हिन्दी कविता : किस्मत

देवेन्द्र सोनी
अक्सर ही हम 
रोना रोते रहते हैं 
अपनी फूटी किस्मत का 
चाहे हमको मिला हो 
कितना भी, अधिक क्यों न !
 
नही होता आत्म संतोष 
कभी भी हमको 
चाहते ही हैं - 
और अधिक, और अधिक ।
 
ये कैसी चाहत है, सोचा है कभी !
 
मिलता है जितना भी हमको 
वह सदा ही होता है 
हमारी सामर्थ्य के अनुरूप।
 
मानना होगा इसे और 
करना होगा संतोष 
क्योंकि - वक्त से पहले और
किस्मत से ज्यादा नहीं मिलता 
किसी को भी, कभी भी कुछ।
 
किस्मत भी बनाना पड़ता है -
सदैव कर्मरत रहकर।
 
कर्मों का यही हिसाब देता है
हमको वह फल, जो आता है
इस लोक और परलोक में 
दोनों ही जगह काम।
 
बनती है जिससे फिर 
नए जन्म की किस्मत हमारी।
 
समझ लें इसे और करें -
निरंतर मेहनत, सद्कर्म ।
 
रखें संतोष, मानकर यह 
किस्मत से हम नहीं 
हमसे है किस्मत।

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