कविता : डिबरी का सूरमा

सलिल सरोज
मेरी दादी
की आंखों में
डिबरी का सूरमा था
जो डिबिया की लौ
के साथ रातभर
दुआर पर जागता था।
 
उन आंखों में मुझे
लहलहाते खेत
कल-कल करती नदी
अलसाया हुआ भोर
और रंभाती गाएं
सब दिख जाती थीं।
 
मैं और भी
बहुत कुछ देखता था
मेरे वंश का उदय
मेरे वर्तमान का विकास
मेरे कल का परिचय
मेरे जीवन का संचय।
 
उन आंखों में
प्यार, कर्तव्य,
बलिदान, सम्मान
सब सैत के रखे थे
जिन्हें दादी समय से निकालतीं
और नून-तेल के जैसे
हिसाब से इस्तेमाल करतीं।
 
मैं दादी से
अंतिम बार जब मिला
तो उस पर मोटा चश्मा था
जो आंसू के सोते को छिपाता था

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