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कविता : जब हम बादलों को न्योता देने गए थे
गरिमा मिश्र तोष
पिछले साल से पहले
पिछली छुट्टियों से भी पहले
जब हम बादलों को न्योता
देने उनके घर गए थे
तब याद है कितने सारे
लम्हे चुरा लाए थे
तुम मेरी आंखों में
शबनम के कतरों को आज भी
ढूंढा करते हो जो व
बिखरे थे फर्न के पत्तों पर
और मैं खोजती फिरती हूँ
वो खाली सडक जहाँ
थाम के बाहें तुम्हारी बस
चलती ही जाती थी ॥
सुनो याद है वो पहाड़ी
उतराई ज एक
किनारे खडे होकर
तुमने मेरे होते मुझसे मुझको
चुराकर आगोश में ले लिया था
और मैं उस जंगल की खुशबू को
तुम्हारे सीने से लगी महसूसते
अपनी उम्र बढा लाई थी ॥
और आज भी उस धुंध भरे
ऊंनीदे वृक्षों की ऊंचाई मुझे
तुम्हारे किरदार की याद दिला जाती है
तुम सा सच्चा और अच्छा बस
वो छोटा सा मस्त बादल ही लगा मुझे
कितनी अच्छी बीती न पिछले
साल से भी पहले वाली छुट्टियां ॥
याद करती हूं तो हर बार उन
कोहरीले पनीले रास्तों पर
बिना किसी डर के झर्र से भागती
चली जाती हूं क्योंकि तुम्हारी
चश्मीली आंखें जो हैं थामने को
मैं उस नदी की भी शुक्रगुजार हूं
जो स्वयं ही हमारे साथ की गवाह बनी
और उसके सात फेरे कर
मैंने सप्तपदी कर ली थी ॥
अब बस मैं हूं वो न्योते हुए
बादल हैं और तुम्हारी यादें हैं
क्योंकि पिछले साल की पहली
वाली छुट्टियों में ही तो हम झगडे थे
और देखो असर उसका बरसात कमबख्त
बहुत होती है और मुझे बेवजह भिगोती है
अब जब तुम भी पास नहीं हो
मैं इन गीली सडकों पर फिसलती भी नहीं
एक बार सोचती हूं आ जाओ
आजाद कर दूं तुम्हे मुझको संभालने
वाली जिम्मेदारी से कम से कम
खुल कर हवाएं सांस तो लेंगी
और मैं इस बार फिर उस जंगली
खुशबू को भर लाउंगी अपनी अंजुरी में
बस तुम्हारी बाहों का स्पर्श ही तो न होगा
याद है पिछली छुट्टियों से भी पहले
वाली छुट्टियों में हम जब बादलों को
न्योता देने उनके घर गए थे....
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