कोरोना : इंदौर और इंदौरियत को किसकी नजर लग गई, लगा दो काजल का टीका

डॉ. छाया मंगल मिश्र
ये अपने इंदौर को किसकी नजर लग गई रे! डिठौना लगा दो मिलकर इसकी सुंदर, सलौनी, स्वच्छ शक्ल पर। माथे किनारे लगाएं काजल का टीका। और बचाएं इसे बुरी नजर से, हम सब मिलकर। नजर उतारो इसकी पावन कलश विधान से, जो है सबके लिए एक समान। उतारो नजर इसकी राई-नून से जिसमें कानून का नून हो और दंड की राई। उतारो नजर इसकी तेज निमाड़ी लाल सूखी मिर्ची की तेज आग में डालकर तिलमिला देने वाली धांस से जिसमें ज्ञान और शिक्षा की मिर्ची हो और विज्ञान-चिकित्सा की धधकती आग।
 
उतारो नजर इसकी पुराने तेलभरे चिंदे या रुई की मोटी तेलभरी बत्ती से जिसको शहर के दरवाजे की चौखट पर टांगकर आग लगाकर, टपकती हुई तिड़तिड़ाती आग की बूंदों को चप्पल-जूते से बुझाते हुए जिसमें चिंदा/बत्ती हो मजहबी विष का और टपकती आग की घृणा की बूंदों को धिक्कार व बहिष्कार के चप्पल-जूतों के नीचे कुचल डालें। और फिर भी न हो तो एक धारी वाला नींबू लेकर पूरे इंदौर में उतारा करके इंसानियत के माथे पर नफरत के नाम से काटकर किसी चौराहे पर फेंक आइए।
 
और भी जो टोना-टोटका एक मां अपने जिगर के टुकड़ों को बुरी नजर से बचाने के लिए किया करती है वो सब, क्योंकि जब दवा काम नहीं करती, तब मां की दुआ काम करती है। हमारी इस पावन पुण्य भूमि मां अहिल्या की नगरी इंदौर में सबका खून मिला हुआ है। किसी के बाप का इंदौर थोड़े ही है। जो इंदौर और इंदौरियत से प्यार करता है, गर्व करता है उन सबका है।

‘मजहब को अपने घर तक ही रखिए साहब। ये जब बाहर निकलता है तो इंसानियत के होंठ सी देता है' ये पढ़ा तो था। पर इंसानियत को निगल ही जाता है वो भी बिना डकार लिए। ये तो इस कोरोना ने ही दर्शन करवाया। मान लीजिए- ईश्वर न करे आप जिन पर थूक रहे हो वो आपके घर के हों। जिनके सामने नंगे होकर घूम रहे हो, अश्लील इशारे कर रहे हो वो आपके घर की औरतें हों। जिन्हें आप लाठी-पत्थरों से मार-मारकर खदेड़े जा रहे हो उनमें तुम्हारे बेटे-बेटियां हों। जगह-जगह जो अपना संक्रमित थूक लगा रहे हो वो आपके किसी नवजात व बच्चों को अपनी जकड़ में ले ले, आपके बुजुर्ग-जवानों को आपसे जुदा कर दे। आपके घर उजड़ जाएं, अनाथ हो जाएं सबके सब तब भी लज्जा आएगी या इसी बेशर्मी को सिर पर सवार करे घूमोगे जाहिलों?
 
'मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना' पर उलट हो गया है अब- 'मजहब ही तो सिखा रहा आपस में बैर रखना'। कहां ले जा रहा है ये मजहब, ये धर्म कि हम इंसानियत ही भूल गए। वर्षों के मधुर संबंधों का भी लिहाज न रहा। मुझे याद है मेरे बाबूजी और मेरी बिग्गी बुआ का बहन-भाई का रिश्ता। बाबूजी बताते थे कि जब उनकी मां, हमारी दादी का देहांत हुआ वो बहुत छोटे रहे। उनकी परवरिश में बुआजी और उनकी अम्मी जिन्हें हम 'आपा' कहते थे, का बड़ा हाथ था। आपा उन्हें मां और बुआजी सगी बहन के रूप में प्यार देती थीं। कोई राखी, भाईदूज ऐसी नहीं होती जब वो घर न आती हों। दोनों के बचपन का रिश्ता मरते दम तक रहा। हम भी उनके घर जाते तो आपा नमाज पढ़ने के बाद बुरी नजर से बचाने के लिए हम पर झाड़ा डालतीं। उनके हाथ की नमक की चाय का स्वाद आज भी जुबान पर है। जब बुआजी को मोतियाबिंद गहरा गया और आना मुश्किल होने लगा, तब बाबूजी हमें ही अपने साथ लेकर उनके घर चले जाया करते। उनके और हमारे बार-त्योहार हमेशा एकसाथ मनते। बरसों ये सिलसिला हमने खुद देखा, पर कभी हमारे दिलों में उनके लिए मजहबी विषबेल का बीज नहीं फूटा। सभी को हमने मृत्युपर्यंत रिश्तों को ईमानदारी, समर्पण, विश्वास और प्रेमपूर्वक निभाते देखा। फिर ये फिजाओं में जहर किसने घोला?
जब स्कूल में पढ़ते थे तब भी हमें जात-धर्म की ऊंच-नीच व बैरभाव से कोई मतलब नहीं हुआ करता था। हमारे बच्चों के भी कई दोस्त अलग-अलग जाति-धर्म के हैं। हमने कइयों को पीएचडी की डिग्री के लिए मार्गदर्शक का कार्य किया, पर कभी हमें ऐसी परेशानी सामने नहीं आई। हम केवल हिन्दुस्तानी होते हैं, खालिस हिन्दुस्तानी। जो एक-दूसरे के धर्म और त्योहारों को पूरा-पूरा आदर और सम्मान देते हैं। भले ही कट्टरता से अपने धर्मों को निभाते हैं, पर एक-दूसरे के धर्म का आदर करते हैं। केवल यही नहीं, कई बच्चियां जिन्हें हम पढ़ाते हैं, हम सभी एक-दूसरे के सुख-दु:ख के साझेदार रहे हैं। कैसे भूल गए कि तुम जो जाहिलपना कर रहे हो, उसका प्रेत किसी भी रूप में तुम्हें भी चिमट जाएगा।
 
शर्म तो आई नहीं तुमको कि जो तुम्हारा जीवन बचाने आए, उन्हीं को तुमने मारने का घोर पाप किया। इस गुनाह का क्या कोई प्रायश्चित होगा कि जिस देश ने तुम्हें जीवन दिया, जिसकी मिट्टी ने अन्न दिया, जिसकी वायु से सांसें ले रहे, जिसकी नदियों का पानी पीकर जिंदा हो, उसी देश के ईश्वरस्वरूप चतुर्मुखी देवताओं- डॉक्टर-स्वास्थ्य सेवाकार, पुलिस-प्रशासन, मीडियाकर्मी, नियमित कार्य सेवाकार का आभारी होने की जगह उनके साथ नाशुक्री जलील हरकतें करके खुद के धर्म व संस्कारों का अभद्र प्रदर्शन कर रहे हो? वो अपनी जान पर खेल रहे हैं केवल तुम्हें बचाने के लिए। कलंकित किया है तुम लोगों ने इंदौर को। शर्म से सर झुका दिया है मां अहिल्या का। मैली कर दी है तुमने मां नर्मदा। जैसे एक मछली पूरे तालाब का पानी गंदा कर देती है, उसी मछली का कृत्य किया तुमने। पूरी कौम का बदनुमा दाग हो तुम लोग, जो उन निरपराध, निर्दोष और सज्जन-सच्चे हिन्दुस्तानियों के दामन में लगे हैं। पाप तुम करो, भुगते सारा जमाना। अब नहीं होगा। जनता ने अपना मुखर विरोध दर्ज कराना चाहिए। ऐसे धर्म का जो अपनों का, अपने देश का हित ही न सिखाता हो, बहिष्कार कर देना चाहिए। नए धर्म की संरचना करनी होगी, जो इंसान को इंसानियत सिखाता हो-
 
'मजहब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे,
तहजीब करीने की, इंसान सलीके के।'
 
पर क्या स्वतंत्रता के 72 सालों बाद भी इस देश के नागरिकों को मिट्टी से प्रेम नहीं उपजा? एक पूरी पीढ़ी मर-खप गई इस स्वतंत्र देश में। उपहार में मिली इस स्वतंत्रता का कोई मोल नहीं इनकी नजर में? चुल्लूभर पानी में डूब मरना चाहिए उन्हें, जो अपना खुद का भला-बुरा ही विचार नहीं कर सकते। ऐसे जाहिल, मूर्ख, मूढ़, अज्ञानी केवल जाहिलियत का ही चलता-फिरता खतरनाक उदाहरण हैं। यदि हम किसी जानवर को दो दिन प्रेम से खाने को दे दें तो वह भी हमें कभी हानि पहुंचाने का नहीं सोचता। तुम्हें तो यह देश जन्मों से पाल-पोस रहा है। क्या हम वफ़ादारी के मामले में नुगरे ही रहेंगे? और कब तक रहेंगे? जवाब आपको ही खोजना है। 
 
'अदीबों की कदर नहीं होती इस अंजुमन में, जाहिलियत का डेरा है सभी के मन में।'

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