मेरठ व उत्तर भारत में सैनिक विद्रोह से भयभीत इंदौर ए.जी.जी. डुरेंड ने सीहोर कांटीजेंट व होलकर सेना की टुकड़ियां इंदौर रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए तैनात कर ली थीं। 270 सिपाही भोपावर (वर्तमान में धार जिले के सरदारपुर अनुविभाग में जैन तीर्थस्थल) कांटीजेंट की भील पल्टन से बुलाए गए थे। उधर भोपाल कांटीजेंट के 2 सैनिक दस्ते शीघ्रता से इंदौर के लिए रवाना हुए और 20 मई 1857 को इंदौर आ पहुंचे।
18 जून को महाराजा होलकर के सिपाहियों ने रात में अफीम गोदाम (वर्तमान आयकर कार्यालय) के पास रखी 3 तोपें हटाकर रेसीडेंसी चौराहे पर खड़ी कर दीं, जहां से संभवतः उनकी योजना रेसीडेंसी पर फायर करने की थी। जब ब्रिटिश अधिकारियों ने तोपों को हटाने के लिए कहा तो उनकेप्रभारी अधिकारी ने यह कहते हुए इंकार कर दिया कि वे तोपें तब तक नहीं हटाएंगे, जब तक कि उनकी इंफेन्ट्री की कंपनी को भी उनके साथ तैनात नहीं कर दिया जाता। यह घटना दर्शाती है कि विद्रोह के लिए सैनिक बहाने की तलाश में थे। उनके हौसले इतने बुलंद थे कि उन्होंने सैनिक अधिकारियों के आदेश मानने से इंकार करना शुरू कर दिया था।
उधर डुरेंड एक अनुभवी सैनिक अधिकारी था। उसने रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए किसी एक रियासत की सेना को न बुलाकर अलग-अलग कांटीजेंट के सैनिक बुलाए थे ताकि विद्रोह न हो सके और यदि विद्रोह हो भी तो इन सैनिक टुकड़ियों का उपयोग एक-दूसरे के विरुद्ध किया जा सके। वह होलकर सेना के प्रति भी आशंकित था, इसीलिए उसने होलकर इंफेन्ट्री और होलकर तोपखाने के दस्तों को अलग-अलग तैनात कर दिया था। होलकर तोपखाने के अधिकारी द्वारा जब यह मांग की गई कि होलकर इंफेन्ट्री कंपनी को उनके साथ ही तैनात किया जाए तो डुरेंड की आशंका विश्वास में बदल गई।
वैसे 6 जून को जब नीमच में विद्रोह हो जाने का समाचार इंदौर पहुंचा था तभी से नगर व विशेषकर रेसीडेंसी एरिया में भारी तनाव था।भोपाल कांटीजेंट की 2 तोपें रेसीडेंसी के पश्चिम में नीमच की ओर तैनात कर दी गई थीं। रेसीडेंसी अस्तबल चौराहे में केव्हेलरी सिपाही मुस्तैद थे। इंदौर के जनरल पोस्ट ऑफिस (जी.पी.ओ.) और अस्तबल के मध्य के क्षेत्र में तंबुओं में पैदल सैनिक शिविर था। इंफेन्ट्री अफीम गोदाम के पास नियुक्त थीं। घुड़सवार दस्ते वर्तमान जावरा कंपाउंड में तैनात थे। इन सैनिकों की तैनाती ने अफवाहों के लिए अच्छा अवसर दिया, जिनके कारण तनाव बढ़ता जा रहा था और सारा नगर आशंकित था।
दहशत में डूबा था सारा शहर
इंदौर नगर जून के प्रथम सप्ताह से ही रेसीडेंसी पर सैनिक हमले के प्रति आशंकित था। उसी बीच 10 जून को इंदौर में यह समाचार पहंुचा कि महिदपुर की युनाइटेड मालवा कांटीजेंट ने कंपनी सरकार के विरुद्ध विद्रोह कर दिया है। इस विद्रोह की सफलता ने इंदौर के सिपाहियों के लिए मिसाल कायम कर दी। उस विद्रोह से महाराजा होलकर भी चिंतित हो उठे। उन्होंने कर्नल डुरेंड को साफ-साफ शब्दों में बता दिया कि युनाइटेड मालवा कांटीजेंट व होलकर केव्हेलरी एक ही थे। अतः अपने सहकर्मियों से प्रोत्साहन पाकर होलकर सेना भी बागी हो सकती है।
14 जून को भोपाल कांटीजेंट का अंगरेज अधिकारी कर्नल टेव्हर्स इंदौर पहुंचा और उसने सैन्य दल का कार्यभार ग्रहण कर लिया। इसी बीच सीहोर से एक कंपनी व कुछ घुड़सवार रेसीडेंसी आ पहुंचे थे। इनकी उपस्थिति से डुरेंड की कुछ हिम्मत बढ़ी थी, लेकिन जब उसी दिन उसे समाचार मिला कि ग्वालियर में भी बगावत हो गई है तो वह हौसलापस्त हो गया। इंदौर शहर का हाल सीतामऊ के वकील वजीर बेग ने 17 जून 1857 को इस तरह लिख भेजा था '...ओर हर तरा चारों तरफ शोर-गुल गदर मच रहा है। इनदोर सेहर छावनी में हर चार तरफ फौजें, रिसाले, पलटनें, तोपखाने लगे हैं। छावनी में महाराजा हुलकर का ओर अंगरेजी मिलकर बंदोबस्त है। रात-दिन जान गजब में हे- नहीं जीने में, नहीं मरने में। सेहर के हर तरफ महाराजा हुलकर का बंदोबस्त हे। रात-दिन सिया (ही) कंबर-बसता (तैयार) हैं। सर हाथ पे रखे बैठे हे। महू की फौज बदली बैठी हे।'
इस तरह के माहौल में 24 जून को महू में कर्नल प्लाट ने एक मुस्लिम फकीर को गिरफ्तार करवा लिया जो भीख मांग रहा था। उस पर संदेह था कि उसके पास सिपाहियों को देने के लिए क्रांतिकारियों का कोई समाचार था। उस फकीर को शीघ्र ही इंदौर कीजेल में भिजवा दिया गया। 27 जून को ब्रिटिश फौजी दस्तों के बीच तमाम फकीरों को देखा गया जिन पर आशंका की गई, वे जरूर उत्तर भारत से क्रांति का संदेश लेकर इंदौर पहुंचे हैं। बहुत संभव है कि वे अन्य राज्यों के सैनिक हों जो फकीरों का रूप धारण कर रेसीडेंसी क्षेत्र में कोई संदेश अवश्य लेकर पहुंचे थे, अन्यथा उन्हें भीख ही मांगनी होती तो वे नगर में जाकर भीख मांगते।
इंदौर शहर धीरे-धीरे विस्फोटक स्थिति में पहुंचता जा रहा था। महाराजा होलकर व डुरेंड दोनों का, अपनी पल्टनों से विश्वास उठ गया था।
संभवतः अंगरेजों के विरुद्ध विद्रोह टल जाता
उत्तर भारत में विद्रोह के समाचार से इंदौर का रेसीडेंट एच.एम. डुरेंड विचलित हो गया था और किसी के भी परामर्श पर उसका यकीन न रहा। यहां तक कि वह अपने अंगरेज अधिकारियों की सलाह भी मानने को तैयार न था। 11 जून 1857 की बात है कि उसके दो अधिकारियों कैप्टन लूडलो और कैप्टन कॉब जो इंजीनियर थे, ने सलाह दी कि कोष को, जो पृथक भवन में रखा गया था, रेसीडेंसी के मुख्य भवन में स्थानांतरित कर लिया जाए जिससे दो स्थानों की सुरक्षा के बदले केवल रेसीडेंसी की ही सुरक्षा पर ध्यानकेंद्रित किया जा सके। लेकिन डुरेंड ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। वे लोग इंजीनियर थे और अपने अनुभवों के आधार पर उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि रेसीडेंसी के मुख्य भवन के चारों ओर खाई खुदवा ली जाए जिससे शत्रु सीधे रेसीडेंसी भवन तक आसानी से नहीं पहुंच पाएंगे। लेकिन इस प्रस्ताव को भी डुरेंड ने अस्वीकार कर दिया। क्योंकि उसका विश्वास था कि ऐसी सुरक्षात्मक किलेबंदी से सिपाहियों के मन में अनावश्यक भय व आशंका उत्पन्न होगी।
उधर महू में जब यह समाचार पहुंचा कि बंबई के गवर्नर लॉर्ड एलफिंस्टन ने मेजर जनरल वुडबर्न के नेतृत्व में एक बड़ी फौज महू के लिए रवाना कर दी है तो महू के सैनिकों में भारी असंतोष व्याप्त हो गया। डुरेंड को डर था कि ऐसी स्थिति में इंदौर रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए तैनात सैनिकों में भी असंतोष के कारण बगावत हो सकती है। बंबई से चला सैन्य दल रास्ते में ही महू आने की बजाए औरंगाबाद की ओर मोड़ दिया गया क्योंकि वहां ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध बगावत हो गई थी। वह सैनिक दल अगर बंबई से सेंट्रल इंडिया में आ भर जाता तो संभव है कि बगावतें न हुई होतीं। सैनिकों के मार्ग-परिवर्तन पर डुरेंड ने लॉर्डकेनिंग के सचिव को पत्र लिखकर इसे एक 'भद्दी उलझन' निरूपित किया था जिसके कारण महू और इंदौर के क्रांतिकारियों के हौसले बुलंद हो गए और 1 जुलाई 1857 का दिन ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह के लिए मुकर्रर कर दिया गया। उधर औरंगाबाद में विद्रोहियों का सफाया करके मेजर जनरल वुडबर्न महू के लिए कूच कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और वह अपने सैन्य दल के साथ औरंगाबाद में ही पड़ा रहा। इससे अंगरेजों की स्थिति महू और इंदौर में कमजोर व असहाय हो गई।
गोला-बारूद खान नदी की बाढ़ में बह गया था
इंदौर रेसीडेंसी के चारों ओर जून 1857 के अंतिम सप्ताह तक एक अच्छी-खासी फौजी छावनी कायम हो गई थी। रेजीडेंट डुरेंड की योजना अनुसार रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए सीहोर, भोपाल कांटीजेंट, भोपावर एजेंसी के सैनिक व भील पल्टन के सिपाही यहां मौजूद थे।
डुरेंड को सर्वाधिक खतरा होलकर सेना के बागी हो जाने का था। उन्हीं की संख्या इंदौर नगर में सर्वाधिक भी थी। होलकर सिपाहियों के मन में कहीं यह भावना व्याप्त न हो जाए कि बाहरी सैनिक बल को होलकर सेना के विरुद्ध उपयोग करने के लिए बुलाया जा रहा है।डुरेंड ने महाराजा होलकर से भी अपनी टुकड़ियां व तोपें रेसीडेंसी भवन की सुरक्षा के लिए भेजने का आग्रह किया था। महाराजा ने अपनी 3 तोप मय गोला-बारूद, पैदल सेना की एक कंपनी व 2 घुड़सवार सैनिक दस्ते रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए भेज दिए थे। ये सिपाही 'महाराजा पल्टन' व 'बजरंग पल्टन' के थे। इन सिपाहियों के भेज देने के बावजूद महाराजा ने डुरेंड को परामर्श दिया था कि रेसीडेंसी परिसर में सुरक्षित बड़ा खजाना, ब्रिटिश महिलाओं व बच्चों को महू की फौजी छावनी में स्थानांतरित कर दिया जाए लेकिन इस बात पर डुरेंड ने कोई ध्यान नहीं दिया।
रेसीडेंसी पर 1 जुलाई 1857 को हमला होगा, ऐसी सूचना होलकर सैनिक अधिकारियों को मिलते ही उन्होंने इसकी सूचना डुरेंड को भिजवा दी थी। ब्रिटिश सरकार को लिखे गए बख्शी खुमानसिंह के पत्र से आक्रमण का षड्यंत्र स्पष्ट होता है। बख्शीजी ने लिखा, 'होलकर केव्हेलरी के सैनिकों को रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए खान नदी के तट पर तैनात किया गया था। विद्रोह के दिन की पूर्व रात्रि (30 जून 1857) को भीषण वर्षा हुई तथा इन सैनिकों की सारी युद्ध सामग्री गीली हो गई और कुछ खान नदी की बाढ़ में बह गई।इस सैनिक टुकड़ी के स्थान पर दूसरी टुकड़ी की नियुक्ति नहीं की गई तथा सैनिकों को वापस बुला लिया गया। ऐसा मैंने जानबूझकर किया था क्योंकि मुझे विद्रोह का आभास हो गया था।'
बख्शी खुमानसिंह द्वारा नई सैनिक टुकड़ी का न भेजा जाना अगली प्रातः विद्रोह की पूर्व सूचना ही थी। 30 जून की रात्रि में ही रेसीडेंसी की सुरक्षा के लिए तैनात कर्नल ट्रेव्हर्स के सेवकों में से एक सेवक डुरेंड के पास पहुंचा और उसने सूचित किया कि अगली सुबह ही रेसीडेंसी पर हमला आशंकित है। इस महत्वपूर्ण सूचना पर भी डुरेंड ने कोई ध्यान न दिया।