
पिछले करीब डेढ़ माह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन के चलते औद्योगिक गतिविधियां पूरी तरह से बंद होने के कारण देश के पर्यावरण में काफी सुधार आया है। कभी अलग-अलग इलाकों की जीवनरेखा मानी जाने वाली गंगा, यमुना और नर्मदा जैसी नदियां लंबे समय से सर्वग्रासी औद्योगीकरण का शिकार हो कई जगह नाले में तब्दील हो गई थीं, इस समय काफी स्वच्छ हो गई हैं। जो नदियां अंधाधुंध खनन के चलते सूख कर मैदान में तब्दील हो गई थीं, वे भी अब फिर से बहने लगी हैं।
 
औद्योगिक गतिविधियां बंद रहने की वजह से वायुमंडल भी काफी स्वच्छ हो गया है। कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी के चलते एक तरह से प्रकृति ने हमें संभलने का सबक और मौका उपलब्ध कराया है। पर्यावरण में आए इस सकारात्मक बदलाव से सीख लेते हुए इसे स्थायी रूप से बनाए रखने के लिए सरकारों को अपनी उद्योग नीतियों पर पुनर्विचार करते हुए जहरीला धुआं और रासायनिक अवशिष्ट उगलने वाली औद्योगिक इकाइयों को घनी आबादी वाले क्षेत्रों और नदियों के किनारों से हटाने के बारे में कदम उठाना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु जैसी घटनाओं के रूप में भोपाल गैस कांड जैसे छोटे-बड़े हादसे देश को लगातार देखने को मिलेंगे। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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