लघुकथा : बेखबर फासले...

देवेन्द्र सोनी
सहजता से चल रही रमा और राजन की गृहस्थी में बेखबर फासले दस्तक दे चुके थे। मन के किसी कोने में दोनों ही एक अलगाव-सा महसूस कर रहे थे, पर इसे व्यक्त करने से वे बचते थे। 
 
दस साल की भरी-पूरी खुशहाल जिंदगी में इन फासलों ने दस्तक तब दी, जब एक दिन अचानक ही राजन का दोस्त रवि उनके घर आया। फिर तो यह क्रम ही बन गया। रवि का रोज-रोज घर आना रमा और उसकी युवा होती बेटी को कतई पसंद नहीं था, पर राजन की खुशी के लिए न चाहते हुए भी वह रवि के स्वागत-सत्कार में कोई कमी नहीं करती। 
 
रवि बेरोजगार होने के बावजूद खुलकर जीवन जीने का आदी था। घर से धनाढ्य होने के कारण फिजूलखर्ची उसके स्वभाव में थी। जब-तब वह कुछ न कुछ उपहार लाता रहता। राजन उसकी इस दरियादिली का कायल था और इस बात से वह पूरी तरह बेखबर था कि रवि की दोस्ती उसके गृहस्थ जीवन में बड़ा फासला लेकर आने वाली है। 
 
रमा आने वाले इस बेखबर फासले को भांप चुकी थी और इशारे ही इशारे में वह राजन को आगाह भी कर चुकी थी पर राजन, रमा की बात को हंसी में उड़ा देता जिससे रमा सदैव ही असहज रहती। यही असहजता उन दोनों के बीच फासले में बदलती जा रही थी। 
 
समय निकलता गया और राजन, रवि के रंग-ढंग में ढलता गया। अब देर रात नशे में चूर होकर घर लौटना उसकी दिनचर्या बन गई। रमा उसे समझाती, पर राजन को कोई फर्क नहीं पड़ता था। जान से ज्यादा चाहने वाली युवा बेटी को भी अब वह जब-तब दुत्कार दिया करता था जिससे पिता-पुत्री के रिश्ते में भी फासले बढ़ते जा रहे थे। 
 
रमा इन हालातों से बहुत अवसाद में रहने लगी। उसका जब-तब बीमार पड़ जाने का भी राजन और रवि पर कोई असर नहीं हुआ। एक दिन मां-बेटी ने राजन के सामने ही रवि को खूब खरी-खोटी सुनाई और उसके घर आने पर रोक लगा दी। 
 
रवि ने इसे अपने अहम का प्रश्न बना लिया और अब बाहर ही राजन को ज्यादा से ज्यादा शराब पिलाने लगा। अपनी जिंदगी और मौत के बीच घटते जा रहे फासले से बेखबर रवि के लिवर ने जवाब दे दिया और अंतत: एक दिन वह अपनी दुनिया से रुखसत हो गया।
 
रमा सोचती ही रह गई कि कैसा था राजन के लिए उसका यह दोस्त जिसने उन दोनों के बीच वह फासला ला दिया, जो अब कभी पाटा नहीं जा सकता।
 

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