कविता : ये पैंतालिसी तेवर गर्मी के...

डॉ. रामकृष्ण सिंगी
चालीस डिग्री गर्मी को भूल गए हम। 
अब तो पैंतालिस का ही सामान्य चलन है।  
पहले नव तपा होता था फक्त नौ दिन,
अब पैंतालिस दिन नवतपे की ही तपन है ।। 1।। 
 
पैंतालिस से ज्यादा वाले नगरों का 
हम पढ़कर अखबार में, 
सोचते हैं/कि अपने यहां तो कम है। 
बेजंगल रेगिस्तान बन गए सब भू-प्रान्तर 
उथले जलाशय, पाताल पहुंचा भू-जल स्तर,
इस पर जो भी हो जाय, सो कम है ।।2।। 
 
बेमतलब हुआ मालव-निमाड़ का अन्तर। 
'पग-पग नीर' की उक्ति 
बस एक भूली कहावत हो गई। 
बरस रही है आग सी चारों तरफ,
छेड़-छाड़ से क्रुद्ध प्रकृति देवी की 
जैसे अदावत हो गई ।। 3 ।। 
 
उनींदे से पेड़, अधमरे पशु सब,
पंछी जा छुपे कोटरों में। 
भिन्ना रहे ए.सी. ऊंची मल्टियों में,
हांफ रहे कूलर छोटे घरों में ।। 
नमन उन श्रमिकों को जो अपने कान बांधे हुए 
फिर भी निर्विकार कार्यरत,
आग उगलते सूरज के नीचे,
गर्मी के पैंतालिसी तेवरों में ।। 4।। 
 

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