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सियासत पर कविता : राज की कुर्सी
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सही है, न्याय की कुर्सी में,
अन्याय नहीं होता है
झूठ है, राज की कुर्सी में,
माया मोह नहीं होता है
बिना लक्ष्मी जी के,
भला कभी कुर्सी मिलती है
तभी तो कुर्सी मिलते ही,
लक्ष्मी जी फलती फूलती है
धन है तो सियासत में,
उठापटक होती है
मैदान में उतरने के लिए,
भारी भरकम सूमो पहलवान की जरूरत होती है
लड़ाके आ ही गए,
तो मार धाड़ होनी ही है
झगड़ते ही पुलिस की,
सीटी बजनी है
थाने पहुचने पर,
मेडल मिलने वाला नहीं है
मुकदमों की फेहरिस्त,
लंबी होनी ही है
बायोडाटा में लिखने की,
कमी नहीं है
उम्मीदवार के नाम से
जनता अपरिचित नहीं है
प्रजा भी जाति, धर्म
संप्रदाय में बंटी हुई है
साधु संतों की साधना,
भंग करने पर तुली हुई है
मौन तपस्वियों के मुखारविंद से,
प्रवचनों की झड़ी लगी हुई है
वसुधैव कुटुम्बकम की जगह,
वसुधैव लड़क्कम की बारिश हो रही है
बांट कर आखिर कोई,
चुनाव जीत जाता है
जीतते ही सरकार,
बनाने का दावा ठोक देता है
सैया हुए कोतवाल,
डर किस बात का है
कुर्सी पर बैठते ही,
अपनों से मुकदमे वापस ले लेता है
न्याय की कुर्सी तक,
फाइल पहुंचने ही नहीं देता है
उससे पहले ही अफसरों के,
पिटने, उनसे गाली गलोच करने का,
सलटारा कर देता है
सही है, न्याय की कुर्सी में,
अन्याय नहीं होता है
झूठ है, राज की कुर्सी में,
माया मोह नहीं होता है।
- पंकज सिंह
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