तकलीफ़ें हवाओं में और सलाहें ख़ंदकों में शरण लेने की!

श्रवण गर्ग
रविवार, 31 मई 2020 (11:30 IST)
खबरें दो हैं और दोनों के उद्गम स्थल भी अलग-अलग हैं पर संयोग कुछ ऐसा है कि टाइमिंग एक है और इसीलिए दोनों को एक ही चश्मे से पढ़ा जाना ज़रूरी हो गया है। आश्चर्य प्रकट किया जा सकता है कि जिस समय हम कोरोना से मरने वालों की बढ़ती हुई तादाद, दो महीनों से ऊपर के लॉकडाउन के अपार कष्टों, करोड़ों बेरोज़गारों और प्रवासी मज़दूरों की पीड़ाओं और उनकी टाली जा सकने वाली मौतों के बोझ तले दबे हुए हैं, क्या इन विषयों को उठाने का यही सही समय है! और यह भी कि सब कुछ एक ही समय में कैसे उपस्थित हो सकता है?

पहली खबर दिल्ली के एक नागरिक की जनहित याचिका है जिस पर सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ सोमवार को सुनवाई करेगी। याचिका में मांग की गई है कि संविधान में संशोधन कर देश का नाम अंग्रेज़ी में भी ‘India’ की जगह ‘Bharat’ या ‘Hindustan’ कर दिया जाए जिससे कि लोगों में राष्ट्रीय भावना का विकास हो सके। 'इंडिया’ शब्द अंग्रेजों की ग़ुलामी का प्रतीक है। ज्ञातव्य है कि संविधान सत्तर वर्ष पूर्व 26 जनवरी 1950 को प्रभाव में आया था।

दूसरी खबर बहुचर्चित फ़िल्म ‘थ्री इडीयट्स’ में मुख्य पात्र फुंसुख वांगडु (आमिर खान) के प्रेरणा स्रोत और बाद में ‘कौन बनेगा करोड़पति कार्यक्रम’ से चर्चित हुए लद्दाख़ के सोनम वांगचुक से संबंधित है। उल्लेख किया जा सकता है कि जनवरी 2012 में जब यह फ़िल्म चीन में प्रदर्शित हुई थी तो उसने न सिर्फ़ दो सप्ताह में ही ग्यारह करोड़ की कमाई कर ली थी, बीजिंग के टैक्सी ड्राइवर भारतीय पर्यटकों को ‘आल इज वेल’ बोलने लगे थे।

लद्दाख़ के सीमावर्ती क्षेत्रों में चीन की बढ़ती सैन्य गतिविधियों के मद्देनज़र सोनम वांगचुक ने हाल ही में यूट्यूब पर एक वीडियो संदेश जारी करके सनसनी फैला दी है। संदेश में कहा गया है कि ‘चीन को सेना देगी जवाब बुलेट से, नागरिक देंगे वालेट से’।

वांगचुक ने देशवासियों से अपील की है कि वे सभी चीनी सॉफ़्टवेअर और हार्डवेअर सामानों का एक सप्ताह में बहिष्कार कर दें। इस बहिष्कार को आंदोलन का रूप दिया जाना चाहिए। अपील का असर भी हो रहा है। अपील पर आमिर खान और महानायक की प्रतिक्रिया प्राप्त होना अभी बाक़ी है।

सवाल ‘इंडिया’ को अंग्रेज़ी में भी ‘भारत’ या ‘हिंदुस्तान’ में बदलने की मांग या चीनी वस्तुओं के बहिष्कार का नहीं बल्कि विषयों के बहस में लाए जाने के समय का है। चीन 1962 के युद्ध के बाद से ही हमारी सीमाओं को अशांत करता रहा है। हमारे एक बड़े भू-भाग पर अपनी दावेदारी भी जताता रहा है। पर हम उसके साथ संवाद भी बनाए हुए हैं और यह प्रक्रिया, बिना अमेरिकी मध्यस्थता का स्वागत किए, वर्तमान में भी जारी है।

चीन इस समय जो कुछ भी कर रहा है उसमें नया यह है कि महामारी के फैलने के कारणों को लेकर अमेरिका के साथ उसके सम्बंध काफ़ी तनावपूर्ण हो गए है, हांगकांग में उसने सैन्य हस्तक्षेप कर नागरिक दमन प्रारम्भ कर दिया है और भारत के ख़िलाफ़ नए सिरे से मोर्चा खोल दिया है। वांगचुक जानते होंगे कि चीन इस समय केवल भारत की ही समस्या नहीं बल्कि विश्व भर के लिए परेशानी का कारण बना हुआ है।

संदेह होने लगता है कि जिस समय हमारा सारा ध्यान कुछ दूसरे कठिन मुद्दों पर केंद्रित होना चाहिए, ऐसे विषयों की ओर ले ज़ाया जा रहा है जो मुल्क को एक अविश्वसनीय राष्ट्रवाद की दीवारों में क़ैद करने का भ्रम पैदा कर सकते हैं। गांधी जी ने जब स्वदेशी का नारा दिया था तब बात शायद सभी विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की थी केवल ब्रिटिश सामानों की नहीं।

वांगचुक केवल चीनी सामान के बहिष्कार की ही बात कर रहे हैं। वे शायद ऐसा मानकर चल रहे हैं कि भारत, चीन और दुनिया के दूसरे देशों का आज जो वर्तमान है वही भविष्य भी बनने वाला है। चीन और ताइवान के बीच कटुता जग ज़ाहिर है और यह भी कि बीजिंग के दबाव के कारण ही ताइवान से हमारे सम्बंध वैसे नहीं हैं जैसे कि होने चाहिए। पर सचाई यह भी है कि ताइवान के कुल निर्यात का 26 प्रतिशत से अधिक चीन को होता है और वहां से आयात सिर्फ़ 19 प्रतिशत।

'लोकल इज वोकल’ की शर्त यह नहीं होनी चाहिए कि किसी एक देश की वस्तुओं का हम केवल सीमा सम्बन्धी विवादों के कारणों से बहिष्कार करना प्रारम्भ कर दें। क्या हम ऐसा ही कभी पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश के साथ भी करने का सोच पाएंगे?
और अंत में यह कि केवल नामों को ही बदलकर हमने अब तक क्या हासिल कर लिया है और हममें कितनी राष्ट्रीय भावना का विकास हो गया है? क्या प्रयागराज हो जाने के बाद इलाहाबाद की आत्मा बदल गई है या कि दिल्ली का औरंगज़ेब रोड अब कुछ नया हो गया है? क्या नामों के बदल जाने भर से ही नागरिकों के मन भी बदल जाते हैं? तकलीफ़ें तो हवाओं के ज़रिए फेफड़ों में प्रवेश कर रही हैं और इलाज राष्ट्रवाद की मास्क पहनकर ख़ंदकों में शरण लेने के सुझाए जा रहे हैं। मुद्दे बेशक सही भी हो सकते हैं पर वक्त की ज़रूरत कुछ और है जिसे कि हमें ईमानदारी से समझना पड़ेगा। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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